दुर्गा पूजा और कोलकाता-3
– मनीश वर्मा ‘मनु’
कोलकाता एक महानगर है पर दुर्गा पूजा के दौरान यहां एक गांव बसता था। पूरा कोलकाता इन दिनों पूजा मय था। जब भी सड़क पर निकले चारों ओर भीड़ ही भीड़। लोग बाग़ पैदल चले जा रहे थे । उन्हें देखकर ऐसा लगता कैसे इतना चल पा रहे हैं वो।पर, नहीं आप भी चलना शुरू कर दें। बाकी बातें ज़ेहन में नहीं रहेंगी। रहेंगी तो सिर्फ और सिर्फ पंडाल हॉपिंग की बातें।
जैसा कि मैंने पहले ही बताया था, कोलकाता का दुर्गा पूजा अपने भव्य पंडालों (बांग्लाभाषियों के शब्दों में पैंडल) के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आपको यहां के लगभग जगहों पर एक बेहतरीन पंडाल देखने को मिल सकते हैं। सभी पंडाल का निर्माण किसी न किसी विषय वस्तु पर आधारित होता है। कला और संस्कृति जैसे बंगाल की मिट्टी के कण कण में बसता हो। यहां की कलाकारी देखकर दंग रह जाएंगे आप। दांतों तले उंगलियां दबा लेंगे आप।
हां, एक बात जो हमें और आपको शायद नहीं मालूम होगी कि यहां की एक पूजा जो मुख्यत: एक परिवार की पूजा है। उस पूजा का संबंध मुगलों से है । यह पूजा गंगोपाद्धयाय परिवार की पूजा है। इस परिवार के लोग सन 1610 से पूजा करते आ रहे हैं। संभवतः कोलकाता की यह सबसे पुरानी पूजा है । यह पूजा है, कोलकात्ता के उत्तरी भाग में स्थित शोभाबाजार इलाके में सुवर्णा राय चौधरी परिवार की पूजा। लगभग 35 पीढ़ियों से इस परिवार में यह पूजा होती चली आ रही है। इस परिवार के आज़ की पीढ़ी के मुखिया हैं देवर्षि राय चौधरी जो फिलहाल संयुक्त सचिव हैं सुवर्णा राय चौधरी परिवार परिषद के।
लक्ष्मी कांत राय चौधरी गंगोपाध्याय परिवार के सदस्य थे। उन्होंने ही इस पूजा की शुरुआत की थी।उन्हें पूजा के लिए जमीन सम्राट जहांगीर ने राजा मानसिंह जो लक्ष्मी कांत राय चौधरी के पिता जीया गंगोपाद्धयाय जो संस्कृत के महान विद्वान थे और राजा मानसिंह के गुरु थे, के कहने पर दी थी।
कोलकाता में यूं तो पूजा की शुरुआत महालया के दिन से ही हो जाती है पर पंडालों का बनना काफी पहले से शुरू हो जाता है। इतने बड़े बड़े भव्य और किसी न किसी विषय वस्तु पर आधारित पंडालों को देखकर मुझे तो लगता है कि पूजा खत्म हुई नहीं कि अगले साल की तैयारी शुरू हो जाती होगी। इतना बड़ा आयोजन कोई एक दिन का काम नहीं है, और ना ही किसी एक व्यक्ति के वश की बात है। सामाजिक समरसता एक अनिवार्य अंग है यहां के पूजा का।
मैंने यहां की सरकारी बसों में एक स्लोगन लिखा देखा था ‘বাংলা মানে ব্যবসা (Bengal Means Business – बंगाल का मतलब व्यापार)‘ । वाकई! दुर्गा पूजा का स्वरूप इतना विशाल, व्यापक और भव्य। यह कतई संभव नहीं है बिना बिजनेस हाउसेज के समर्थन के। आम आदमी के वश के बाहर की बात है। प्रायोजित सी लगती है यहां की पूजा। लगता ही नहीं पर जब आप थोड़ा गौर से देखेंगे तो यकीन हो जाएगा। लगभग हर पूजा किसी ना किसी नामचीन, रसूखदार व्यक्ति के साथ जुड़ी हुई। यहां मज़हब की दीवार कहीं आड़े नहीं आती हैं। कोई रहीम किसी पूजा समिति का अध्यक्ष है तो कोई पीटर किसी कमिटी का सचिव बना बैठा है। सभी एक लक्ष्य के लिए मिल जुलकर काम कर रहे हैं। आश्चर्य होता है इतने बड़े पैमाने पर लोगों की परस्पर सहभागिता का होना।
छोटे से छोटे स्तर पर लोगों की सहभागिता। कलाकार स्थानीय। पूजा पंडाल में लगने वाला लगभग सारा सामान स्थानीय। खाने पीने की वस्तुओं में स्थानीय पुट। मतलब पूरी तरह से लोकल पर भोकल। यहां लोग सिर्फ कहते नहीं हैं करते भी हैं। पंडालों में सजावट में बांस और उससे बनी हुई चीजें बहुतायत में इस्तेमाल होती हैं।
पूरी पूजा के दौरान यहां आपको रात और दिन का फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है। हर जगह पर पुलिस वाले और उनके वालंटियर मुस्तैदी से तैनात अपनी जिम्मेदारियों के साथ ड्यूटी निभाते हुए। निर्बाध यातायात। पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ। क्या मजाल कि किसी भी स्तर पर अनुशासन भंग हो। कोई हो हल्ला नहीं। कोई शोर शराबा नहीं।
आम दिनों में जहां फुटपाथ पर फेरीवालों की वजह से चलना दूभर हो जाता है वहां इन दिनों आप आराम से फुटपाथ पर चलें। रात भर बसें चलती रहती हैं। पूजा के तीन महत्वपूर्ण दिनों सप्तमी, अष्टमी और नवमी में लगभग रात भर मेट्रो ट्रेन चलाई जाती है।
लगातार ड्युटी करने के बाद भी पुलिस वालों के चेहरे पर कोई शिकन या तनाव नहीं। बिल्कुल नम्रता से आपके साथ पेश आते हुए। सैल्यूट करने का मन करता है उन्हें।
जगह जगह पर तमाम तरह के फ़ूड स्टाल लगे हुए। रेस्तरां में खाने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करने वालों के लिए लाईन लगी हुई। कोई शोर शराबा नहीं। रेस्तरां में खाने के लिए कहीं भी मज़हब की दीवार बाधक नहीं बनती थी। बहुत ही महत्वपूर्ण बात है यह।
पूजा पंडालों में जबर्दस्त भीड़। एक रास्ते से आप जाते और दूसरे रास्ते से आपको निकाला जाता। निकलने वाला रास्ता आपको अमुमन लंबी दूरी तय करवाता। यहां की पूजा के संदर्भ में एक बात जो मैंने अनुभव किया वो यह कि यहां के लगभग सभी पूजा पंडाल मुख्य सड़क से कुछ दूरी पर अंदर की ओर रहते हैं। सड़कों पर लगे लाईटों के सहारे आप अंदर जाते हैं। शुरू में लाईटों से बना द्वार ही इस बात का सूचक होता है कि अंदर कहीं पूजा हो रही है।
आदमी पंडाल हॉपिंग में थोड़ा थक जरूर जाता है पर पूजा का उत्साह कहां उसे बैठने देता है। उत्साह में कोई कमी नहीं। धीरे धीरे बजता हुआ बंगला संगीत। मन को बड़ी राहत देता है। कहीं भी कानफाड़ू संगीत बजते नहीं देखा हमने।
अब जब मां की विदाई का वक़्त आ गया लोगों की आंखें नम थी। सिन्दूर खेला जिसमें महिलाएं विदाई से पहले मां की आरती उतारती हैं । सुहागिन महिलाएं एक दूसरे को सिन्दूर लगातीं हैं। जिस तरह होली में एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाया जाता है ठीक उसी प्रकार सिन्दूर खेला के रस्म में महिलाएं एक दूसरे के साथ सिन्दूर से खेलती हैं।अब जिस प्रकार घर से एक बेटी को मीठा खिलाकर विदाई होती है ठीक उसी तरह की रस्म यहां दोहराई जाती है। महिलाएं अपने अपने आंचल से मां के आंसू पोंछतीं हैं। हालांकि यह सब प्रतीकात्मक होता है पर बड़ा ही भावुक क्षण होता है। मां विदा हो गईं। लोग फिर से अपने काम धंधे में लग गए। यही तो जिंदगी है।एक चक्र है। जीवन चक्र।
आपने अपने लेखनी से सामाजिक समरसता, प्रतीकात्मक पूजा पद्धति एवं जीवन दर्शन को जीवंत कर दिया है ।
अति सुंदर निरूपण एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा व्यक्त है
Awesome
दुर्गा पूजा को एक जीवन चक्र से जोड़ कर आपने हमारा दिल जीत लिया। आपका यह वृतांत पढ़ कर कलकत्ता के दुर्गा पूजा देखने की इच्छा और बलवती हो गयी