– गोपाल सिंह*
वर्षा जल संरक्षण हेतु बनाई जाने वाली जल संरचनाओं को बनाने के लिए विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है। इनमें यह भी ज़रूरी है कि ऐसा प्रबंधन हो कि अति प्रवाह इन जल संरचनाओं को नुकसान ना पहुंचाये। जल संरचना निर्माण की प्रक्रिया को निम्न चरणों में बाँटा जा सकता हैः
– संरचना निर्माण-स्थल का चयन।
– जलागम क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) का आकलन।
– अपरा (ओवरफ्लो) के स्थान का चयन करना।
– अपरा की ऊँचाई निर्धारित करना।
– भराव क्षेत्र का कंटूर मैप बनाना।
– जल धारण क्षमता ज्ञात करना।
– अपरा की ऊँचाई के आधार पर पाल (बाँध) की ऊँचाई तय करना।
– पाल की ऊँचाई के आधार पर पाल की लम्बाई, चौड़ाई व पाल का ढाल (स्लोप) तय करना।
– पाल में लगने वाली मिट्टी के स्रोत का चयन व पाल में लगने वाली मिट्टी की मात्रा का आकलन।
– संरचना में लगने वाली सामग्री और लागत का आकलन करना।
– अपरा की ऊँचाई व भराव क्षेत्र के कंटूर मैप के आधार पर संरचना (जोहड़/बाँध) में एकत्र होने वाले पानी की मात्रा की गणना करना।
– संरचना में एकत्र जल का उपयोग, लाभान्वित क्षेत्र, लाभार्थियों की संख्या, लाभ का अनुमान तथा लागत व लाभ के अनुपात का आकलन।
– आवश्यक सामग्री, श्रम व संसाधनों का प्रबन्ध।
– संरचना निर्माण के पश्चात् भविष्य में संरचना की टूट-फूट व रख-रखाव की जिम्मेदारी लाभार्थियों (समुदाय) को सोंपना।
नीचे ग्राम स्तर पर निर्मित छोटे-छोटे जोहड़/बाँधों के सन्दर्भ में, उपर्युक्त विविध चरणों की क्रमिक विवेचना की जा रही है-
(1) जोहड निर्माण स्थल का चुनाव : यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। निर्मित किये जाने वाले जोहड़/ बाँध़ों की सफलता बड़ी सीमा तक इसी पर निर्भर करती है। स्थल का चयन करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
1.1) पर्याप्त वर्षा जल व जलागम क्षेत्र का उपलब्ध होनाः यदि जलागम क्षेत्र कम होने के कारण या वर्षा कम के कारण पर्याप्त मात्रा में वर्षा का जल ही न आये तो जोहड़ की क्षमता निरर्थक ही रहेगी; इसलिए पर्याप्त वर्षा जल व जलागम क्षेत्र का उपलब्ध होना जरूरी है। जहाँ दो धाराएँ मिलती हों वहाँ संगम के नीचे जोहड़ बनाने पर दोनों धाराओं का जलागम क्षेत्र एवं जल-प्रवाह उपलब्ध हो जाने से बड़े जोहड़ के लिए भी पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता है। लेकिन कई बार संगम से कुछ ऊपर दोनों धाराओं पर दो अलग-अलग अपेक्षाकृत छोटे जोहड़ बनाना अधिक सस्ता, सरल, उपयोगी और टिकाऊ रहता है। सिद्धान्त रूप से कहा जा सकता है कि धारा पर जितना नीचे की ओर बढ़ते जायें, जलागम क्षेत्र और उपलब्ध जल उतना ही अधिक बढ़ता जाता है, इसलिए वहाँ और अधिक क्षमता का जोहड़ बन सकता है।
1.2) जल के उपयोग की दृष्टि से स्थल का उपयुक्त होना : छोटे जोहड़ सदैव उपयोग-स्थल के नजदीक बनाये जाते हैं। पशुओं और घरेलू उपयोग के पानी के लिए जोहड़ गाँव के निकट होना चाहिए। पानी सदैव ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इसलिए कुओं के जल स्तर में सुधार के लिए बनाया गया जोहड़ उनके वर्तमान जल स्तर से ऊंची भूमि पर होना चाहिए और खेतों की सिंचाई के लिए बनाया गया जोहड़ या तो उन खेतों से ऊँची भूमि पर होना चाहिए या कम से कम बहुत नीचे तो नहीं ही होना चाहिए।
1.3) उपयुक्त मिट्टी की बनावटः यदि उद्देश्य जोहड़ों में पानी अधिक समय तक संचित बनाये रखकर उसका अधिक समय तक पशुओं के लिए या अन्य उपयोगों में लेने का हो तो चिकनी मिट्टी की गहरी कुण्ड सरीखी तली अच्छी रहती है। यदि उद्देश्य संचित जल के अधिक से अधिक भाग को भूमिगत करने का हो तो उथली एवं बलुई या ऊर्ध्वाधर दरारों वाली चट्टानी तली अच्छी रहेगी।
1.4) बाँघ-स्थल पर नाके की चौड़ाई और जल भराव क्षेत्र का ढलान : कम से कम चौड़े अर्थात् छोटे नाके पर बाँध बनाने से बाँध की लागत कम आयेगी। बाँध के पीछे जल भराव क्षेत्र का ढलान कम होना लाभप्रद होता है, क्योंकि इससे कम ऊँचाई के बाँध या पाल से अधिक जल संग्रह किया जा सकता है। यदि जल भराव क्षेत्र अधिक ढालू होगा तब या तो पाल बहुत ऊँची बनानी पड़ेगी या जल भराव बहुत कम रह जायेगा।
1.5) समुचित जल भराव क्षेत्र का उपलब्ध होनाः एक बार बाँध या पाल के संभावित स्थल और ऊँचाई का अनुमान होने पर यह देखा जा सकता है कि, उस स्थान पर उतना ऊँचा बाँध या पाल बनाने पर पीछे कहाँ तक पानी भरेगा और ऐसे जल भराव क्षेत्र के भू-स्वामित्व व भू-उपयोग को देखकर, यह निर्णय लिया जा सकता है कि, भविष्य में उसमें कोई कठिनाई तो उत्पन्न नहीं हो जायेगी? जैसे-बीच में किसी का खेत, झोंपड़ी, सड़क या खलियान आदि तो नहीं आ जायेगा? जहाँ तक संभव हो बड़े वृक्ष भी भराव क्षेत्र में न पड़ें तो अच्छा है।
1.6) यदि नाके का स्थल चट्टानी हो तो चट्टानी परतों का ढालः यदि चट्टानी नाका – स्थल पर चट्टानों की परतों का ढाल बाहर की ओर होगा तो परत-जोड़ों (सळों) के साथ बहकर पानी बाहर निकल जायेगा। अतः चट्टान-परतों का ढाल नाके के बाये-दायें दोनों ओर से नाके की ओर और पाल की बाहरी साइड से जोहड़ के अन्दर की ओर होना अच्छा होगा।
1.7) पक्के काम में आधार पुख्ता होः मिट्टी की (कच्ची) पाल के लिए तो नींव तथा दोनों ओर के प्राकृतिक किनारे कैसे भी हों, कोई अन्तर नहीं पड़ता पर यदि पूरा बाँध या कुछ भाग पक्का (ईंट या पत्थरों की चिनाई का) हो तो नींव पक्की, स्थायी तथा रिसाव, तरेड़ आदि से रहित होनी चाहिए।
