राजस्थान में मासलपुर से शुरू हो कर सिंगनपुर की तरफ जाने वाली गधा खाल नदी! अनेकों नाम हैं इस गधा खाल नदी के! इस नदी क्षेत्र में 21 वीं सदी के पहले न तो जंगल बचे थे, और न ही पानी। मिट्टी भी वर्षा जल के साथ बह गई थी। लोग बेकार, बीमार और फरार थे, वे बेघर होकर भटक रहे थे। फिर गाँव में रह रहे कुछ बुजुर्ग लोगों को जोड़कर काम शुरू हुआ। जब काम का असर सीधा धरती पर दिखने लगा, तो भटक रहे युवा वापस अपने गांव आकर, खेती व पशुपालन करने में जुट गये। बस! लोगों की घर वापसी ही गधा खाल नदी, बैना नदी या नहरो नदी के पुनर्जीवन की कहानी है।
नहरो नदी की सूखी-मरी हुई सभ्यता पुनर्जीवित होने लगी। लोगों को पशुपालन और खेती में रोजगार मिलने लगा। फिर खेती के साथ ही इस क्षेत्र में पेड़-बचाने व पेड़ लगाने का काम भी शुरू हो गया। अब इस क्षेत्र में जंगलों में लोमड़ी, भेड़िया, जरख (लक्कड़ वग्गा) तथा सैंकडों किस्म के पक्षी भी पुनः दिखाई देने लगे हैं। लोगों का जंगली जानवरों और पेड़-पौधों के प्रति प्यार भी बढ़ना शुरू हुआ है। पहले भेड़-बकरी, गाय व ऊंट दिखते थे, अब गाय की जगह भैंस बहुत हो गई हैं।
धरती पर हरियाली बढ़ी तो क्षेत्र में वर्षा भी अच्छी होती है। अब यहाँ के पत्रकारों व मीडिया का भी जंगलों में पानी के प्रति रुझान बढ़ा है। इन्होंने भी जल साक्षरता बढ़ाने में सहयोग किया है। धीरे-धीरे जल, जंगल और जमीन संरक्षण के प्रति सरकारी रुझान भी बढ़ेगा।
इस क्षेत्र में तरुण भारत संघ ने करीब 23 साल पहले जल संरक्षण-संवर्द्धन कार्य शुरू किया था। यहां एक कार्यकर्ता चमन सिंह ने सवाई माधोपुर के बामनवास तहसील से काम शुरू किया था। इसके बाद जहां-जहां लोग तैयार होते गए, वहां-वहां काम शुरू होता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हरे-भरे जंगल से यहां की पहाड़ियां परिपूर्ण हो गईं। लेकिन इस क्षेत्र में बने सरकारी बाँधों को कुछ लोग क्षति पहुँचाने लगे। जैसे सिंगनपुर में सरकार द्वारा एक बहुत अच्छा ऐनीकट बना था, लेकिन यहां के बड़े किसानों ने उसमें छेद करके, उसको तोड़ दिया, जिससे अब पूरा पानी निकल जाता है। यह एक बड़े किसान ने किया था, लेकिन यह सरकार की बड़ी लापरवाही है। सरकार के इतने बड़े काम को कैसे कोई एक किसान बर्बाद कर सकता है? इसने पूरी नदी के जीवन को त्रस्त कर दिया। इसकी चिंता सरकार में नजर नहीं आती है। इसको देखकर बहुत दुःख और धक्का लगा कि इतने उपयोगी सरकारी चेकडैम को एक ही किसान ने कैसे मिटा दिया? सरकार ने उसके खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। हमारी सरकारें अब अपनी जमीन और जमीर को ही नहीं बचा पा रहीं।
मासलपुर के साथ जुड़े हुए पूरे जंगल के पास के गांव भोजपुर में तरुण भारत संघ ने जो बांध बनाए थे, वे लबालब भरे हुए हैं। नीचे हरा-भरा जंगल खड़ा है। अच्छे कार्यकर्ता जहां भी हुए है, वहां बहुत अच्छे काम हुए हैं। इस क्षेत्र पहले जहां फसल नहीं होती थी, वहां अब सभी तरह की फसल हो रही हैं। परन्तु यहां का जंगल बहुत तेजी से सिकुड़ रहा है। यहां से आगे आलमपुर और ऊमरी गांव की खेती ठीक से हो रही है। लोग बहुत आनंदित है। यहां की जमीन से बहने वाली ‘‘गधा खाल नदी’’ पूरे साल बहने लगी है, यहां वर्ष भर झरने बहते हैं। यहाँ के लोग बताते हैं कि, हम पहले पानीदार थे, लेकिन जंगल कटने की वजह से बेपानी हो गए थे, अब पानी के काम होने के बाद पुनः पानीदार हो गए है।
