उस जमाने में सड़क नहीं थी; कच्चा रास्ता था। जयपुर के घाट गेट बस अड्डे से दोपहर 2 बजे से चलकर से 80 कि.मी. की दूरी चार घंटे में तय कर पांच युवा अलवर के किशोरी गांव शाम के 6 बजे पहुंचे थे। तभी तरुण भारत संघ बना था। गांवों में जाकर गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार देने का सपना लिए तरुण भारत संघ के इन पांच नौजवानों में से एक मैं भी था।
गांव वालों ने हनुमान मंदिर में हमें आश्रय दिया। पहली एक रात मंदिर में ही गुजारी। सुबह सूरतगढ़ से सुम्मेर सिंह, अध्यापक मिलने आए। उन्होंने भीकमपुरा गांव में एक छोटा सा कमरा दिला दिया। फिर गांव की बड़ी बंद पड़ी हवेली को खुलवा दिया।
हम स्वास्थ्य सेवा और शिक्षण का काम करने लगे; तभी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु जमीन की जरूरत हुई। हमने भीकमपुरा ग्राम सभा को अपनी जरूरत बतायी। कई लोगों ने कहा कि हमारी बेकार पड़ी जमीन पर बना लो। हमने कहा कि हम पक्की लिखा-पढ़ी के बाद ही काम शुरू करेंगे। फिर भी कई लोगों ने कहा कि हमारी बेकार पड़ी जमीन आपके काम की है पर वहां पानी बिल्कुल नहीं है। हम विचार कर रहे थे; तभी भगवाना नाई ने कहा कि आप तो मेरी जमीन लेकर उसी पर काम करो।
तरुणाश्रम के लिए जब 1987 में भगवाना नाई ने अपनी बीहड़, खारी, रोखड़ी जमीन दी थी, तब आज की कल्पना बिल्कुल नहीं थी। यह पथरीली, रोखड़ी जमीन एक दिन हरी-भरी बन जायेगी यह कल्पनाओं की उड़ान मात्र लगती थी। कल्पनाओं ने हिम्मत, पत्थर खोदकर निकालने की उर्जा जरूर पैदा करके रखी थी। मुझे जब भी लोगों से प्रशिक्षण, साईट चयन, कामों के समाधान से समय मिलता तो मैं गैन्ती, फावड़ा, परात उठाकर जुट जाता था। आश्रमवासी खासकर गोपाल सिंह, छोटेलाल, रामचन्द्र, प्रभू, सीताराम, जतन, दयाल आदि भी मेरे साथ जुट जाते थे। दुसरे क्षेत्रों में काम करने वाले कार्यकर्ता भी श्रमदान करने आते थे।
सबसे पहले आश्रम की चार दिवारी की नींव खोदना ही बड़ी चुनौती थी। वह पूरी हुई तो चारदिवारी का काम हीरालाल बलाई ने अच्छे से कर दिया। आश्रम निर्माण शुरू हुआ बाकी सभी जमीन तो काली पहाड़ीनुमा, ढलान, बीहड़ खाली पड़ी रहती थी। आश्रम में पानी नहीं था। कुआं खोदा तो सूखा निकला। तरूण ताल बनाया तो वर्षा नहीं। ये सभी कष्ट और चुनोतियां को स्वीकारते हुए आश्रम में हरियाली लाने का पागलपन तो बढ़ता ही गया। हमने कभी गर्मी और सर्दी एवं रात-दिन की चिन्ता नहीं की थी।
हमने हाथों से पत्थर 2002 तक निकाले फिर जे.सी.बी. किराये पर लेकर भी पत्थर बाहर निकाल कर फिर उसी मिट्टी से तरूण ताल के चारों तरफ वर्गाकार किया उसपर चित्र दिर्घा बना दिया था। आज यह दुनिया के पर्यावरण प्रेमियों की चित्र दिर्घा है। भू-वैज्ञानिकों की विश्व-स्तरीय प्रयोगशाला है। भू-जल पुर्नभरण का जीता-जागता प्रयोग क्षेत्र कहें या जल तीर्थ अब इसे दुनिया के वैज्ञानिक प्रत्यक्ष देखने समझने आते हैं।
भीकमपुरा में ढूँढा कौन बिना गढ़े पत्थरों पर चित्र बना सकता है। कैसे बनायेगा? हीरालाल के बेटे लक्ष्मण को सिखाया और चित्र बनाने में आश्रम के गोपाल ने उसकी मदद कर दी। आज 1670 पत्थरों पर चित्र बन गये है। कुछ शेष है। उनपर भी दुनिया के लिए अच्छा काम करने वाले प्रकृति के प्यारे कार्यकर्ता विराजमान होंगे। यह सब तो आनंद दायी है। लेकिन आज आश्रम में चारों तरफ हरी-भरी जमीन देखकर मैं अन्दर से बहुत हरा हो गया हूँ ।
तरुणाश्रम की जमीन पर जंगल, घांस, तथा फलदार पेड़-पौधे हजारों हो गये हैं। अब यहां जंगली जानवर, मोर, बंदर, जरख, लंगूर से लेकर लेपर्ड घूमने लगे हैं। बंदरों तथा लंगूरों के लिए मीठा नीम (सूबबूल) चारों तरफ लगाकर रखा है, जिन्हें खाकर मस्त रहते हैं। फिर भी कभी-कभी दुसरे पेड़ों तथा सब्जीयों को नष्ट करते हैं। बंदर, लंगूर भूखे नहीं रहे इसलिए आश्रम में जो भी मीठा नीम उगता है उसे बचाकर रखते हैं।
2 वर्षों में हमारे 7 कुत्तों को लेपर्ड और लकड़बग्गे ले जा चुके हैं और 6 गायों को भी मौत के घाट उतार चुके हैं। लेपर्ड और बाघ के लिए तरूणाश्रम में बहुत सारे जानवर हैं फिर भी वह गायों को खाते ही है। हमने उनकी खुराक के लिये अपने आश्रम में आजादी से घूमने वाले बहुत सारे दूसरे जानवरों को कभी बाहर नहीं निकाला। जंगली जानवरों के लिए तरूणाश्रम एक अभ्यारण्य जैसा है। यहां मोरों की तो बहुत बड़ी फौज है। सांभर, बारहसिंगा भी अप्रैल और मई के महीने में आश्रम में रहते हैं। वही समय आश्रम की गायों और कुत्तों के लिए जीवन संकट का समय होता है क्योंकि लेपर्ड और बाघ आश्रम की भोली-भाली गायों को आसानी से पकड़कर मार देते हैं।
आज की हरियाली में अनगिनत सांप, गुहरे हैं क्योंकि हमने अपनी जमीन पर कभी रासायनिक खाद, दवाईयों आदि का उपयोग नहीं किया है। इसलिए जमीनी जंतुओं का तो सभी जगह आवास बन गया है। लेकिन आज तक केवल एक सर्पदंश का कष्ट हुआ है। कई बार सांप हमारे कार्यकर्ता के पैरों में आये हैं, लेकिन किसी को कष्ट नहीं देते हैं। अहिंसक खेती, अहिंसक जीवन कभी लेकिन कभी बंदरों को हिंसक बनता देखकर आश्चर्य होता है।
हमने इस साल से सब्जियां बोना बंद किया है क्योंकि बंदर, मोर, लंगूर फल-फूल सब्जियां नहीं लगने देते हैं। हमारे आश्रम में चारों तरफ सभी रास्तों पर जंगल में तुलसी लगीं है। हमने वर्ष 2020 में एक करोड़ तुलसी के पौधे लगाये थे। वे अब भी हरे-भरे फैल रहें है। तरुणाश्रम वृन्दावन बन गया है। आश्रम की गाय ठंड के समय (दिसंबर) में अपने आप तुलसी के पत्ते खाने लगती है। गर्मी या वर्षऋतु में नहीं खाती है। गाय कब क्या खाना है वो वही खाती है। यह बात मनुष्य नहीं जानता है। इसीलिए उसे चिकित्सक के पास जाना पड़ता है। चिकित्सक जो बताता है, वही वह खाता है। गाय किसी से नहीं पूछती है। उसको क्या खाना है? हमारे आश्रम की गायें ठंड के समय नीम नहीं खाती हैं। जबकि गर्मीयों में नीम खा लेती हैं। यह सभी देशी गाय हैं। देशी गाय देशज समझ रखती है। ये अपना खान-पान अच्छे से जानती है।
अभी हमारे खेतों में ढ़ेंचा लगा है। गाय उसे नहीं खा रही है। अक्टूबर आते ही पूरा चट्ट कर देती है। जुलाई से सितम्बर तक हम अपने आश्रम की चार दिवारी से बाहर आश्रम की ही जमीन पर ही गाय चराते है। अभी आश्रम चारों तरफ से इसीलिए हरा-भरा है। अब आश्रम की हरियाली सतत् बनी रहती है। बिन पानी भी हरियाली रहती है क्योंकि केवल स्थानीय पौधे ही आश्रम में लगे हैं। बाहर के पेड़-पौधे आश्रम में नहीं लगाये हैं।
अब वर्ष भर हरियाली का केन्द्र तरुणाश्रम है। इसी के साथ रहने का लालच मुझे अब कहीं और नहीं रहने देता है। मुझे एक दिन का भी समय मिले तो भी पोते-पोती को छोड़कर तरुणाश्रम पहले चला आता हॅू। तरुणाश्रम में हरियाली से मिलने का लालच सबसे बड़ा बना रहता है। तरुणाश्रम की हरियाली मुझे अन्दर से हरा-भरा बनाकर रखती है। इसीलिए बार-बार आश्रम में जाकर ऊर्जा पाता हूँ।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल विशेषज्ञ