1.8) सामग्री व संसाधनों की उपलब्धताः निर्माण की लागत और सुविधा की दृष्टि से निर्माण के लिए आवश्यक मिट्टी, बालू, पत्थर आदि यथा संभव निकट उपलब्ध हों और ढुलाई सुविधाजनक हो तो अच्छा रहता है।
1.9) सामुदायिक भागीदारी का महŸवः जोहड़ निर्माण के स्थल के चुनाव में सबसे महत्त्वपूर्ण तो जोहड़ से लाभान्वित होने वाले वर्ग, समाज या पूरे गाँव की सोच, समझ, इच्छा और सुविधा होती है। तकनीकी / वैज्ञानिक पहलुओं पर जैसे कि ऊपर दिये गये हैं, ध्यान दिलाया जाना चाहिए, पर अन्तिम निर्णय समाज की समझ और अनुभव पर ही छोड़ देना चाहिए।
(2) चयनित स्थान पर बने जोहड़ का जलागम क्षेत्र निकालना : जैसा कि वाटर-शैड (पनढाल) की परिभाषा में कहा जाता है, कि जलागम क्षेत्र या आगौर वह तमाम भूमि होगी, जिस पर बरसा हुआ जल उस निर्धारित स्थान पर पहुँचे, जहाँ जोहड़ बना रहे हैं। इसकी सीमा या परिधि एक ऐसी कल्पित रेखा होगी, जिसके एक ओर का जल आगौर के अन्दर की ओर बहकर जोहड़ में पहुँचे और दूसरी ओर का जल दूसरी ओर बहकर आगौर के बाहर ही बाहर रहे। इस कल्पित रेखा को हम जल प्रवाह विभाजन रेखा या जल विभाजन रेखा या आगर सीमा (रिज लाइन) कहते हैं। आगर-सीमा सभी समोच्च रेखाओं या कंटूरों को लम्बवत् काटती हैं। अतः कंटूर चित्र पर आगर-सीमा लगाना बहुत सरल होता है। चित्र पर प्रस्तावित जोहड़ स्थल का सबसे नीचा दिखने वाला स्थान चुनें और उससे दोनों ओर की कंटूर रेखा पर लम्ब डालें, फिर इस लम्ब को क्रमशः अगली ऊँची कंटूर पर लम्ब डालते हुए बढ़ाते जायें, जब तक दोनों ओर से आते ये लम्ब एक-दूसरे से मिल न जायें। आगर-सीमा लग जाने पर इसकी परिधि के अन्दर पड़ने वाला क्षेत्र ही जोहड़ का जलागम क्षेत्र या आगौर क्षेत्र होगा। इसका क्षेत्रफल इसे वर्गों, आयतों या त्रिभुजों में बाँटकर और उसकी नाप करके आकलित कर लिया जाता है या यदि उपलब्ध हो तो प्लेनों मीटर (क्षेत्रफल मापी) यन्त्र के द्वारा भी नाप लिया जाता है। यूँ आगौर निकालने का सर्वोत्तम ढंग तो कंटूर-चित्र पर आगर-सीमा लगाकर ही है। परन्तु छोटे जोहड़ बनाते समय यदि कंटूर चित्र उपलब्ध न हो तो सीधे फील्ड में देखकर अनुमान से ही आगर-सीमा का चित्रण कर लिया जाता है। इस कार्य में हैण्ड स्प्रिंट लेवल की सहायता भी ली जा सकती है। चित्रण के बाद इसका क्षेत्रफल नाप कर आकलित कर लिया जाता है।
जलागम-क्षेत्र या आगौर का क्षेत्रफल सदा वर्गमीटर में या अधिक होने पर हेक्टेयर या वर्ग किलोमीटर में दिया जाना चाहिए।
