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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
खेलों में कबड्डी, कुश्ती, फुटबॉल, वालीबॉल, हूल (एक प्रकार की हाॅकी), कानियां डंका, पीठ्ठू, ऊंच-नीच, दौड़, कूद, छलांग, ऊंची कूद, लंबी कूद, खो खो, चौसर, चर भर, अंधा कुआं, ताश, पेड़ों पर चढ़ना कूदना, झाड़ियों पर से कूदना, चक्कर चलाना, पतंग उड़ाना आदि बच्चें, जवान, बड़े सभी अपने अपने ढंग से खेलते।
सावन भादो मास में बालकों के लिए कुछ नए खेल खेलने को मिलते जैसे झूले झूलना, मिट्टी के घरौंदे बनाना आदि। इनके आनंद का वर्णन करना भी संभव नहीं है। आज भी स्मृति में आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। सावन की मल्हार में मगन हो जाता है, खो जाता है। पेड़ों पर झूले पड़ जाते। पींगे बढ़ती, तरह-तरह के गीत गाए जाते। पींगे इतनी तेज होती कि पेड़ों के पत्ते, टहनियां भी तोड़ कर लाई जाती। लड़कियां झूलती तो कहती कि जा पींगे बढ़ाकर सासूजी का नाक तोड़ ला अर्थात इतनी तेज पींग बढ़ा जो पेड़ की टहनियों से टकरा जाए। झूले के अपने खेल होते। कभी अकेले पटरी पर बैठकर झूलना, कभी एक को अपनी गोदी में बिठाकर झूलना, कभी अकेले ही खड़े खड़े पींग बढ़ाना, कभी दो एक दूसरे की ओर मुंह करके खड़े होकर पींगे बढ़ती। कभी झूले के रस्सी बांध कर झोटे देना। इसके लिए दो जने बारी बारी से विपरीत दिशा में रस्सी खींच कर झूले की गति बढ़ाते। इसमें कभी कभी ऐसे झटकें लगते कि छक्के ही छूट जाते, नानी याद आ जाती, बहुत डर लगता।
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बीच-बीच में गीतों का दौर चलता रहता, ‘आई री साथन सावन वाली तीज, झूला डलवा दे चंपा वाले बाग में…..।’
झूले झूलते समय कभी कभी चोट भी लग जाती। छोटी-छोटी चोट की तो परवाह ही नहीं की जाती, घर पर किसी को बताने का तो सवाल ही नहीं उठता था। भूले भटके कभी कभी अच्छी खासी चोट लग जाती। इसे भी छुपाने का प्रयास किया जाता, पता होने पर बाहर निकलने पर रोक लगने का डर रहता।
चकरी वाला झूला, इसे बनाने के लिए जमीन में एक मजबूत लकड़ी का चार पांच फूट ऊंचा खंभा गाड़ा जाता जिसके ऊपरी सीरे पर नोंक बनी हुई होती। इस नोंक पर तराजू की तरह दोनों ओर थोड़ी झुकी हुई, कमान जैसी मजबूत लकड़ी के मध्य में छेद करके लगाया जाता। कमान के दोनों सीरो पर रस्सी बांधी जाती, जिस पर एक डंडा बांधा जाता, जिस पर बैठा जा सके। दोनों ओर एक एक बालक बैठ जाते ओर इस कमान को घुमाते। तेज घुमाने के लिए कमान को पकड़कर जोर से दौड़ना पड़ता। घूमने पर इससे आवाज निकलती। यह सही हल्का घूमें इसके लिए नोंक पर तेल, चिकनाई लगानी होती।
पहली बारिश, वर्षा के समय जो सौंधी सौंधी महक खुशबू महकती वो अब कहां? ना जाने कहां खो गई। लाल लाल मखमली तीज का आना, घूघू के घर नजर आना, हम लोग इन गोल घेरे के घरों के चारों ओर अंगुली से घेरा बनाते हुए गाते, घूघू तेरे घर में चोर लाठी लेकर दौड़ और कुछ समय बाद घूघू ऊपर आ जाता। गिजगिजाईयों का पंक्ति बद्ध होकर रेलगाड़ी की तरह चलना, इनके अनगिनत पैर देखकर आश्चर्यचकित रह जाते। कुछ एक दूसरे की पीठ पर सवारी करती दिखाई देती। नए नए कीट-पतंगों का नजर आना। सच ही कहा गया है, जल ही जीवन है। पानी के आते ही नया नया जीवन नजर आने लगता है। मौसम बदलते ही इन सबका गायब हो जाना। कहां से, कैसे आते हैं और मौसम बदलते ही अपने आप कैसे, कहां लुप्त हो जाते हैं। यह पहेली हम बच्चों का बालमन नहीं सुलझा पाता, यह अनबूझी पहेली अनबूझी ही रह जाती।
