रविवारीय: सायरन की आवाज़
– मनीश वर्मा’मनु’
दूर, कहीं दूर से आती हुई सायरन की आवाज़। थोड़ा डरा ही देती है। अमुमन एम्बुलेंस से आती हुई सायरन की आवाज़ ही होती है। हां! कभी कभी अति विशिष्ट व्यक्ति की गाड़ी को एस्कोर्ट की जा रही गाड़ी के सायरन की आवाज़ भी हो सकती है।
ख़ैर! सायरन की आवाज़ से जुड़ी हुई बचपन की कुछ यादें हैं। सरकारी क्वार्टर में रहा करते थे। सड़क के एक ओर क्वार्टर हुआ करता था और दूसरी ओर टेक्स्टबुक पब्लिशिंग हाऊस की एक खुबसूरत सी बिल्डिंग। आज हम भले ही हम उस बिल्डिंग का पुरा नाम जानते हैं, पर उस वक़्त सिर्फ और सिर्फ टेक्स्टबुक के नाम से ही वह बिल्डिंग जानी जाती थी। बिहार एजुकेशन बोर्ड की पुस्तकें वहां छपती और प्रकाशित होती थीं।
प्रतिदिन सुबह नौ बजे और शाम के ठीक पांच बजे सायरन की आवाज़ आपको टेक्स्टबुक की ओर से आती थी। उनके कर्मचारियों का आने और जाने का वक़्त हुआ करता था शायद।आप उस सायरन की आवाज़ से समय का पता कर सकते थे। कहां था मोबाइल और कहां थी घड़ी ? मोबाइल का तो खैर , कोई अता पता ही नहीं था। घड़ी तो बड़े लोग ही पहनते थे। हम बच्चे तो कभी कभी पिताजी की घड़ी पहन लिए , कुछ देर के लिए और लगे इठलाने और दोस्तों के बीच रौब जमाने।
पिताजी का कार्यालय भी पांच बजे समाप्त हो जाता था। हम सभी बच्चे अब थोड़े अलर्ट मोड में आ जाते थे। मां तो बस मां थी। प्यार की प्रतिमूर्ति। बस हमारे ज़्यादा परेशान करने पर थोड़ा दुःखी होकर पिताजी के कार्यालय से आने का हवाला देकर कभी कभी थोड़ा डरा दिया करती थी। यह सभी बीते हुए कल की बातें हैं।
खैर! सायरन की आवाज़ एक जानी पहचानी आवाज़ थी और आज भी है। आपके मोबाइल फोन में आज बहुत तरह की आवाजें हैं। आप उन्हें रिंगटोन कहते हैं शायद। पर, आप उन आवाजों को पहचानते नहीं हैं। न जाने कितनी तरह की आवाजें। कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। जब फुर्सत में हैं तो ऊपर से नीचे सारे आवाजों को खंगाल लिए एक साथ। मन किया तो रिंगटोन बदल लिए। नहीं तो नहीं। न कोई ख़ास दिलचस्पी और न ही कोई लगाव।
शब्द जो दिल को न छूए उससे लगाव कैसा ! आवाज़ जो दिल में ना उतरे उससे रिश्ता कैसा ।
उस सायरन की आवाज़ से एक रिश्ता सा क़ायम हो गया था। एक आत्मीय रिश्ता। आप भी सोच रहे होंगे, क्या बोल रहा है ये शख़्स। पर, ठीक ही तो कह रहा हूं। रोज़ एक नियत समय पर सुबह और शाम सायरन का बजना, क्या आपको नहीं लगता कि कुछ चीजें चाहे अनचाहे आपसे जुड़ती जा रही थीं।
क्वार्टर के पूर्वी हिस्से में एक छोटा सा खाली एरिया था। हम सभी उसे ‘मैदान’ कहते थे। शाम हुई नहीं कि मैदान का प्रत्येक कोना आपको भरा हुआ मिलता था। मौसम की बात बेमानी थी।
मैदान के किसी कोने में क्रिकेट चल रहा होता था तो मैदान के एक हिस्से में वॉलीबॉल चल रहा होता था। कहीं छोटे छोटे बच्चे कुछ खेल रहे होते तो कहीं कुछ लोग ताश खेल रहे होते। एक खेल परिसर सा दिखता था ‘मैदान’ हमारा। ‘मैदान’ हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग और शाम में वहां जाना, कुछ खेलना जीवन का अनिवार्य हिस्सा था।
क्या दिन थे वो! क्रिकेट के गेंद के लिए तमाम तरह के तिकड़म लगा कर पैसे इकट्ठे किए जाते थे। क्या आनंद था इन चीजों में। आज गेंद खरीदने के लिए पैसे इकट्ठे करने की जरूरत नहीं। पर, अब वो बात कहां? मैच खेलने के लिए मैदान के पूर्वी छोर वाली सड़क के डिवाइडर तक हम लोग अपना बाउंड्री बनाते थे। एक तरफ का रास्ता बिल्कुल ब्लॉक कर दिया जाता था। बिल्कुल नो ट्राफिक जोन की तरह।डिवाइडर पर लोग बाग बैठकर मैच का आनंद उठाया करते थे। आज चाह कर भी यह काम नहीं कर सकते हैं। एक गाड़ी वहां नहीं खड़ी कर सकते हैं। कोई रोक टोक नहीं थी। कोई बोलने वाला नहीं था। आज वहां अब कोई ‘मैदान’ नहीं रहा। ‘मैदान’ की ज़मीन पर सरकारी कर्मचारियों के रहने के लिए क्वार्टर बना दिया गया है। अब वहां न कोई खेल होता है और न ही कोई सड़क ब्लाक की जाती है। बस! सिर्फ और सिर्फ स्मृति ही शेष है।
बचपन के दिन थे। बहुत कुछ करने को था नहीं। दुनिया अपनी बहुत सीमित थी। बस यूं कहें दुनिया अपनी जेब में थी। दाल रोटी की चिंता नहीं थी। पिताजी का होटल खुला था।जब भूख लगी, बैठ लिए। इस बात से बिल्कुल ही बेखबर कि पिताजी किन मुसीबतों से और न जाने क्या क्या व्यावहारिकता अपनाते हुए हमें समय पर हमारी जरूरतों को पूरा कर रहे थे।
सोशल जरूर थे हम सभी । जरूरत से कुछ ज़्यादा ही सोशल। अधिकांश वक़्त तो सोशल होने में ही गुजरता था। पर, सोशल मीडिया ने तब तक हमारे जिंदगी में अपनी दखलअंदाज़ी शुरू नहीं की थी। भाग्यशाली भी थे कि किसी ने अभी तक हमारी जिंदगी में ताक झांक शुरू नहीं किया था। दुर्भाग्य भी हमारा था कि हम और हमारी पीढ़ी के लोग उसकी ताक़त से महरूम रहे।
यह सब तो चलता ही रहता है। यादें भी कहां पीछा छोड़ती हैं। हर वक़्त आपके साथ साए की तरह रहती है। दिल ने जब भी याद किया तो दिमाग में एक साईरन अभी भी बज जाती है और यादें सामने हाज़िर।
बचपन की यादें ताजा हो गईं. बहुत ही बढ़िया संस्मरण! रोजाना 9 बजे सुबह का सायरन आज भी नही भूले हैं हमलोग. उस समय 10 बजे स्कूल सुरु होता था और 9 बजे का सायरन के साथ ही स्कूल जाने की तैयारी होने लगती थी.
बचपन की स्मृतियां पीछा कहां छोड़ती हैं!जब-जब सोचते हैं गुज़रे वक़्त पर,धूल उड़ती है और हम लौट जाते हैं उस वक़्त के पास।
बढ़िया संस्मरण सर जी
अत्यंत भावुक अभिव्यक्ति दिल के बहुत करीब