रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
सारे विपरांत चलते हैं एक साथ
बस नजरिया है जनाब। थोड़ा चलते चलते नज़रों को ज़रा हरक़त में ले आएं। उन्हें थोड़ा व्यायाम करवा दें। फ़िर दुनिया का नज़ारा लें। दाल रोटी का मसला तो चलता ही रहेगा। असली दुनिया तो यही है।
जहां दुःख है वहां सुख भी है। प्रेम भी है और नफ़रत भी। सारे विपरांत एक साथ चलते हैं।
अब देखिए ना हमारे दुःख का कारण क्या है। बस वही बातें जिनसे हमने कभी सुख का अनुभव किया था। अभाव भी उन्हीं चीजों का महसूस होता है , जिनके प्रति कभी कोई भाव रहा हो। हम निरंतर तलाश में रहते हैं इन विपरितों के अंतिम सिरों से मुक्त होने के लिए। पर, साहब हमारी पकड़ इतनी ही कहां। कहां भला हमारा पीछा ताजिंदगी छुट पाता है।
जब भी आप बाहर कदम रखते हैं। थोड़ा अपने ज्ञानेन्द्रियो को सुषुप्तावस्था से जाग्रत अवस्था में लाते हैं आप अपने चारों ओर परस्पर विरोधी चीजें अनुभव करते हैं।
अगर एक तरफ़ दुनियाभर की तमाम सुख सुविधाओं से लैस ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो ठीक दूसरी ओर गरीबों के झोंपड़े भी हैं जहां बाकी सुख सुविधाएं तो छोड़िए परिवार के साथ रहना भी बमुश्किल से हो पाता है।बस कहने को सर के ऊपर छत है। सामाजिक दूरी की तो ऐसी की तैसी।
तभी मुझे थोड़ा थोड़ा संदेह होने लगा था। तभी मैंने डर को थोड़ा झटका। डर के आगे ही तो जीत है।
मैं भी बड़ी हसरत से निहारता हूं , बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स को, खुबसूरत अट्टालिकाओं को बड़ी बड़ी और लंबी चमकदार गाड़ियों को । काश! मैं अपने आप को वहां पाता। तभी देखता हूं उन अट्टालिकाओं के सामने, उन बिल्डिंग्स के सामने खेलते हुए अर्द्धनग्न बच्चों को जो उन्हीं बिल्डिंग्स और अट्टालिकाओं को बनाने के लिए लाए गए मज़दूरों के बच्चे हैं जिन्हें कुछ भी भान नहीं। अपने आप में ही मगन। पेट में चूहे कुलबुलाते हैं तभी उन्हें अपने मां बाप की याद आती है। ना कोई अरमान ना ही जिंदगी से कोई गिला शिकवा। मुझे लगता है वो मुझे, मेरी गाड़ी को हसरत भरी निगाहों से देखकर वशीभूत हो रहे हैं और मैं उन बिल्डिंग्स और अट्टालिकाओं से निकलती हुई चमचमाती हुई गाड़ियों से। सभी का कमोवेश यही हाल है।
अभी हाल का ही अनुभव बताता हूं। किसी काम से रेलवे स्टेशन जाना हुआ। रेलवे स्टेशन एक ऐसी जगह है जहां लोग भारतीय रेल का इंतजार करते हुए पुरे परिवार के साथ या अकेले भी चादर बिछा कर सोते हुए, जागते हुए या फिर बातें करते हुए समय निकालते हुए मिल जायेंगे। वहीं दूसरी ओर रेलवे स्टेशन बहुत से गरीब गुरबा और या फिर वैसे लोग जो काम की तलाश में शहर आए हैं। अब आ तो गए हैं पर, रहने का कोई ठौर ठिकाना नहीं है। दो जून की रोटी तो किसी तरह मयस्सर हो जाती है। कभी कभी शायद वो भी नहीं होती है। इस तरह के लोग भी खुले आसमान के नीचे आपको रात काटते हुए मिल जायेंगे। सुबह होगी, कहां नित्य कर्म से निवृत्त होंगे उसकी चिंता तो उसकी बारी आने पर की जाएगी। पहले प्राथमिकताओं से तो निबट लें।
आप पूछेंगे प्राथमिकता क्या है ? भाई पेट की क्षुधा जो न कराए।
अब आइए दूसरा नज़ारा देखते हैं।
एक बारात जा रही थी। कहने को तो जन्म लेना या अगर थोड़ा और फिलासफिकल हो जाएं तो गर्भावस्था को ही मान लें (हालांकि बहुत से कारणों से कहां सभी का जन्म हो पाता है। ख़ैर!) किसी की जिंदगी की शुरुआत होती है। पर! जिंदगी की सामाजिक तौर पर सही शुरुआत तो शादी से ही होती है।
ख़ैर! बारात अपनी दुल्हनिया को लाने जा रही थी। बारात में आदमी कम गाड़ियों की संख्या ज़्यादा थी। सभी गाडियां एक से बढ़कर एक नस्ल वाली। स्कार्पियो और इन्नोवा तो सबसे पिछले पायदान पर खड़ी थी। ऑडी, वोल्वो, मर्सिडीज@ मर्क, बी एम डब्ल्यू, मिनी कूपर आदि से का काफिला सजा था। मुझे एकबारगी लगा यह बंदा शादी करने जा रहा है कि कुछ और? साथ में चल रहे बाउंसरों की भरमार थी। अब पता नहीं वो बारात को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे या फ़िर ट्राफिक को। आगे आगे कुछ महिलाएं डांस करते हुए चल रही थीं।
अमुमन बाद में लोगों की जिज्ञासा होती है – शादी में कौन कौन आया था? बारात कौन कौन लोग गए थे? यह बंदा क्या बताएगा कि मेरे बारात में फलां फलां और इतनी सारी एक से बढ़कर एक नस्ल वाली गाड़ियां थी। बाउंसरों की भरमार थी। हद हो गई भाई!
जिंदगी विरोधाभास से भरी पड़ी है। बैलेंस शीट की लाइबिलिटी किसी के लिए असेट्स है। किसी के लिए डेबिट है तो किसी के लिए क्रेडिट है।
बस सब नज़र का फेर है। कहीं दिन है तो कहीं रात है। पर, जब अंतरिक्ष में विचरण कर रहे हैं तो सब बराबर है।
अब दूसरी ओर एक और नज़ारा देखिए। नज़ारा है, मुक्तिधाम का। यहां आम भाषा में कहें तो जिंदगी खत्म हो रही है। पर, नहीं जिंदगी यहां मुक्त हो रही है। तमाम तरह के तिलिस्म से। आपकी ज़िन्दगी का अंतिम पड़ाव। आपकी छटपटाहट यहां खत्म होती है। आप तमाम विपरीतों के अंतिम सिरों से मुक्त हो जाते हैं। बहुत सारे लोग जिन्हें आप और हम सभी ने भगवान् का दर्जा दे रखा है, उनसे जाकर कहें कि इस अंतिम सत्य को झुठलाकर दिखाएं।
हम सब जानते हैं अब कुछ नहीं हो सकता है फिर भी रोते गाते चिल्लाते हैं। सब प्रभु की माया है। पल भर ही दुनिया बदल जाती है। इस दिन के आने का अहसास ही सिहरन पैदा कर देता है।एक डर सा व्याप्त हो जाता है।
वक़्त मुट्ठी में बंद रेत की तरह धीरे धीरे निकलती जा रही है! जब तक हम रोटी – दाल की समस्या से बाहर निकलते है, वक़्त ट्रेन की आखिरी डिब्बे की तरह प्लेटफार्म छोड़ने को होती है! हम चाह कर भी नहीं पकड़ पाते हैं।
वक़्त ही कहां मिल पाता है ज़िंदगी जीने को! जीना चाहते हैं हम ! पर, कहां जी पाते हैं हम! पर, क्या कुछ इलाज़ है इसका?
👌👌