संस्मरण
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों की सूची में कैमरून भी शामिल है
कैमरून मध्य और पश्चिम अफ्रीका में स्थित देश है, जिसके दक्षिण-पश्चिम में तटीय मैदान, केन्द्र में विच्छेदित पठार, पश्चिम में पहाड़, उत्तर में मैदानी इलाका पाया जाता है। कैमरून का मौसम उष्णकटिबंधीय गीला और शुष्क जलवायु से प्रभावित है। इस देश की शारी प्रमुख नदी है जो मध्य अफ्रीका गणराज्य और चाड़ देशों में बहती है। यह 1400 किमी लम्बी है। इस देश में भूमि का इस्तेमाल टिकाऊ ढंग से न होने के कारण मरुस्थलीकरण की समस्या पैदा हो गई है।
मेरे कैमरून के बहुत अच्छे साथी जोशुआ कोंकणोह कहते है कि कैमरुन में गृह युद्ध तथा इसके साथ होने वाले नरसंहार दोनों ही विनाशकारी हैं। कोविड के आगमन के कारण इस स्थिति को नियंत्रण करना बहुत कठिन है। इसके कारण बेटर वर्ल्ड कैमरुन नामक सामुदायिक परियोजना खत्म हो गई है। यहाँ की स्थिति बहुत भयानक है, लेकिन इसमें जुड़कर मेरा जुनून पुनर्योजित सोच को लाने का है। मैं देख रहा हूँ कि दुनिया के मूल्यों का क्षरण हो रहा है। इसलिए सक्रियता के रूप में अपने आपको देखता हूँ। विश्वास और संबंध को सामूहिक दृष्टि से आगे बढ़ाना होगा।
मुझे कैमरून को समझने में जोशुआ ने मेरी बहुत मदद की है। यह अच्छे समृद्ध-सच्चे आदिवासियों का देश है। सरल-सहज सामुदायिकता से जीवन जीने वाले लोग है। इनके मन में राष्ट्र प्रेम है। अपने समुदायों के साझे हितों को सर्वोपरि मानते है। इन्होंने अपनी धरती-प्रकृति का संरक्षण उतने गहरे प्रेम से किया है। यहाँ के कबीले अपने लिए लड़ते रहते है। कबीलों की लड़ाई के कारण यहाँ विस्थापन बहुत अधिक हुआ है।
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अच्छी वर्षा, अच्छा मौसम और तापक्रम भी सामान्य है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के ये शिकार है। शुष्क जलवायु से तापक्रम का बढ़ना-घटना साथ-साथ चलता है। मौसम का स्वास्थ्य बिगड़ने से इनका वर्षा चक्र बदला है। खेती में बाजारूपन बढ़ने से इनकी जमीन-जंगल में बिगाड़ हुआ। यहाँ के लोगों में जंगलों के प्रति प्रेम है, फिर भी यहाँ की सरकार जंगल-जंगली जीवों और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में सफल नहीं है।
यहाँ मैं अपनी यात्रा में बहुत से लोगों से मिला। जोशुआ ने यहाँ के कुछ प्राकृतिक प्रेमियों से ही ज्यादा मिलाया था। यहाँ का खान-पान हमारे देश की तरह शाकाहारी नहीं है। रहन-सहन और चिकित्सा में जंगली वनस्पति एवं धातुओं का उपयोग करते है।
यहाँ के विस्थापितों का यूरोप के देश स्वागत नहीं करते है। ये लाचार-बेकार-बीमार बनकर यूरोप में जा रहे है। यूरोपियन इन्हें अपने ऊपर बोझकी तरह ही देखते है। इसलिए ये भी यूरोप में बहुत मजबूरी में जाते है। मरता क्या नहीं करता? विस्थापन का दवाब यूरोप में बढ़ने से तीसरा विश्व युद्ध जलवायु परिवर्तन के कारण ही होगा। ये भी जलवायु परिवर्तन शरणार्थी से संबोधित होते है। इसी शब्द में तनाव द्वारा गृह युद्ध से विश्व युद्ध का चित्रण बन रहा है।
अभी तक के दो विश्व युद्ध शक्ति समूहों के राष्ट्र मिलकर करते थे। अब ऐसा नहीं होगा। उजड़कर आये जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों से गृहयुद्ध शुरू होगा। सभी राष्ट्रों के शरणार्थी एक तरफ होंगे। दूसरी तरफ आवासित सहारा देने वाले होंगे। तीसरा विश्व युद्ध जलवायु शरणार्थियों एवं आवासियों के बीच बन रहा है। विस्थापित तो मरता हुआ आया है। वह कुछ भी करने के लिए तैयार है। अतः आवासित राष्ट्र और विस्थापित राष्ट्रों का समूह बनता दिख रहा है। कुछ बडे़ हृदय वाले लोग इस युद्ध को रोकने का काम कर रहे है। फ्रांस, ,स्वीडन, जर्मनी, विएना , नीदरलैंड आदि आवासित राष्ट्र विस्थापित शरणार्थियों को सम्मान से देख रहे है। कैमरुन जैसे छोटे-छोटे देशों का भी तीसरे जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों की संख्या बढ़ाकर विश्वयुद्ध कराने में भूमिका बन रही है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।