बांदा: बुंदेलखंड क्षेत्र जल संरक्षण और अपने प्राचीन तालाबों के लिए प्रसिद्ध था जिनका निर्माण 9 वीं-12 वीं सदी के बीच वहां के शासक रहे चंदेल राजाओं द्वारा हुआ था। चंदेल राजाओं की बुंदेलखंड की समझ काफी उच्च स्तर की थी। वहां की माटी-पानी-हवा को परख कर उन्होनें पानी बचाने के परंपरागत तरीकों को अपनाया और पीढ़ी दर पीढ़ी तालाबों के महत्व को लोकप्रिय बनाया। बांदा जनपद में नवाब जुल्फिकार अली ने भी बहुत से तालाब बनवाए थे।
लेकिन इस क्षेत्र की विडंबना तो यह है कि जिस क्षेत्र में तालाबों के द्वारा जल संरक्षण की पुरानी परंपरा रही है वहां पानी की कमी के कारण पलायन तेजी से बढ़ता जा रहा है।
कहते हैं कि बुंदेलखंड क्षेत्र में पड़ने वाले उत्तर प्रदेश राज्य के बांदा जिले में ही कुल 4045 तालाब हुआ करते थे जो कुछ समय की गर्त में गायब हुए और कुछ आधुनिकरण की आंधी में ओझल हो गए। आज भी बांदा जनपद के राजस्व अभिलेखों में कुल 3295 तालाब दर्ज हैं। लेकिन बढ़ती आबादी, शहरीकरण, कृषि में अत्यधिक रासायनिक का प्रयोग, भूजल का अत्यधिक दोहन, भौतिकतावादी समाज, वनों का कटाव, पहाड़ों में अत्यधिक उत्खनन, नदियों में अत्यधिक उत्खनन, अनियोजित विकास, जल के प्राकृतिक स्रोत जैसे तालाब एवं छोटी नदियों में अतिक्रमण एवं तालाब/नदियों में गाद का जमा होना आदि के चलते, तालाब/ नदियों का विलुप्त होने से अब यह सारा क्षेत्र अकाल और दुष्काल के लिए जाना जाता है।
बुंदेलखंड में जल संकट से संबंधित एक प्रसिद्ध कहावत है:
“धौरा तेरा पानी गजब करी जाए, गगरी न फूटे खसम मरि जाए।”
वहां पानी का इतना संकट है कि महिलाएं पानी लाते वक्त एक मटकी पानी की कीमत अपने खसम यानी पति से कर बैठती हैं। उनके अनुसार पानी की मटकी नहीं फूटनी चाहिए चाहे उसके बदले में उनका खसम (पति) मर जाए।
इस क्षेत्र में पानी की एक-एक बूंद का महत्व है क्योंकि यहां की पथरीली जमीन के कारण भू-पृष्ट जल बहुत कम मात्रा में भूमि में रिसता है इसलिए भूजल रिचार्ज अत्यंत कम हो जाता है। हर दो-तीन वर्ष में सूखा अतिथि की तरह आता है। यहां पानी बिना तबाही होती है।
भौगोलिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश के सात जिले (बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर) जबकि मध्य प्रदेश के सात जिले (पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, दमोह, सागर व निवाडी) बुंदेलखंड क्षेत्र में सम्मिलित हैं। यहां जल प्रबंधन और जल संरक्षण की स्थिति अत्यंत खराब रही है और यह क्षेत्र हमेशा से भयानक सूखे को झेल रहा है।निर्बल बूढ़े मवेशी अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं और इस क्षेत्र से करीब 40 फ़ीसदी आबादी यहां से पलायन कर चुकी है ।हालांकि पानी की कमी के कारण इतने बड़े पैमाने पर पलायन तीन दशक पुराना रोग है पर बहुत से गांव खाली हो रहे हैं। बहुत से गांव में युवा नहीं बचे हैं। इसलिए जब कभी बुंदेलखंड का नाम जुबां पर आता है तो उसकी तस्वीर सूखा, अकाल, गरीबी, भुखमरी जैसे अनेक कठिनाईयों भरी जिंदगी की आती है।
बुंदेलखंड में तालाब एवं छोटी नदियों की सिंचाई की परंपरा खत्म होती जा रही है। क्षेत्र के तीन- चौथाई आबादी के जीवकोपार्जन का जरिया खेती-किसानी है लेकिन अब अधिकतर खेत सूखे पड़े रहते हैं। सूखे के कारण बंजर होती भूमि में होने वाले उत्पादन में कमी के कारण मानव की आजीविका संबंधी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पा रही हैं जिससे किसान बैंको और साहूकारों से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेते हैं। किसान की फसल का उत्पादन न होने की वजह से वह कर्ज अदा करने में अक्षम रहते हैं। ऐसे में परिस्थितियों की मार झेल रहे किसान गांव और समाज की तानों से बचने के लिए अक्सर आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं।
ऐसी स्थिति में बुंदेलखंड क्षेत्र में जहां दशकों से जल संकट रहा है, मिशन “खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में” जल संरक्षण का एक अनूठा प्रयास है।
बांदा जिले के बबेरू ब्लॉक में पड़ने वाले गांव अंधाव में ‘खेत का पानी खेत में- गांव का पानी गांव में’ अभियान के तहत जल संरक्षण के लिए नया प्रयोग शुरू किया गया है।जल संचयन के लिए गांव-गांव जल साक्षरता अभियान के तहत मोहल्ला स्तर में पानी चौपाल, गांव स्तर में पानी पंचायत लगाकर जल संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है।
पानी पंचायत लगाने के उपरांत गांव के तालाबों की साफ-सफाई तालाबों की जमा गाद/श्याका (सिल्ट ) को श्रम साधना/ श्रमदान करके तालाब की जमा गाद को निकालते हैं जिससे तालाब का गहरीकरण होता है। तालाबों का जीर्णोद्धार होता है। गांव में जल सेवकों का गठन जल संचयन की टीम का एक कैडर खड़ा करने के उपरांत प्रायोगिक तौर पर खेतों में बरसात के पानी के संग्रहण की दिशा में भी काम किया गया है। बरसात की एक-एक बूंद को सहेजने के लिए खेतों में बरसी बूंदों को खेत में ही रोकने का कार्य खेत में मेड़ बनाकर किया गया है। इससे खेतों में नमी बढ़ी है, भूजल का स्तर बढ़ा है, खेतों में हरियाली बढ़ी है, खेत की उपजाऊ मिट्टी का कटान/बहाव कम हुआ है। खेत के मेड़ की मिट्टी का कटाव ना हो इसके लिए खेत के मेड़ो पर पेड़ भी लगाए गए हैं जिसे हमनें नाम दिया: “खेत के मेड़, मेड़ के पेड़” अभियान। खेत के मेड़ो पर पेड़ होने की वजह से खेतों की सीमा का विवाद भी कम हुआ है जिससे किसानों के आपसी झगड़े कम हुए हैं।
“दान पुण्य जब तक किए, तीरथ किए हजार। पौधा रोपण न किए,तो सब कुछ है बेकार।।”
इसके साथ ही साथ खेत, तालाब के माध्यम से बरसात की एक-एक बूंद को सहेजने का कार्य किया गया है। खेतों में तालाब होने से किसान के मवेशियों को जल प्राप्त हुआ, पक्षियों के चहचहाट बढ़ी है, जलीय जीव जंतुओं को तालाब में आशियाना मिला है। खेत तालाब का पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत हुआ है। जैवविविधता मजबूत हुआ है एवं खेत की सिंचाई हेतु जल मिला है।
“आदमी कुआं से पानी पीता है, खेत तालाब से पानी पीता है” जिसका तात्पर्य यह है कि कभी गांवों में अधिक वर्षा होती है तो खेत तालाब अपने पेट में अधिक वर्षा को भर कर गांव को बाढ़ से बचाता है। जब कभी सूखा पड़ा है तो खेत तालाब से जल लेकर खेत की सिंचाई कर सूखा को मिटाया है। हमारे खेत तालाब सूखा और बाढ़ को कम करते हैं।
खेतों में पानी बचाने के उपरांत बरसात की एक-एक बूंद को अपने गांव में सहेजने हेतु गांव में गांव-सभा स्तर के सार्वजनिक तालाबों का पुनरुद्धार किया जाता है। गांव में पानी चौपाल लगाने के उपरांत गांव के लोगों द्वारा यह प्रस्ताव रखा जाता है कि गांव के तालाब का पुनरुद्धार किया जाना अति आवश्यक है। इसके लिए पानी चौपाल के दौरान ही लोकतांत्रिक व्यवस्था से उस तालाब का पुनरुद्धार/रख-रखाव हेतु उस तालाब के नाम से तालाब प्रबंध समिति बनाई जाती है। गांव के बजरंग सागर तालाब से तालाब प्रबंध समिति बनाई गई। यह तालाब प्रबंध समिति 2015 में बनाई गई थी। तालाब प्रबंध समिति का गठन पानी चौपाल के दौरान लोकतांत्रिक व्यवस्था से किया जाता है। तालाब प्रबंध समिति में एक प्रबंधक, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री समेत सदस्यों का चयन किया जाता है, कोशिश यह की जाती है कि तालाब प्रबंध समिति में वही लोग रहे जो तालाब के किनारे के लोग हैं जिनका निकास या आना-जाना तालाब के किनारे से लगा रहता है या कहे कि तालाब उनकी नजरों में रहते हैं। इसके अलावा कुछ गांव के संभ्रांत लोग जैसे संत समाज, शिक्षक, पूर्व प्रधान/ वर्तमान प्रधान आदि को भी इस तालाब प्रबंध समिति में रखा जाता है। तालाब प्रबंध समिति में महिलाओं की भागीदारी 40% रखने की कोशिश की जाती है। तालाब प्रबंध समिति में खासतौर पर तालाब से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी जातियों को प्रथम वरीयता दी जाती है, जैसे- निषाद, कहार,कुम्हार, काक्षी, आदि। तालाब प्रबंध समिति के गठन के उपरांत ही तालाब के प्रबंधन/संरक्षण, संवर्धन, तालाब रख-रखाव का कार्य तालाब प्रबंध समिति के साथ ही साथ समस्त ग्राम वासियों के सहयोग एवं सहभागिता से किया जाता है। गांव का सुंदर सागर तालाब का पुनरुद्धार एवं सुंदरीकरण रखरखाव सुंदर तालाब प्रबंध समिति के माध्यम से तालाब में श्रम साधना का कार्य किया जाता है। इसके उपरांत तालाब में जीविका/रोजगार से संबंधित कार्य तालाब प्रबंध समिति ही कराती है। तालाब प्रबंध समिति ही तय करेगी कि तालाब में मछली पालन सिंघाड़ा की खेती या अन्य प्रकार का उत्पादन किया जाना है कि नहीं किया जाना है, यह तालाब सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाएगा कि मवेशियों के लिए,ये तालाब दैनिक क्रियाओं हेतु प्रयोग होगा कि भूजल स्तर बढ़ाने हेतू,सारे फैसले तालाब प्रबंध समिति ही लेती है। पानी चौपाल में तालाब प्रबंध समिति अपनी बात को रखती है। गांव में अभी तक तीन तालाब प्रबंध समिति का गठन किया जा चुका है। बजरंग सागर, झलिया तालाब एवं देवन तालाब प्रबंध समिति।
सामूहिक श्रम साधना एवं श्रमदान के माध्यम से गांव के तीन तालाबों का पुनरुद्धार किया गया है:- झलिया तालाब, बजरंग सागर (तालाब को सागर भी बोलते हैं) और देवन तालाब जिससे गांव की समृद्धि-खुशहाली बढ़ी है।
“जन जन का अभियान बनेगा।
तालाब, खेत की शान बनेगा।।
जहां तालाब रहेगा।
उत्पादन अपने आप बढ़ेगा।।“
आज हमारे गांव की सभ्यता संस्कृति समृद्धि के प्रतीक हैं हमारे तालाब। तालाब से कई प्रकार के लाभ होते हैं। बरसात का पानी जब तालाब में रुकता है तो भूजल रिचार्ज होता है, भूजल का स्तर बढ़ता है। आसपास के बोरवेल, ट्यूबेल जो सूख चुके थे, वह तालाबों में पानी भरने की वजह से पुनः जीवित हो उठे। तालाब के किनारे के खेत सिंचित हो गए हैं। तालाब में मत्स्य पालन और सिंघाड़ा की खेती करके किसानों की आय बढ़ी है। तालाब के आसपास हरियाली बढ़ी है। गांव के जो किसान अपनी जीविका के लिए बाहर नौकरी की तलाश में, प्रवासी मजदूर बनकर गांव से पलायन कर गए; वे पुनः अपने गांव की ओर वापस आए हैं और अपने गांव में खेती-किसानी के कार्य में लगकर आमदनी कर रहे हैं। एक तरीके से कह सकते हैं कि जल संरक्षण से पलायन कम हुआ है। पीने योग्य पानी की समस्या का समाधान हुआ है। किसानों की फसल के उत्पादन अधिक होने से किसानों की आमदनी बढ़ी है। किसान समृद्ध और खुशहाल हुआ है, गांव में खुशहाली बढ़ी है।
इन तालाबों की संस्कृति एवं परंपरा बनाए रखने हेतु तालाबों के संरक्षण संवर्धन के लिए प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा में तालाब महोत्सव का भी आयोजन किया जाता है। जन-जन को तालाबों से जोड़ने हेतु तालाबों का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं पर्यावरण महत्व को बनाए रखने के लिए तालाब के किनारे तालाब का पूजन किया जाता है और मानव श्रृंखला, परंपरागत गीत एवं नृत्य (दिवारी नृत्य) का आयोजन किया जाता है जिससे हमारी विलुप्त हो रही परंपरा और तालाबों की संस्कृति जीवित रहे। आज मिशन “खेत का पानी खेत में- गांव का पानी गांव में”की सराहना भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सराहना भी कर रहे हैं।
*पर्यावरणविद्