ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराह मिहिर का दावा था कि यदि लगातार और लगन से अध्ययन किया जाए तो जल विज्ञान का पूर्वानुमान कभी गलत नहीं होगा। अंततः इस सारे ज्ञान का उपयोग दूर-दराज के गाँवों के किसानों द्वारा किया जाना था। जल विज्ञान लिए इसे सूत्रों के रूप में संकलित किया गया और ग्रामीण स्तर पर दैवज्ञ जोशी को पढ़ाया गया। बाद में ये सूत्र विभिन्न स्थानीय ग्रंथों के रूप में फैल गए – मैथिली बोली में डाकवचनामृत, राजस्थानी में घाघ-भड्डरी, मराठी में सहदेव-भाडली, बंगाली में खनेर वचन, कन्नड़ में तिरिक्कुरल और तमिल में करनपथु।
यह जल विज्ञान के प्राचीन ज्ञान को समेकित करने, अवधारणाओं को समझाने और आधुनिक प्रगति के विरुद्ध इसकी पुष्टि करने के लिए अपने आप में एक अलग खंड का विस्तार है। लेकिन फिर भी इन अध्ययनों से निकलने वाली कुछ बुनियादी अवधारणाओं को सामने रखना उचित है।
प्राचीन भारतीय वैदिक काल से ही जल विज्ञान चक्र के बारे में जानते थे। इतना ही नहीं, वे बाहरी अंतरिक्ष और सूक्ष्म बूंदों वाले महासागर के बारे में भी जानते थे। इन विज्ञानों में एक बहुत ही अनोखी और अनोखी अवधारणा मौजूद है। यह वर्षा का बीजारोपण या गर्भाधान है। इसमें कहा गया है कि, बीज बोने और वास्तविक वर्षा के बीच की अवधि निश्चित और निश्चित है, जो 6.5 महीने यानी 195 दिन है। यदि इस दौरान कुछ भी गड़बड़ी होती है तो बारिश अनिश्चित काल के लिए रुक जाती है।
वायुमंडल में पवनों का संचरण निश्चित एवं सुनिश्चित है तथा यह पूर्व निर्धारित तरीके से वर्षों-वर्षों तक चलता रहता है। इसलिए किसी विशेष अवधि के लिए, यदि हम हवा के मार्ग और गति की स्थिति जानते हैं, तो हम और अधिक जान सकते हैं। यह पवन चक्र पौष माह में प्रारंभ होकर एक वर्ष में पूरा होता है।
बादलों की गति मूलतः हवाओं पर निर्भर होती है। इसलिए यदि कोई हवाओं के मार्ग और गति को जानता है, तो बादलों की घटना और इस प्रकार बारिश के बारे में सटीक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। जैसे आकाशीय पिंड एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वैसे ही वे वायुमंडल में बादलों और हवाओं को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए जितना अधिक हम उनकी गतिविधियों के बारे में जानते हैं, हमें बादलों और हवाओं की स्थिति के बारे में पता चलता है।
वायुमंडल में होने वाले परिवर्तनों से सभी रासायनिक पदार्थ तथा वनस्पति एवं जीव-जन्तु भी प्रभावित होते हैं। तदनुसार उनके व्यवहार और प्रतिक्रियाएँ बदल जाती हैं। इस तरह के व्यवहारिक परिवर्तन हमें मौजूदा परिस्थितियों के बारे में बेहतर जानकारी दे सकते हैं। सूर्य और चंद्रमा की किरणें हवा और बादलों के परिवर्तन से प्रभावित होती हैं। इसलिए यदि कोई अपनी दिनचर्या में कोई महत्वपूर्ण बदलाव देखता है, तो बादल और हवा की गतिविधियों में संभावित बदलाव की भविष्यवाणी की जा सकती है।
मौजूदा धूप (अट्टापक्रमा) से हवाओं में नमी की मात्रा और बारिश की संभावना का अनुमान लगाया जा सकता है। आकाश में द्वैध सूर्य की मायावी उपस्थिति, चंद्रमा या सूर्य को ढकने वाली आभा, इंद्रधनुष, बादलों की गड़गड़ाहट, क्षुद्र ग्रहों की बौछार, तारों का उदय- ऐसी सभी घटनाएं हमें अचानक बारिश की सूचना देती हैं। ऐसी घटनाओं का प्रभाव क्षेत्र और अवधि निश्चित है।
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जिस प्रकार भारतीय पंचांग में वर्षों, महीनों, पखवाड़ों और दिनों का दिया गया कालक्रम, जो अंततः खगोलीय गतिविधियों पर निर्भर होता है, वर्षों तक बिना किसी बदलाव के जारी रहता है, उसी प्रकार बादल और हवा की गतिविधियों का चक्र भी लंबे समय तक चलता रहता है। इसलिए इसका अध्ययन करने से पंचांग का हवाला देकर भविष्यवाणियां करने की बेहतर संभावना मिलती है।
प्रत्येक राज्य में ऐसे वैज्ञानिक अवलोकनों के लिए एक प्रणाली होनी चाहिए और कुछ तंत्र भी होना चाहिए जिससे प्राप्त जानकारी उन किसानों तक पहुंच सके, जो इसका उपयोग करते हैं। नाविक, सैन्य बल आदि। ज्ञान का यह सारा खजाना भारत का गौरव है और यदि जानबूझकर उन्हें वर्तमान संदर्भों से हटाने की गलतियाँ की जा रही हैं, तो इस और ऐसे विचार-विमर्श से बचने के लिए हर संभव कदम उठाया जाना चाहिए। पूर्वानुमान सूचनाओं का लाभ देश की सरकारों और समाज को मिलना शुभ होता लेकिन आज तक यह दिखाई नहीं दे रहा है। किसान अब वराहमिहिर, घाघ आदि के सूत्रों को जानता नहीं। आधुनिक विज्ञान भी किसानों तक पहुंचता नहीं है। फसलें सूख या डूब रही हैं। किसान कहता है धरती को बुखार चढ़ गया और मौसम के बिगड़े मिजाज ने हमारी हालत बिगाड़ दी है। आज जरूरत है कि, प्राचीन जल विद्या और जल विज्ञान चक्र को समझना ही पूर्वानुमान की सफल सिद्धि दिलायेगा।
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक