जीव बनने के बाद, जीवन को चलाने की ऊर्जा का नाम वायु है। यह जीवन का वाहक है। पंचमहाभूतों के योग का कारक व गैसों का योग है। यह पेड़-पौधों से भी सर्जित होती है, जिसमें प्राण वायु ‘ऑक्सीजन’ अधिक होती है, अन्य ज़हरीली गैसें कम होती है। लेकिन औद्योगिक शहरों में कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा मात्रा में होती है। जिन क्षेत्रों में समुद्र व गहरे जंगल होते है, वहां प्राण वायु ‘ऑक्सीजन’ पर्याप्त मिलती है, वहां जहरीली गैस बहुत कम मात्रा में होती है। वायु सूरज से निकलने वाली लाल गर्मी को सबसे पहले आकाश में ही वरण करती है, उसके उपरांत वो गर्मी पानी में पहुंचती है।
गर्मी जब पानी में पहुंचती है, तो पानी की हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैस दोनों को समुद्र के वाष्प से निकालकर बादल बना देती है। वायु के बड़े-बड़े पिंड बना देती है, जिनको हम अपनी बोलचाल की भाषा में बादल कहते हैं। यह बादल फिर वायु की गति से आगे जाते हैं। वायु यह की गति जीवन को सक्रीय जीवन बनाने के लिए जल उपलब्ध कराती है। जिससे हम सदैव पंच महाभूतों के योग का एहसास और आभास करते रहते है। वायु विरक्त रहती है और हमारे जीवन को भी विरक्त बनाकर रखती है। यह हमारे जीवन की निर्माता है, इसलिए वायु की अभिव्यक्ति नहीं होती है।
वायु जीवन का वरण करके, जीवन को चलाने और बनाने में योगदान देती है। जब इसका योगदान जीवन में मिट जाता है, तो जीवन नष्ट हो जाता है। इसलिए वायु को प्रभु का प्रसाद मानकर, अपने जीवन के लिए ग्रहण करते हैं और हमें पता भी नहीं होता कि हम ग्रहण कर रहे हैं। वह स्वतः हमारे जीवन में आती-जाती रहती है। हमें बस इतना ही पता चलता है कि हमारे शरीर की गति को बनाए रखने वाली वायु है। लेकिन वायु की विरक्ति का स्पर्श सिर्फ आध्यात्मिक जीवन को ही पता चलता है।
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आकाश में वायु बनती है। आकाश वायु की गति को जगह देता है। आकाश में जब खाली जगह होती है, तब भरी हुई जगह का दबाव, खाली जगह की तरफ बढ़ता है, उसे हम गति कहते हैं। वायु की गति का कम व तेज होना इस बात पर निर्भर करता है कि आकाश में सूर्य की गर्मी से किस तरह के दबाव स्थान बन रहे हैं, उन खाली दबाव वाले स्थान पर वायु बहुत तेज गति से पहुंचती है। अर्थात् वायु हमेशा गतिमान होकर, इस ब्रह्मांड को चलाने का काम करती है। जैसे ’ऑक्सीजन’ प्राणवायु मानव के शरीर को जीवंत बनाए रखती है, वैसे ही वायु आकाश और वायुमंडल में अपने आप को गतिमान रखती है।
यह गति मानव शरीर और वायुमंडल दोनों में एक ही रूप में काम करती है। गति ही सजीवता के साथ जीवन को चलाती है; इसलिए इस गति को ही जीवन कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि जीवन तो जल से बन गया लेकिन वह चलेगा वायु की गति से ही। जल को मिट्टी ने योगदान देकर जीवन दे दिया; लेकिन शरीर की गति वायु से होती है और गति को बनाए रखने की ऊर्जा सूरज से प्राप्त होती है। वायु का योग सब पंचमहाभूतों के साथ मिलकर, जीवन की सजीवता को बनाए रखता है। ब्रह्मांड भी तभी तक जीवित है, जब तक कि इसमें वायु है। इसलिए वायु पंचमहाभूतों में समान गति देने वाली प्रक्रिया है। वायुमंडल को वायु की गति के बिना जीवंत बनाए रखना संभव नहीं है।
वायु का वैज्ञानिक आध्यात्म कहता है कि आकाश से वायु उत्पन्न होती है, इसलिए आकाश और वायु दोनों एकरूप हैं। वायु कार्य और आकाश कारण, इसलिए आकाश और वायु अभेद हैं। यहां आकाश यानी ’स्पेस’ नहीं, आकाश यानी सूक्ष्म ’ईथर’ वायु-कारणरूप तत्त्व। यह तत्त्व ’स्थिर’ सूक्ष्म है, वायु ‘स्थूल’ है। कार्य-कारण होने के कारण दोनों एकरूप हैं, जैसे मिट्टी और घड़ा एकरूप हैं।
