विश्व की भिन्न-भिन्न जमातों को अपने में समा लेने वाला भारत एक अद्भुत देश है। भारत ने कभी आगे बढ़कर दूसरे देश पर आक्रमण नहीं किया। बल्कि बाहर से आने वालों शक, हुन, पारसी, मुसलमान, यहूदी, ईसाई आदि सबका स्वागत ही किया। इसलिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को महामानव-सागर कहा है।
प्रेम के बिना सबको समा लेने की कला घटित नहीं हो सकती। इस भारत-भूमि में सबको प्राप्त प्रेम के कारण यह हमारा घर है, ऐसा सबको लगा। कभी-कभी दो समूह, जमात एकत्र होती है तो आपस में कुछ संघर्ष भी होता है, परन्तु अंत मे शुद्ध प्रेम ही कायम रहता है। वह प्रेम ही भारत का आधार है।
भारत मे एक मिश्र (मिली-जुली), साझा संस्कृति का निर्माण हुआ है। मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी, यहूदी, जैन, बौद्ध, सिख आदि संस्कृतियों का योगदान स्वीकार करके भारत की संस्कृति सम्पन्न (समृद्ध) हुई है। संसार के किसी भी भाग से आये हुए अच्छे विचारों को अपने में समाहित कर उसे अपना ही रूप देना, भारत की विशेषता रही है। भारत की पहचान गंगा, गौ, गांव, गौतम, गांधी के रूप में रही हैं।
भारतीय दर्शन, संस्कृति और परम्परा हमेशा सर्व-समावेशक रही है। यहाँ खण्ड का नहीं पूर्ण का चिंतन हुआ है। वसुधैव कुटुम्बकम का उदघोष भारत भूमि से ही हुआ है। हमारा ध्येय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’, ‘अनेकता में एकता’ विविधता का रहा है। प्रकृति भी विविधता से भरपूर है। विविधता सहज सुलभ शक्ति, ऊर्जा है।
आज भारत देश में अलग सोच रखने वाली जमात की ओर से संकीर्णता, असहिष्णुता, अलगाव, विद्वेष, भेद, हिंसा, द्वैष, नफरत, भय का वातावरण बनाया जा रहा है। उपरोक्त परिस्थिति में सर्व धर्म समभाव की राह, विचार, विश्लेषण दिशा-दर्शक हो सकता है। ऐसे में सर्व धर्म समभाव का विचार इस स्थिति से निपटने, उबारने का एक सशक्त उपाय नजर आता है। इसके लिए धर्म क्या है? इसके मर्म, प्रकृति, स्वभाव, संस्कार, मानसिकता, भावना पर चिंतन-मनन, सोच-समझ, विचार, विश्लेषण करने की गहन आवश्यकता है।
विषय बहुत गहरा है मगर आओ संक्षिप्त में ही सही हम कुछ कदम आगे बढ़ाएं, समझें समझाएं और अपने जीवन में अपनाएं।
कहा गया है कि ‘धारयतेति धर्म:।’ धर्म का अर्थ है धारण करना। जो धारण करे वह धर्म। धर्म सत्य, कर्त्तव्य, मूल्य, मूल, मर्यादा, स्वभाव है। धर्म का मतलब सदाचार, संयम, करुणा, सदभावना, आचरण। धर्म का व्यापक अर्थ है। धर्म का पालन करें तो प्रकृति, समाज का पालन-पोषण बहुत अच्छे सामर्थ्यपूर्ण हर्षोल्लास पूर्वक हो सकता है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा इन पंचतत्वों का सबका अपना-अपना धर्म है। प्रकृति और प्रकृति पर उपस्थित सभी की उत्पत्ति पंचतत्वों से ही हुई है। प्रत्येक वस्तु, प्राणी का अपना-अपना धर्म है।
विभिन्न विचारधाराओं ने धर्म की व्याख्या की है। ऋग्वेद कहता है – ‘ मिलकर चलो, मिल-जुलकर बात करो, तुम्हारे मन एक साथ जानें, तुम्हारे यत्न साथ-साथ हों, तुम्हारे हृदय एकमत हों, तुम्हारे मन संयुक्त हों, जिससे हम सब सुखी हो सकें।’ अथर्ववेद में कहा गया है – ‘यह हमारी मातृभूमि विभिन्न भाषा बोलने वाले और विभिन्न धर्मों को अपनाने वाले लोगों को समान रूप से शरण देती है।’ मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए है –
धृति:, क्षमा, दमोस्तेयं, शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यक्रोधो दशक धर्म लक्षणम्।।
धृति (धैर्य), क्षमा, दम (काबू), चोरी न करना, भीतरी बाहरी सफाई, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।
संत तुलसीदास ने कहा –
दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब तक घट में प्राण।।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।
धरम न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना।।
सत्य सबसे बड़ा धर्म है। दूसरे का भला सबसे बड़ा धर्म है।
जैन तीर्थंकरों ने कहा- अहिंसा परमो धर्म:- अहिंसा सर्वोच्च धर्म है।
गुरु नानक देव कहते है – ‘सभनी घटी सहु वसै, सह बिनु घटु न कोई’ सभी शरीरों में प्रभु बसता है, बिना प्रभु के कोई शरीर नहीं है।
बौद्ध दर्शन सम्यक, करुणा का पाठ है। इस्लाम कहता है – बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर् रहिम।
दयावान को करूं प्रणाम, कृपावान को करूं प्रणाम। विश्व सकल का मालिक तू, अंतिम दिन का चालक तू।
ईसाई की आवाज – ‘ईश्वर प्रेम है और उसका ‘शब्द’ वह प्रकाश है जो प्रत्येक मनुष्य को प्रकाशित करता है। उसकी इच्छा है कि सब मनुष्यों की रक्षा हो और वे सत्य का ज्ञान प्राप्त करें।’
शांति का वाद्य बना तू मुझे, हो तिरस्कार वहां करूं स्नेह, हो हमला तो क्षमा करूं मैं, हो जहां भेद अभेद करूं, हो जहां भूल मैं सत्य करूं।
पारसी बोलता है- हे प्रभो तू उत्तमोतम धर्म संदेशा सुना, ताकि नेकी राह चल मैं तेरी महिमा गा सकूं।
यहूदी कहता है –
धन्य प्रभु है नाम तिहारा, नित्य निरंतर सांझ सवेरा, सारे जग से है तू अपार, स्वर्ग से कीर्ति तेरी गुरूतर।
सत्यंवद धर्मचर। सत्य बोलो, धर्म पर चलो।
सूत्र में बांधने वाली शक्ति, एक बनाए रखने वाली शक्ति को ही धर्म कहते हैं।
धृयते लोके अनेनेति धर्म:। धारण करने की शक्ति ही धर्म है। दुनिया को एक बनाए रखे वही धर्म है। संतुलित रहना धर्म है। धर्म के त्रिरत्न – सत्य, प्रेम, यज्ञ (त्याग) है। सामूहिक जीवन में प्रेम जरूरी तत्व है। सत्य, प्रेम रचनात्मक शक्ति है।
सत्यान्नास्ति (सत्यात् नास्ति) परोधर्म:। सत्य से परे कोई धर्म नहीं होता।
स्वधर्म को पहचानना। कर्त्तव्य-मूल को पहचानना। स्वधर्म के बिना धर्म नहीं रह सकता। दोनों में एकरुपता है। स्वधर्म से पिण्ड और समग्र सत्ता में स्वस्थ संबंध बनता है। जिससे व्यक्ति और समग्र सत्ता दोनों कायम रहती है। स्वधर्म जितना सर्व के लिए आवश्यक है उतना ही ‘स्व’ के लिए भी आवश्यक है।
सत्य ही ईश्वर है। अहिंसा सत्य का मूल स्रोत है।अहिंसा के बिना सत्य, धर्म का पालन असंभव है। हिंसा से सत्य को साबित, प्रमाणित नहीं कर सकते। साधन और साध्य एक है। शुद्ध साधन – शुद्ध लक्ष्य। सभी पर एक ही कानून लागू होता है। धर्म हर क्षेत्र, हर पहलू पर लागू होता है। सभी धर्मों की एक ही बुनियाद है और वह है सत्य, प्रेम, करुणा। बाहरी आधार चाहे भिन्न हो।
अंग्रेजी में रिलीजन यह लातीनी भाषा का शब्द है। अर्थ है फिर से बांधना या संबंध जोड़ना। रिलीजन का मतलब है डिनोमिनेशन। धर्म, मजहब, पंथ, सम्प्रदाय ऐसे अनेक नाम भी प्रयोग होते है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध, बहाई के साथ अनेक समूह भी है। इस्लाम सल्म से बना जिसका अर्थ है शांति। सिख शिष्य से बना। ऐसे विभिन्न नाम के पीछे कुछ प्रसंग, कारण जुड़े हुए है। शैव शिव के रूप में, वेदांती ब्रह्मा, बौद्ध बुद्ध, नैयामिक कर्त्ता, जैन अर्हंत, मीमांसक कर्म, तो कोई गुरु, निराकार, साकार, विष्णु, शक्ति, पंचतत्व आदि के रूप में प्रभु की प्रार्थना करते है।
दुनिया में अनेक पंथ, सम्प्रदाय, समूह अलग-अलग है। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना। इसका यह भी कारण है। प्रत्येक समूह में अनेक धारा हो सकती है। उदार धारा, संकीर्ण धारा, मध्यम धारा, मिश्रित धारा, अवसरवादी धारा, सुप्त धारा आदि।
उदार धारा मैत्री, सहयोग, सहकार, संवेदना, संवाद, संपर्क को अपनाती है तो संकीर्ण धारा नफरत, द्वैष, अलगाव, भेद, मतभेद, साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता, टकराहट, हिंसा परस्पर विरोध को। कुछ धाराओं का अपना विशेष आग्रह नहीं होता। वे बहाव में बह जाती है। जैसा माहौल देखा उसी अनुसार अपने को दिखाने लगती है। कभी-कभी इनकी भूमिका बहुत ही खतरनाक साबित हो जाती है। यह दूसरे के सहारे सक्रिय हो जाते है।
सर्व धर्म समभाव का अर्थ है आप अपनी आस्था, विश्वास को मानते हुए दूसरे की आस्था, विश्वास को चोट नहीं पहुंचाओ। सबको अपनी-अपनी तरह से अपनी-अपनी आस्था, विश्वास को रखते हुए दूसरे की आस्था, विश्वास का सम्मान करना है। हम कोई ऐसा कदम, तरीका नहीं अपनाए जो दूसरे, सामने वाले को दुःख, हानि, नुकसान पहुंचाए। सभी धर्मों का हो सम्मान, मानव मानव एक समान। एक दूसरे की आस्था, विश्वास को जानें, समझें, पहचानें। उनसे संपर्क संवाद कायम करें।
यथा संभव एक दूसरे के पर्व, त्योहार, कार्यक्रम में शामिल हों। एक-दूसरे को जानें, समझें, पहचानें। आपसी मेलजोल बढ़ाएं। परस्पर मित्रता बढ़ाएं। सभी धार्मिक स्थल सम्मान योग्य है। उनके प्रति तहेदिल से सम्मान व्यक्त करें। अफवाह, झूठ, दुष्प्रचार से बचें।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता, रूढ़ी, दिखावा, मैं या मेरा ही श्रेष्ठ, अहम् भाव असुरक्षा, भय पैदा करता है। यह भाव, मानसिकता अपने समूह तक सीमित रहने का आग्रह रखता है। कट्टरता, संकुचन बढ़ाता है। समाज में अलगाववाद को बढ़ावा देता है। सभी समूह में अच्छाईयां, मजबूती, बुराईयां, त्रुटियां, कमजोरी मौजूद है। अपने समूह, धर्म की कमजोरियां दूर करें, हटाएं। दूसरे समूह, धर्म के गुणों को देखें, समझें। उसे मान्यता, सम्मान दें। अपनी बुराई तथा दूसरे की अच्छाई पर गौर करें।
बुराई और बुरा, पाप और पापी, अन्याय और अन्यायी, जुल्म और जुल्मी, दोष और दोषी, अत्याचार और अत्याचारी दोनों अलग-अलग है। हमें बुराई, पाप, अन्याय, जुल्म, दोष को हटाना, समाप्त करना है। बुरे, पापी, अन्यायी, जुल्मी, दोषी, अत्याचारी को बदलना है। उसमें बदलाव लाना है। बदला नहीं बदलाव चाहिए। इससे ही समाज, देश – दुनिया में सुधार संभव है।
इतिहास में तथा अपने समय में भी बदलाव के अनेक प्रेरक प्रसंग, उदाहरण हमारे समक्ष है। इनसे हमें प्रेरणा लेकर हिम्मत, विश्वास के साथ इस विचार को बढ़ावा देना होगा। अन्याय, अत्याचार, हिंसा, द्वैष, असमानता, बुराई, भय को दूर करना और न्याय, करुणा, प्रेम, अहिंसा, सत्य, निर्भय, समतामय समाज बनाना हमारा कर्त्तव्य है। इसका प्रयास ही हमारी राह है।
व्यवहार की दुनिया में सत्य, धर्म, ईश्वर, प्रेम, करुणा, सदभावना, सौह्रार्द, साझापन, एकता, सहयोग, सहकार, संवाद, संपर्क को सहज, सरल, सुलभ बनाना ही सर्व धर्म समभाव का सही रास्ता है। यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन दोनों में सहायक है।