(3) जोहड़ निर्माण स्थल पर उपलब्ध जल का आकलनः यह तो स्पष्ट ही है कि जोहड़ के उपर्युक्त विधि से आकलित जलागम क्षेत्र पर से बहने वाला सारा जल जोहड़ स्थल पर ही उपलब्ध होगा और यह भी कि इससे बाहर का जल जोहड़-स्थल पर कभी नहीं पहुँचेगा। क्योंकि बाहर का जल तो आगर-सीमा से ही विपरीत दिशा में बाहर की ओर बहेगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि, जोहड़-स्थल पर आने वाला जल, आगौर पर बरसे जल का वह भाग होगा, जो पृथ्वी के ऊपर होकर बहता हुआ चले। कुल वर्षा का कुछ भाग वायु में उड़ जाता है, कुछ पेड़-पौधों की पत्तियाँ सोख रोक लेती हैं, कुछ पृथ्वी में सोखा जाकर भू-गर्भ जल में मिल जाता है और कुछ पृथ्वी की सतह पर ही गड्ढों आदि में रुक जाता है। केवल शेष बचा हुआ भाग ही पृथ्वी की सतह पर बहता हुआ नदी-नालों या जोहड़ों तक पहुँचता है। यह भाग कम ढाल वाली बलुई मिट्टी में कम होगा और घने जंगलों तथा घास के मैदानों में तो और भी कम। अधिक ढाल वाली पथरीली भूमि में यह प्रवाह वाला भाग अधिक होगा, खासकर यदि जंगल कट चुके हों और चट्टानें नंगी हों। साथ ही यदि वर्षा रुक-रुक कर हल्की-हल्की पड़े तो प्रवाह वाला भाग कम होगा और तेज मूसलाधार वर्षा में अधिक होगा।
यदि जलागम क्षेत्र 10 से 100 हैक्टेयर के बीच हो तो उपलब्ध जल की मात्रा में 10 प्रतिशत कमी और मान ली जाये। क्योंकि दूर से आता जल बीच में ही वाष्पीकृत हो जाता है या पेड़-पौधों या भूमि द्वारा सोख लिया जाता है अथवा बीच के गड्ढों आदि में रुका रह सकता है। इसी प्रकार 100 से 10,000 हैक्टेयर आगौर के लिए प्राप्य जल में 15 प्रतिशत की और उससे भी बड़े क्षेत्र के लिए 20 प्रतिशत की कमी कर लेनी चाहिए। साथ ही उपर्युक्त कारक केवल उत्तर-पश्चिम भारत (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात), मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और पठारीय महाराष्ट्र में उपयोग किये जायें, समुद्र के निकट या पूर्वोत्तर भारत में नहीं।
यह बात समझने और ध्यान देने योग्य है कि, उपर्युक्त आकलन में माना जा रहा है कि, वर्षा में गिरे जल को वाष्पीकृत होने, भूमिगत होने, वनस्पतियों द्वारा सोखे जाने या गड़ढे आदि में रूक जाने में कुछ न कुछ समय और अवसर लगता है। पर प्रकृति में यदा-कदा ऐसे अवसर भी आते हैं, जब पहले की वर्षा से ताल-तलैया, गड्ढ़े सभी लबालब भरे हों तथा भूमि, वनस्पति और वायु मण्डल भी जल से पूरी तरह संतृप्त हों और अब जैसे कुछ समय के लिए टूट पड़े आसमान, फट जायें बादल और हो जाये मूसलाधार वर्षा; तो ऐसे में कारक और गणना सब धरे के धरे रह जाते हैं और प्रवाह एकदम से इतना अधिक आ जाता है कि, जहां वश चले पेड़-पौधे, घर-मकान, मेंड, तालाब, बांध आदि सब बहा ले जाये। ऐसा प्रवाह बार-बार नहीं आता, बस! कई वर्षों में एक आध बार। परंतु ऐसे अति प्रवाह का भी कुछ अनुमान जरूरी है, जिससे ऐसा प्रबंधन किया जा सके कि, यह अति प्रवाह बिना अपने जोहड़ को नुकसान पहुंचाये निकल जाये और किया गया सारा परिश्रम और धन पहली ही वर्षा में नष्ट न हो जाये।
*वर्षा जल संरक्षण विशेषज्ञ