होली के समय कुछ टीलम टीला जैसे विशेष खेल भी खेलते। होली में चांदनी रात में खेल का अपना ही आनंद था। इस समय जौ चना गेहूं आदि की फसलें पकने की ओर बढ़ रही होती।
होली फाल्गुन के अवसर पर ढप ढोलक की थाप पर नाच, गाने, गीत, भजन, कीर्त्तन, रागिनी, सांग, नाटक रात देरी तक कई कई दिन तक चलते। गांव में सबको इस अवसर का विशेष इंतजार रहता। इस समय मदमस्त मौसम की मादकता अपनी ही छटा बिखेरती। होलिका दहन के बाद अगले दिन, होली के रंग, धुलेंडी का अपना ही रंग जमता। इस दिन बड़े गांव के लोग ढप, रंगों के साथ पहले छोटे गांव और बाद में कोजिंदा गांव जाते जहां गाना बजाना सांग रंगों की बौछार आदि के साथ लौटते।
होली, फाल्गुन की रातें बड़ी हसीन रहती। गांव में गजब का उत्साह, आशा, जोश, चाव नजर आता। रात को ढप की थाप पर नाचना गाना उत्सव की रौनक बढ़ाता। इस मौके पर सांग, नाटक, हंसी मजाक, व्यंग्यों का दौर तो सीमा पार कर बहुत ऊंचाई पर रहता। मजेदार बात यह कि इनका कोई बुरा नहीं मानता था, बल्कि जिन महिलाओं, पुरुषों पर व्यंग्य बाण चलते थे, वे इनका आनंद उठाते। साथ ही अपना बड़प्पन, सम्मान मानते, अपने को गौरवान्वित महसूस करते। हर इंसान की इच्छा रहती कि उसका नाम भी इस सार्वजनिक रंगीन अवसर पर आए तो वह धन्य हो जाए।
हमारे पूज्य पिताजी श्री जयनारायण जी का इन दिनों में पूरा गांव इंतजार करता कि वे दिल्ली से गांव कब आएंगे। उनको कई दिन पहले से संदेश भेजें जाते कि वे समय पर अवश्य पहुंचें। हास्य-व्यंग्य की उनकी अपनी अनूठी ही शैली थी, जो अंदर तक गुदगुदा देती। उनके मुख से निकले शब्दों को बहुत सतर्कता, सक्रियता के साथ, सावधान हो कर सुना जाता। कभी कभी तो इतनी जोर का ठहाका गूंज उठता कि कुछ क्षणों के लिए कार्यक्रम ही ठहर जाता। इन क्षणों का सभी को बेसब्री से विशेष इंतजार रहता। आस-पड़ोस के गांव में भी इस बात की गाहे-बगाहे चर्चा होती। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। धीरे धीरे पिताजी ने इस मौके पर जाना कम कर दिया।
दूसरी पीढ़ी में मेरे से बड़े भाईयों में दूसरे नंबर के भाई श्री राधेश्याम ने यह कमान संभाली और उनका दबदबा भी कई वर्षों तक चला। उनका इंतजार भी उसी तरह से किया जाता। जब वे इस अवसर पर दिल्ली से गांव पहुंचते तो खुशी की लहर दौड़ जाती। उनके आने में विलम्ब होता तो हमारी माता श्रीमती लक्ष्मी देवी से आग्रह अनुरोध किया जाता कि ‘ऐ लक्ष्मी, तू अपने बेटे राधे को खबर भेजकर दिल्ली से जल्दी जल्दी बुला ले ना, समय जा रहा है। और यह निकल गया तो बात एक साल पर जाएगी।’ ऐसे में किसी मां को भी अच्छा लगना स्वाभाविक है।
इसी अवसर पर कलकत्ता जो अब कोलकाता कहलाता है, से हमारे कुनबे में से ही हमारे चाचा श्री हजारीलाल आते। वे पर्दे के पीछे काम करने वाले थे। उनकी कलम कुछ प्लाट तैयार करती, लिखती और कलाकार दिन में सांग, नाटक, गीत, कविता का अभ्यास करते। रात के समय गांव के मध्य सार्वजनिक स्थान जिसे परस के नाम से जाना जाता था। वहां यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता था। सालों साल वहीं पर ढप ढोलक बजते थे। कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। होलिका दहन भी गांव में एक ही स्थान पर होता। पूरा गांव एक स्थान पर एकत्रित होता, खूब रौनक रहती। एक साथ बस्ती माता के दर्शन का लाभ मिलता।
समय ने करवट बदली और आपस में कुछ समस्याएं खड़ी हुई। कार्यक्रम पर काले बादल छाने लगे। आयोजन पर ग्रहण लगने की दहशत बन गई। अनेक सवाल खड़े हो गए। ऐसे में कार्यक्रम आयोजित करने के लिए पंडितों के मौहल्ले में, हवेली के पडौस में बाबा राव श्री ज्वाला सिंह के नोहरे, गुवाडा के सामने के मैदान का चयन किया गया। होलिका दहन तो दो स्थानों, गांव के दो कोने में बंट गया। यह अच्छा तो कदापि नहीं था, मगर हो गया। लोग ऐसे कदमों को होनी के नाम से पुकारते हैं। कहते हैं ‘होनी तो होकर रहे, होनी टाली नहीं जाए।’ जबकि यह मानव निर्मित कदम थे। अपनी जिम्मेदारी टालने, अपनी गलतियों को छुपाने को ऐसे बहानों की तलाश कर, काम में लिए जाते हैं, और आज भी यह जारी है।
होली के कार्यक्रमों की विशेषता यह भी रहती कि नये लोगों, जवानों, बच्चों को भागीदारी का भरपूर मौका मिलताI नये नये लोगों का कौशल गाँव के सामने आता। आयोजक भी हर तरह की नई नई खोज, तलाश जारी रखतेI गाँव के बाहर रहने वाले लोग तीज त्यौहार पर गाँव पहुचने, आने का प्रयास करतेI इससे उस समय रौनक अधिक बढ़ जाती।
दीपावली की रौनक भी अजब-गजब खूबसूरती के साथ कई दिन का आनंद बिखेरती। दीपमाला तो उत्सव वाले दिन मगर पटाखे फुलझड़ी तो कुछ पहले से ही तैयार।
पशुओं को सजाने की तैयारी कई दिन पहले शुरू हो जाती। घर-बार की साफ-सफाई, लिपाई पुताई, रंग रोगन में सभी जूट जाते। बच्चों की शरारतें भी नए नए मौके, ढंग ढूंढती कुएं में पटाखे जलाने पर तेज आवाज गूंजती। बड़े लोगों का कहना था कि इससे कुएं को नुकसान पहुंच सकता है। कुआं धमाके से फट भी सकता है। लड़कों की समझ में यह बात कब आती। कुछ बुजुर्ग कुएं के पास छुपकर बैठ जाते मगर लड़के कब पकड़ में आने वाले। कभी भूले बिसरे पकड़े गए तो खूब डांट पड़ती।
घरौंदे का खेल ऐसा जो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता। सुबह से लेकर शाम तक खेला जा सकता है। चाहे अकेले हो या समूह में। घर, किला, मोटर गाड़ी, रेलगाड़ी, चीलगाड़ी (हवाई जहाज), पानी का जहाज़, नाव, बाग बगीचे, मकान दुकान, बाजार हाट, पहाड़ जंगल, नदी नाले, अपनी कल्पनाओं, सपने में आई कोई कुछ कैसी भी चीज बनाने को आजाद। अपने सपने बुनो और खुद तोड़ो, या टूटने के लिए समय पर छोड़ दो।
हमारे यहां की मिट्टी राजस्थान से जुड़े होने के कारण भूरभूरी रेतीली है। चीपकती नहीं इसलिए खेलने में खूब मौज-मस्ती करने का मजा मिलता। कितना भी खेलों अच्छा ही लगता।
सालों साल यह प्रक्रिया का आनंद उठाया। अब वैसा कुछ नजर नहीं आता, लगता है बहुत कुछ बदल गया है और अब लंबे समय तक लौटकर भी आने की गुंजाइश, संभावना भी नहीं दिख रही है। विकास, विज्ञान के नाम पर बदली हमारी जीवनशैली यह सब लील गई। और हम, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
बचपन में जो छूट, खेल, आनंद, मौज मस्ती, खुलापन हमें मिला उसका तो आजकल अनेक बच्चे सपना भी नहीं ले सकते हैं। जीवन शैली, रहन-सहन, खान-पान, सोच-समझ ने वो नजारे, खेलकूद, प्राकृतिक सौंदर्य गायब ही कर दिया। कहीं थोड़ा बहुत मौका मिल भी जाए तो आधुनिकता के नाम पर बनी मानसिकता बड़ी रुकावट बनकर सामने खड़ी हो जाती है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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