रविवारीय: बैंगलोर या फिर बेंगलुरु?
– मनीश वर्मा ‘मनु’
शहर बैंगलोर या फिर आज का बेंगलुरु। क्या नाम बदल जाने से फितरत बदल जाती है ? चीजें कतई नहीं बदला करती हैं । बस कागजों पर नाम बदल जाते हैं।
नाम में क्या रखा है, कभी शेक्सपियर साहब ने कहा था। भाई बदलना ही है, तो आज के संदर्भ में पुराने जमाने के अप्रासंगिक हो चुके नियमों को बदलने की कोशिश करो। खैर कहां से बात कहां चली गई? लोग सही ही तो कहते हैं। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी…
तो वापिस चलते हैं बेंगलुरु की ओर। बहुत लोगों की आकांक्षाओं एवं अरमानों का शहर। बच्चों की पढ़ाई से लेकर उनके जीवन में सेटल होने तक का शहर। बुढ़ापे में अपने लिए भी अपनी जड़ों को छोड़कर, अपनी मिट्टी से दूर एक ठिकाना बनता हुआ एक अदद शहर।
बात सिर्फ और सिर्फ बेंगलुरु की होती तो शायद समझ आती पर अमूमन हर महानगरों की यही कहानी है। उनके सिर्फ नाम बदल गए हैं। आज तक बंबई ही निकलता है मुंह से। मुंबई बड़ी मुश्किल से अब निकल पा रहा है। बड़ी मशक्कत करनी पड़ी है।
बड़ी मुश्किल होती है बेंगलुरु बोलने में भी। आदत जो बैंगलोर की पड़ गयी थी। काश कोई यह समझ पाता। खैर…
महानगरों की भीड़ में आमतौर पर आदमी खो – सा जाता है। वह एकाकी जीवन जीने लगता है। दुनिया मानों सिमट सी जाती है। शहर की भीड़भाड़ और बड़ी तेज़ी से चलती हुई घड़ी की सूइयों के बीच आदमी, आदमी नहीं रहता है। मशीन बन जाता है वो। सामाजिकता ख़त्म हो जाती है।
गलत तो नहीं है। मैं भी उनमें से एक हूं। हां, पर शायद अपनी मिट्टी अपनी जड़ों को छोड़कर दूसरे शहर में ठिकाना बनाने का अहसास मुझे कुछ ऐसा ही लगता है, जैसे किसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध हॉस्टल में डाल दिया गया हो। महानगर में रहने की कल्पना मात्र से ही मुझे सिहरन सी होने लगती है। डर जाता हूं मैं। रक्तचाप कम हो जाता है। धड़कने बढ़ जाती हैं। भाई, आखिर अपने बचपन के इस शहर के लिए ही तो मुझे अपने कैरियर के लगभग चार बेशकीमती साल छोड़ने पड़े । नियम भी पता नहीं क्या क्या होते हैं। अरे भाई बदलना है , तो कोई इसे बदलो। इतना मत बांटो कि आगे बंटने लायक कुछ भी ना बचे।
बहुत बदलाव आया है। हमारे देश ने बहुत तरक्की की है । हम हमेशा अपनी विरासत, अपने इतिहास को याद कर गौरवान्वित होते हैं। आज यदि शेक्सपियर साहब होते तो शायद उन्हें इस बात का एहसास होता। नाम में ही तो सब कुछ रखा है। अगर नहीं तो मुगलसराय, दीनदयाल उपाध्याय नहीं होता। नहीं होता गौतमबुद्धनगर। ना बनारस, वाराणसी होता और ना ही मद्रास चेन्नई होता।
पर क्या करें ?आज़ का शहर है बेंगलुरु पर आज तक दिल को नहीं समझा पाया। भाई यह अपना शहर बैंगलोर ही तो है।
बस अब वक्त आ गया है इन बातों से ऊपर उठकर सोचने का। इतिहास और विरासत से सीख लेकर आगे बढ़ने का। क्या ईमानदारी से अपने आप को समझा सकते हैं कि वाकई में हमारा विकास समावेशी विकास है। बुनियादी सुविधाओं के लिए भी हमें अपना शहर, अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से दूर होना पड़ता है। अपने ही वतन, अपने ही देश में हम अलग थलग पड़ जाते हैं। कौन समझेगा हमारी यह व्यथा। किसको समझाएं हम।
इसका असर हमारी संस्कृति पर पड़ता है। इस संदर्भ में जरा सोचें तो शायद आप समझ सकते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। आज हम शायद इसे नहीं समझ पा रहे हैं पर, हमें समझना होगा। हमारे समाज वैज्ञानिकों को इस पर नजर रखनी होगी। जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ दाल रोटी तक ही सीमित ना होकर उसके परे भी है। बस इसे समझने की जरूरत है।
अपने युवा दिनों के संघर्ष को रोमांचित रूप से महसूस कराने के लिए हृदय से आभार अद्भुत लिखें
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