भोजपुर गांव में केवल एक चेकडैम और जोहड़ बनने से अब पूरे साल पानी रहने लगा है। अभी खेती, गाय-भैंस व सभी पशुओं के लिए पर्याप्त जल है। जो सूखे कुएँ थे, उनमें भी पानी आ गया है। यह जल के स्वराज्य की शुरुआत है। इस गांव से गधा खाल नदी को पुनर्जीवित करने में मदद मिली है। अभी इस नदी में पानी देख सकते हैं। इसके बाद यह नदी सिंगनपुर में जाती हैं, जहां इसमें आलमपुर की तरफ से आने वाली बैना नदी पूरी नदी भी मिल जाती है। आगे यह पूरी नदी अविरल-निर्मल बहने लगती है। यहां से इस नदी का नाम नहरो नदी हो जाता है।
पूरी नहरो नदी (गधा खाल व बैना नदी) का जलगाम क्षेत्र 163|31 वर्ग किलोमीटर है। इस नदी को शुरू में बनाने वाली दो जलधाराएं हैं। पहली धारा गधा खाल, जो मासलपुर से शुरू होकर सागर होते हुए भोजपुर, और सिंगनपुर तक जाती है। दूसरी धारा तिमनगढ़ के पश्चिमी ढाल से शुरू होकर तरहटी, आलमपुर, ऊमरी होते हुए सिंगनपुर में आकर गधा खाल नदी से मिल जाती है। यहां से इसका नाम ‘‘नहरो नदी’’ हो जाता है। आगे बढ़ते हुए इस नदी में कई अन्य छोटी-छोटी जल धाराएं भी आकर मिलती जाती हैं। आगे यह नदी बारेठा बाँध में जाकर अपना अस्तित्व खो देती है। बारेठा बाँध के नीचे इसका नाम बदलकर ‘‘काकुण्ड नदी’’ हो जाता है। काकुण्ड नदी आगे चल कर गम्भीर नदी में मिल जाती है। इससे आगे गम्भीर नदी बाण गंगा नदी को साथ लेते हुए ‘‘उतंगन नदी’’ के नाम से यमुना नदी में जाकर मिल जाती है।
भरतपुर के उत्तर में इसे काकुण्ड नदी के नाम से जाना जाता है। लेकिन करौली जिले में जहां सबसे ज्यादा चलती है, वहां पर रिकॉर्ड व नक्शों में, गांव की छोटी-छोटी जलधाराओं के रूप में, सबके अलग नाम हैं। वहाँ कहीं-कहीं गांव की पहचान के साथ इसके नाले की पहचान होती है, तो कहीं-कहीं नाले के नाम से गांव की पहचान होती है। इसलिए इस नदी पर उतने रिकॉर्ड मिलते नहीं है। इस नदी को बहुत गहराई से समझने के बाद, बड़ी मुश्किल से इस नदी के कुछ रिकॉर्ड्स मिल जाते हैं।
काकुण्ड नदी का जल स्तर ऊंचा नहीं है, इसलिए बारिश के दिनों में बरसने वाला पानी नीचे से बहता रहता है।
भरतपुर वाले नदी क्षेत्र में बहुत गहराई पर जल स्तर है। ज्यादातर गांवों में खारा पानी है। करौली क्षेत्र में यह नदी लगभग 40 किलोमीटर तक चलकर, बंध बारेठा ( भरतपुर) में मिलती है। इस नदी में सैरनी नदी जैसी जवानी नहीं है, बचपना ही ज्यादा दिखता है। जब यह बंध बरेठा में मिलती है, तब यह नदी जवान बनकर, अपनी पहचान खो देती है।
वैसे तो भारत की बड़ी-बड़ी नदियों ने अपनी पहचान खोई है; लेकिन भरतपुर जिला ,नदियों की पहचान खोने के लिए सबसे ज्यादा बदनाम है। क्योंकि अलवर जिले से आने वाली सभी नदियां, बांध में मिल जाने के बाद खत्म हो जाती हैं। वैसे ही बेना नदी भी अपना अस्तित्व खो देती है। रिकॉर्ड में तो यह नाम बहुत मुश्किल से मिलता है, लेकिन गांव के लोग इस नाम से परिचित हैं। लोग कहते है, यह नदी सूख गई थी, लेकिन जैसे तरुण भारत संघ ने काम शुरू किया तो फिर से पानी आ गया है। अभी नदी में पानी रहता है। इस नदी के जलागम क्षेत्र में 30% जंगल है, कुछ जमीन में खेती होती है। इस क्षेत्र में इतनी भयानक माइनिंग नहीं है, जितनी भयानक मासलपुर के लाल पत्थर वाले इलाके में है। इसलिए इस नदी में वर्ष-भर पानी देखकर, आनंद होता है।
इस नदी पर कोई खोज नहीं हुई है। जब हमने इस नदी में काम शुरू किया था, तब हमने इसको एक नदी की तरह नहीं देखा था। तब हम वहां जिन गांवों में जल की जरूरत होती थी, उन गांवों में जाकर काम करते थे। जिससे लोगों को पीने और खेती के लिए पानी मिल जाता था। पहले तरुण भारत संघ का उद्देश्य लोगों को पानी उपलब्ध कराना था। पहले इस ‘‘नहरो नदी’’ को पुनर्जीवित करने का नहीं सोचा था; यह लक्ष्य तब बना, जब नहरो नदी अब वर्ष भर बहने लगी।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक