कोटा: प्रदूषण से कराहती सांस्कृतिक व धार्मिक परम्परा की वाहक है चम्बल नदी और उसे कॉस्मेटिक सर्जरी नहीं नैसर्गिक सौंदर्य की जरूरत है। चम्बल के किनारे केश्वरायपाटन जैसे धर्मिक, सांस्कृतिक केंद्र हैं तो राष्ट्रीय परमाणु बिजली घर एवं कोटा थर्मल पॉवर प्लाण्ट, एनटीपीसी बिजली उत्पादन के केंद्र तथा राजस्थान, मध्य प्रदेश के लिए नहरों के विकसित तंत्र हैं।
चम्बल आईसीयू में है और उसे उचित उपचार की जरूरत है। जनता की अपेक्षा के अनुरूप तकनीकी और इंजीयिरिंग से युक्त 22 नालों के प्रदूषण मुक्ति के ट्रीटमेंट प्लाण्ट्स की कार्यक्षमता को परखने और उसे निरंतर चलायमान बनाने की सिफारिश इस सरकार से करना चाहना चाहते हैं। कारण स्पष्ट है कि साजीदेहड़ा ट्रीटमेंट प्लाण्ट फेल हो गया है। इसी के साथ छोटे छोटे प्रदूषण मुक्ति के उपाय ग्रीन ब्रिज जैसे उपाय भी नालों पर करना चाहिए उसी पर बड़े ट्रीटमेंट प्लाण्ट्स की सफलता निर्भर करेगी।
दुर्भाग्य से प्रदूषण मुक्ति के प्रयास अधर में हैं। कहने को तो रिवर फ्रंट पर पर्यटन विकास के सपने दिखाए जा रहे है लेकिन इससे चम्बल को विशेष फायदा फिलहाल दिखता नहीं। हालांकि ट्रीटमेट प्लांट कोटा में पहले भी है और अब दो नए बन गए। पर क्या इनसे चम्बल प्रदूषण मुक्त हो पाएगी? अभी केवल इतना ही कह सकते है कि रिवरफ्रंट के बहाने सरकार ने इस दिशा में कुछ तो सोचा। इतना पर्याप्त नहीं है। नदी मरणासन्न है तो इसका उपचार रिवरफ्रंट से नहीं होगा, प्रदूषण मुक्ति से ही होगा। केशरायपटन तक इसका विस्तार होना आवश्यक है। नहीं तो चम्बल को आगे से रेत लूट के कारण जाना जाता है न कि पानी के कारण।
गंगा परम्परा की वाहक मध्यप्रदेश के महू की पहाड़ियों से बह कर आने वाली चम्बल सर्वाधिक प्रदूषित उसी कोटा नगर में है जहां की समूची सभ्यता का विकास इसी नदी के किनारे हुआ। अपने उद्गम स्थल से पंचनदा इटावा में यमुना में मिलने वाली चम्बल लगभग ए सौंदर्य क हजार किलोमीटर का सफर तय करती है। इस नदी के पानी पर समूचे राजस्थान की पेयजल योजनाओं का खाका तय होता है और कई नगरों की प्यास बुझाने वाली ये नदी आज सबसे ज्यादा मैली कोटा में ही है। इसके किनारे रावतभाटा और कोटा और केशरायपाटन बड़े शहर और कस्बे हैं , जिनका मलमूत्र सीधी ही सैकड़ों नालों के माध्यम से नदी में बहाया जा रहा है।
कोटा में बड़े बड़े उद्योगों का विकास चम्बल के पानी के कारण ही संभव हुआ और इसके ही कारण कोटा को देश विदेश में पहचान मिली। फिल्मों में चम्बल को डाकुओं के कारण भी जाना जाता था। लेकिन ये इसकी पहचान नहीं हो सकती।
चम्बल मुकुंदरा टाईगर रिजर्व का भी हिस्सा है और राष्ट्रीय घड़ियाल अभ्यारण्य का भी। भविष्य में गांधी सागर या मुकुंदरा में चीता लाया जाएगा तो चम्बल भी उसका विचरण क्षैत्र होगा। कोटा व गांधी सागर से घड़ियाल तो पलायन कर गए लेकिन मगरमच्छ बचे हुए हैं जो कि अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
कृत्रिम सौंदर्य के बजाए नदी का नैसर्गिक सौंदर्य बहाल किया जाए।दरअसल चम्बल को उन भागीरथों की आवश्यकता है है जो नदी को निर्मल और अविरल बना सकें।
हमें कैसी चम्बल चाहिए,इसका विचार विमर्श दिवस भी हो जाए!
*स्वतंत्र पत्रकार एवं समन्वयक चम्बल संसद।