व्यक्तिगत मोक्ष और समाज कल्याण का रास्ता अलग नहीं है। प्रकृति के नियम सभी पर समान रूप से लागू है। शास्त्रज्ञ एवं वैज्ञानिक दोनों ही सत्य पर आधारित हो। अध्यात्म और विज्ञान दोनों को ही सत्य की राह पर चलना है तभी विश्व की सही दिशा एवं दशा में सुधार संभव है। कारण और परिणाम का अटूट संबंध है। भौतिक और पाराभौतिक दोनों में अनुशासन, प्रयोग विधि, उपकरण आदि की जरूरत है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों में सत्य, कर्त्तव्य, करुणा, सदभावना, प्रेम की आवश्यकता है।
हम कुछ महापुरुषों के वचन भी याद करें।
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा है कि ‘धर्म मनुष्य को एक दूसरे से अलग नहीं करता बल्कि उन्हें एक साथ मिलाकर रखता है। इसलिए सभी धर्म एक दूसरे के साथ मिलकर काम करें।’ उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि ‘यदि हिन्दू धर्म इस्लाम या गैर हिन्दूओं के प्रति नफरत की शिक्षा देता है तो उसका विनाश निश्चित है।’
सोशलिस्ट नेता डॉ राममनोहर लोहिया कहते है ‘हिन्दू धर्म में कट्टरपंथियों का जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है।’
स्वामी विवेकानंद ने कहा ‘संकीर्णतावाद, कट्टरतावाद और उसके वीभत्स उत्तराधिकारी धर्मोन्माद ने इस सुंदर धरती पर बहुत दिनों तक राज किया है। उसने इस धरती को हिंसा से भर दिया है। उसे बार-बार मानव रक्त से नहलाता रहा है। सभ्यता को नष्ट कर दिया है। यदि ये भयावह दानव नहीं होते, तो मानव समाज ने जितनी प्रगति की है। उससे और अधिक प्रगति की होती।’
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने कहा था, ‘यह प्रवृत्ति कि सत्य हमारा ही एकाधिकार है, मानव धर्मों के सर्वोच्च रूप में निहित उदारता से मेल नहीं खाता। फिर प्रत्येक महान धर्म ने दूसरों से भी सीखा है। यदि धर्म को फिर से वही प्राणदायी शक्ति प्राप्त करनी है जो किसी जमाने में समाज का निर्माण करने में उसकी थी, तो धर्मों कि प्रतिस्पर्धा की जगह उनके बीच के सहयोग को देनी होगी।’
संत विनोबा भावे ने कहा – ‘ जिसके चरित्र में ईमान न हो, आचरण में अहिंसा न हो, व्यवहार में धर्म न हो, वह आस्तिक नहीं हो सकता।’
भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यकर्ता गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा- ‘धर्म और ईमान तो मन का सौदा है। आत्मा को सुदृढ़ करने और ऊंचा उठाने का साधन है। शुद्ध आचरण और सदाचार ही धर्म के स्पष्ट चिन्ह है।’
यह पंक्तियां आज के हालात में सबक देती हैं। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर ने बांट दिया भगवान को, धरती, बांटी, अम्बर बांटा, मत बांटो इंसान को। नेता ने सत्ता के खातिर कौमवाद से काम लिया, धर्म के ठेकेदारों से मिलकर लोगों को ना काम किया।
सर्व धर्म समभाव का विचार आचरण में आ जाए तो दुनिया को हिंसा, नफरत, द्वैष, भेद, भय से मुक्ति दिलाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
आत्म बल, आत्मिक बल को पशु बल, बाहु बल से नहीं जीता जा सकता है। सत्य, प्रेम, करुणा की शक्ति सच्ची, सही शक्ति है। यह क्रियात्मक, सक्रिय शक्ति है। इसे जागृत करने की आवश्यकता है। प्रेम से सृष्टि होती है, वैर से विनाश। सर्व धर्म समभाव के लिए सख्य, सहयोग, संवाद की राह अपनाकर हम आगे बढ़ सकते है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं ।