रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
टमटम में जुते हुए घोड़े सी स्थिति है
आम आदमी! बेचारा आम आदमी! कैटल क्लास की संज्ञा से विभूषित आम आदमी! अभिशप्त है। अब इसके आगे भी कुछ बच गया है कहने को? पर, फिर भी एक होड़ सी मची है अपने आप को ख़ास कहलाने की। आपको शायद समझ मे ही नहीं आता कि आप निमित्त मात्र हैं! माध्यम तो कोई और है।
बेचारा आम आदमी तो सड़कों पर चल रहा है। दौड़ रहा है। क्यों दौड़ रहा है बेचारा ! बस किसी तरह दो जून की दाल रोटी का खुद के लिए और अपने परिवार के लिए जुगाड़ कर सके। इसी मशक्कत में दिन रात एक किए हुए है। न उसके पास वक़्त है और न ही ताकत कि इसके परे कुछ भी सोच सके। टमटम में जुते हुए घोड़े सी स्थिति है उसकी।
सड़कों पर चल रहे हैं। क्या करें फुटपाथ है नहीं । और है , तो सिर्फ यादें शेष हैं फुटपाथ की। दरअसल बाजार खड़ा है फुटपाथों पर।अमुमन यही स्थिति है शहरों के फुटपाथों की। किसे पड़ी है? और क्यों चिंता करें? क्या फर्क पड़ता है?
सभी अपनी अपनी नौकरी बजा रहे हैं। कहिए निभा रहे हैं। बचपन में ही बड़ों के मुंह से सुना था – नौकरी की नहीं जाती है बल्कि निभाई जाती है। इंतज़ार करते हैं सभी एक दूसरे का।
आप सड़क पर हैं। दो पहिए या चार पहिए वाली अपनी वाहन में। कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ी मुश्किल से तो तनख्वाह से कतर ब्योंत कर एक अदद वाहन का जुगाड़ कर पाएं हैं।
यह बात तो समझ में आती है कि कुछ संवैधानिक पदों पर पदस्थापित लोगों के लिए यातायात रोक दिया जाता है। उनके समय की कीमत है ! समाज ने, हमने और संविधान ने उन्हें यह दर्जा दिया है। इज्ज़त बख़्शी है।
पर, कुछ लोगों को एस्कोर्ट दिया जाता है। कतिपय कारणों से !!! चलिए बेचारा आम आदमी यह भी स्वीकार कर लेता है। आखिर चारा क्या है ? एस्कोर्ट वाले लोग जो वी. वी. आई. पी. के आगे आगे चलते हैं जरा कभी उनके रोआब और उनकी भाषा पर तो ग़ौर करें। गोया वही वी. वी. आई. पी. हों।
खैर! उनसे क्या होड़? इज्ज़त तो नहीं जाती है। थोड़ा आत्मसम्मान को ठेस जरूर पहुंचती है। खैर! क्या कर सकते हैं??? या तो आत्मसम्मान को कांख में दबा, सिसकियों को छिपा और अपने जज्बातों को झटक कहीं आगे बढ़ जाएं, नहीं तो अभी तक तो आत्मसम्मान को ठेस ही पहुंची है, कहीं कुचल न दिया जाए।
ज़रा एक मिनट रूकिए। तनिक सोचिए। क्या सड़क पर चलने वाला आदमी, आदमी की परिभाषा में फिट नहीं बैठता है! अरे! आप भी तो कल अगर एस्कोर्ट की गाड़ी में नहीं होंगे तो यह समस्या आपके समक्ष भी आएगी। आप भी हमारे समाज , हमारे वृहद ् परिवार के सदस्यों में से एक हैं। तनिक सोचिए ।
यातायात की समस्या का समाधान करते वक्त थोड़ा भाषा को संयमित और संतुलित कर लेंगे तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा। बाकी! डंडा तो है ही। थोड़ी चोट ही तो लगेगी। खींसे निपोरते हुए, थोड़ा सहलाकर पतली गली से निकल जाएंगे।
चलिए, यह सब तो खैर उनके लिए जो वास्तव में अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। पर, उनका क्या जिन्होंने अभी अभी दो चार पैसे कमाकर बड़ी बड़ी मंहगी गाड़ियों में खुद को धंसा रखा है। दो चार ‘जी हुक्म’ साथ में ले रखा है। सरकार से येन केन प्रकारेण अपनी सुरक्षा का हवाला देकर । कल तक सुरक्षित थे । आज थोड़ा पैसा हो गया तो अपने ही लोगों से असुरक्षित महसूस करते हैं। प्रजातंत्र में प्रजा से ही डर लगने लगा। एक नई प्रजाति ‘ बाउंसर्स’ से अपने आप को अलग दिखाने की कोशिश में लगे हैं। अपने आप को एक कोकून के अंदर छिपाने की नाकामयाब कवायद।
भाई लानत है ऐसे पैसे, ऐसे रसुख और रूतबे पर जो अपने लोगों के बीच अंगरक्षकों और बाउंसरों की फौज खड़ी करवा दे। खैर! सरकारी अंगरक्षक ले लिया है और
अगर नही जुगाड़ कर पाए तो प्राइवेट अंगरक्षकों की फौज तो है ही । शहर मे एक अलग ही किस्म का उत्पात मचाते चलें। आपकी गाड़ी सबसे अगाड़ी ?!!!??? बाकी की जान उनकी इज्जत!! जाए तो जाए ! क्या फ़र्क पड़ता है? गई तो गई। अरे, डेढ़ सौ करोड़ हैं हम। एक दो नहीं रहे तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा। और हां! अगर आपकी गाड़ी और आप समय पर नहीं पहुंचे तो शायद बहुत बड़ा फर्क पड़ सकता है। थोड़ी देर हुई और आमजन का अगर हलक सूखने लगे तो शायद आमजन जोर जोर से चिल्लाकर आपका इस्तकबाल न कर सकें।
भाषाई संयमन और संतुलन बेचारा कहीं दूर खड़ा अपने आप पर शर्मिन्दा है। आंसू बहा रहा है।
किसी से कोई गिला नहीं। किसी से कोई शिकवा नहीं। किसी से कोई होड़ नहीं। थोड़ा आत्मसम्मान लड़खड़ाया, लेखनी थोड़ी इधर से उधर हो गई। माफ़ करेंगे।
बेहतरीन
इस स्थिति के लिए सिर्फ सरकार नहीं अपितु समाज ,व्यक्ति, संस्था सभी जिम्मेवार है।फुटपाथ पैदल वालो की लिए है। ये सभी भूल गए और जबरदस्ती उस पर दुकान सजाना शान की बात समझी जाती है। सामूहिक प्रयास से ही स्थिति बदली जा सकती है।
परंतु व्यतिगत जिम्मेवारी आज के समय में शून्य हों गया लगता है। उदाहरण स्वरूप सरकार में पॉलीथिन बंद कर दिया है। बंद करने की स्थिति क्यों आई क्योंकि हमलोग ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। और हां बंद होने के बाद भी नहीं निभा रहे है। तुरंत सब्जी बाजार से लौटा हूं। पॉलीथिन के लिए सब्जी वाले से बहस करते भी लोगो को देखा है। सभी आत्मचिंतन करेंगे तो कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है।
अपना काम है बनता
भांड में जाए जनता।