ऋग्वेद में एक सूक्त में कहा है –द्वाविमौ वातौ वातः आ सिंधोः आ परावतः – कहते हैं, भारत माता मानो प्राणायाम कर रही है। प्राणायाम में योगी सांस लेकर बाहर की हवा अंदर पहुंचाता है और सांस छोडकर अंदर की हवा बाहर छोडता है। भारत में दो वायु बहती है। एक जाती है परावत से सिंधु की तरफ और दूसरी समुद्र से परावत की तरफ । सिंधु यानी दक्षिण महासागर और परावत यानी हिमालय की गुहा। सब जानते हैं कि समुद्र की तरफ से मानसून की हवाएं बहती हैं और हिमालय की तरफ से भारत के पूर्व की ओर हवाएं बहती हैं। इस तरह ऋग्वेद में सिंधु से परावत तक अपने देश की मर्यादा मानी है। विविध भाषाओं को मान्य करके सारा देश एक मानना संस्कृति ही है। हमने प्रकृति से ऊपर उठकर यह काम किया है।
यह पवित्र हवा हमारे हृदय को स्पर्श करती है, हमें जागृत करती है, हम पर प्रेम बरसाती है। उसी के कारण हमारे श्वासोच्छ्वास चल रहे हैं। हमारा तुच्छ जीवन परिपूर्ण बनाने के लिए वह निरंतर काम करती है। अगर वह यह न करे, तो हम खतम हो जायेंगे। वह हमारे कानों में गुनगुनाती है, वह भगवान की दूत ही है। परमेश्वर का प्रेम- संदेश हर घड़ी हवा के साथ आ रहा है, उसे सुनें।
वायु यानी जीव, यह अर्थ भी वाति गच्छति इति वायुः, इस व्युत्पत्ति से सूचित है। जीव उपाधियुक्त होकर देह से देहांतर में वासना के अनुरूप जाता है। इसलिए वह वायु है।
भगवान का एक नाम है पवन। पवन रूप में सब दूर बहते रहते हैं। इधर से उधर संदेश सुनाते हैं। पवन आज यहां है, तो कल वहां। बिलकुल अनासक्त। सबके व्यवहार में मदद करता है और सबसे अलिप्त रहता है। वैसे ही सबके व्यवहार में मदद करें लेकिन अलग हो जायें। पवन परिव्राजक है। वह कहीं चिपकता नहीं। उसमें सेवावृत्ति है। वह सेवा करता है और चला जाता है।
हवा में सारे शब्द फैले हुए हैं। रेडियो हमारे घर में हो तो वे शब्द हमें प्राप्त हो सकते हैं जो चाहे सो। इसी तरह हवा में सब लोगों के सारे विचार भी फैले हुए हैं। मानसिक रेडियो – अर्थात् समविचार की उत्सुकता के द्वारा हवा में फैले हुए विचार ग्रहण किये जा सकते हैं जो चाहिए सो।
पेड़ जमीन में से कुछ तत्त्व लेकर पोषण प्राप्त करते हैं, बाकी कुछ पोषण उन्हें सीधे हवा से मिलता है। विज्ञान के कारण कल मनुष्य को सीधे हवा से पोषण लेने की शक्ति मिल जाये तो उसकी वृत्ति ध्यानमय बन जायेगी। फिर उसके श्रम को आज की अपेक्षा भिन्न स्वरूप प्राप्त होगा। कर्मयोग का महत्व कम होकर ध्यान योग का महत्त्व बढेगा।
भागवत के एक श्लोक में कहा है, ये जो सारी सृष्टि दीखती है, वह भगवान की ही कला है। लेकिन एक बहुत सूक्ष्म जीवन-कला है। वह हृदयस्थ कला है। उसके लिए मंदिर कौनसा है? वायु और अग्नि से शुद्ध किया हुआ पिंड उसका मंदिर है। प्राणायाम द्वारा वायु शुद्ध होती है।
वायु वासना-शुद्धि का साधन है। वासना- शुद्धि के लिए बौद्धिक विचारों को निकालकर आत्मिक विचारों को अंदर लेना चाहिए। ये दोनों मिलकर ध्यान होता है। योगियों ने तो एक सादा- सा जप सिखलाया है, जिसमें कुछ भी बोलना नहीं पडता। वह मंत्र है, सोऽहम्। श्वासोच्छ्वास के साथ जो हवा बाहर फेंक दी जाती है, वह अहम् है और जो अच्छी हवा बाहर से अंदर ली जाती है, वह सः यानी परमेश्वर की हवा है।
यथा खं सविता अनिलः – ज्ञानी के लिए वायु, सूर्यनारायण, और आकाश, ये तीन उपमाएं दी हैं, उनमें तीन अवस्थाएं हैं। सूर्य आपके व्यवहार से अत्यंत ऊंचा है। सूर्य को आप छू नहीं सकते, पर वह ऊंची जगह रहकर भी आपकी मदद करता है। वह आपके व्यवहार में शामिल नहीं। आकाश आपके व्यवहार में शामिल है, आपके व्यवहार में ओत-प्रोत भरा हुआ है। फिर भी आप उसे लेप नहीं लगा सकते। दीवार को आप रंग लगा सकते हैं, पर आकाश आपके आसपास छाया होने पर भी आप उसे रंग नहीं सकते। पवन कैसा है? मात्र एक दिन का संबंध! आज एक जगह, तो कल दूसरी जगह।
आकाश में निरहंकारता का लक्षण है। पवन में अलिप्त सेवा का लक्षण है, तो सूर्य में प्रखर ज्ञान का लक्षण है। इनमें से यदि किसी एक को चुनना हो तो वह मुश्किल होगा, क्योंकि सब-की- सब अवस्थाएं कठिन हैं, सरलता से प्राप्त होनेवाली नहीं। लेकिन कठिन काम करने के लिए ही तो मानव-जन्म है। आजकल ब्रह्यांड का संचालन जल और वायु के योग से भी माना जाता है। जल ही जीवन है पंरतु संचालन तो वायु ही करती है। इसलिए जल और वायु दोनों ही आकाश निर्माण करने वाले भी माने जाते हैं।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक