हिंदी साहित्य के दो दिग्गज: हरिशंकर परसाई और रोबिन शॉ ‘पुष्प’ फोटो: गीता पुष्प शॉ
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संस्मरण
रक्षाबंधन पर विशेष
डॉ. गीता पुष्प शॉ*
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आज जब हम कोरोना काल में जी रहे हैं, लॉकडाउन और सामाजिक दूरी का पालन कर रहे हैं, तभी राखी का त्यौहार आ गया. भाई-बहन के प्यार के इस त्यौहार पर याद आ गए परसाई मामा. हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई. मैं तब छोटी थी तीन साल की. वे लोग हमारे पड़ोसी थे. मैं उन्हें ‘परसाई मामा’ कहती थी और उनके पिताजी को ‘परसाई दद्दा’. परसाई मामा की मां गुज़र चुकी थीं. परसाई दद्दा घर के बाहर खटिया बिछा कर दिन भर उसी पर पड़े रहते. उनके सारे क्रियाकलाप आउटडोर होते थे. वे तंबाकू बहुत खाते थे. मैं उनकी नकल करती थी. लोग कहते- “गीता बिटिया बताओ तो दद्दा तंबाकू कैसे खाते हैं?” मैं उनकी तरह बकायदा कमर से बटुआ निकालकर तंबाकू हथेली पर रखती. चुनौटी से चूना लेकर अंगूठे से मलती और तंबाकू मुंह में गप्प. लोग हंसते. ताली बजाते. मुझे मज़ा आता. इस कला में मैं बचपन से पारंगत थी. तभी तो मैं बाद में भी एन.सी.सी. कैंप में, कॉलेज के फंक्शन में मिमिक्री और स्टैंडअप कॉमेडी करके तालियां बटोरती रही.
परसाई मामा के भाई थे गौरी शंकर और दो बहनें. मेरी मां स्कूल में पढ़ाने जातीं तो मुझे उनके घर छोड़ देतीं. मैं दिन भर रोती रहती. उनकी बहनें ऊंचे सुर में मुझे चिढ़ातीं- “छीः छीः गीता रोती है, गीता के मुंह में आटा, बिल्ली ने मुंह चाटा.” मैं और ज़ोर से रोने लगती. फिर मां मुझे अपने साथ स्कूल ले जाने लगीं. मां मुझे नई फ्रॉक सिलकर पहनातीं तो कहतीं- “जाओ परसाई मामा को दिखाकर आओ”. मैं दौड़ कर जाती. परसाई मामा मुझे गोद में उठाकर सड़क पर घुमाते. मां भी मुझसे छुट्टी पाकर घर के काम निपटातीं.
बाद में हमारे पिताजी का ट्रांसफर हो जाने से जबलपुर छूट गया. परसाई मामा की खबर मिलती रहती. उनके पिता की मृत्यु के बाद सभी भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी उनके सर आ गई थी. परसाई मामा मैट्रिक करके ही स्कूल में पढ़ाने लगे थे. बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि परसाई जी तब हाफ़ पैंट पहनते और खंडवा के स्कूल में पढ़ाते थे. महान गायक अभिनेता ‘किशोर कुमार’ उनके छात्र थे- छठवीं कक्षा के. परसाई मामा बताते थे ‘किशोर’ बड़ा शर्मिला सीधा लड़का था पर होशियार. अपने भाई अशोक कुमार के गाने गाता था- चल चल रे नौजवान…
सन् 1964 में हमारे पिताजी ने जबलपुर के नेपियर टाउन में अपना मकान बनवाया. मैं वहां कॉलेज में पढ़ाने लगी. यहाँ फिर परसाई मामा हमारे पड़ोसी हो गए. हमारे घर के सामने वे किराए के मकान में अपनी विधवा बहन सीता और उनके चार बच्चों राजकुमार, पिक्की, मम्मा और साधना के साथ रहते थे. ये बच्चे मेरे छोटे भाई-बहन के दोस्त हो गए.
परसाई मामा ने कई नौकरियां कीं और छोड़ीं. खुद भी पढ़ते रहे. नागपुर से एम.ए. किया. बहनों की शादियां करवाईं. आर्थिक अभावों के बीच पारिवारिक ज़िम्मेदारियां निभाते रहे. लेखन-कार्य जारी रखा. उनकी व्यंग्य रचनाएं तब की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं जैसे धर्मयुग, हिंदुस्तान आदि में छपा करती थीं. अखबार में उनके नियमित कॉलम छपते थे. व्यंग जैसे- ‘कहत कबीर’, ‘सुनो भाई साधो’, ‘उलझी-सुलझी’, ‘और अंत में’ आदि. परसाई जी उस समय के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हो गए थे. नौकरी छोड़कर नियमित स्वतंत्र लेखन करने लगे थे. उन्होंने कहानी, उपन्यास लेख आदि भी लिखे. तब रचनाओं के छपने पर पारिश्रमिक मिलता था जिससे जीविका चल सकती थी. आजकल तो उलटी गंगा बह रही है. साहित्य पढ़ने वाले लुप्त होते जा रहे हैं.
परसाई जी की राजनीतिक टिप्पणियां और व्यंग्य बहुत तीखे और तिलमिला देने वाले होते थे. जो आज भी प्रासंगिक हैं. एक उदाहरण देखिए:-
उन्होंने कहा- इंडिया इज़ ए ब्यूटीफुल कंट्री. वे छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे. जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा- इंडिया इतना खूबसूरत है तो बाकी हमें खा लेने दो. तुमने इंडिया खा लिया, अब बाकी बचा भारत हमें खाने दो.
यह बातचीत 1947 में हुई थी. तब लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई. बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण. मगर सच पूछो तो यह ट्रांसफर ऑफ़ डिश हुआ. थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई. वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे, ये जनतंत्र के अचार के साथ खाने लगे.
परसाई मामा को बहुत मान-सम्मान मिला. सागर विश्वविद्यालय में ‘मुक्तिबोध पीठ’ के वे निदेशक बने. मध्य प्रदेश का ‘शिखर सम्मान’ मिला. केंद्रीय ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ आदि भी मिले. मैं शादी होकर बिहार आ गई थी. अपने पति रॉबिन शॉ पुष्प के साथ जब भी मायके जबलपुर जाती परसाई मामा से भेंट होती. मेरे पति साहित्यकार, मां पद्मा पटरथ भी कहानी लेखिका. सबकी खूब जमती.
इधर तीखे व्यंग्य लिखने का खामियाजा परसाई मामा को भुगतना पड़ा. उनके कई शत्रु पैदा हो गए. किसी लेखन पर आपत्ति के कारण एक दिन कुछ लड़के जबरन उनके घर में घुस आए और उन्हें हॉकी स्टिक से पीटा. उनकी टांग टूट गई. बाद में वे लाठी लेकर चलते या बिस्तर पर ही रहते. बीमार भी रहने लगे थे. हम उन्हें देखने गए थे. उनकी विधवा हो चुकी बहन सीता (हमारी सीता मौसी) और उनके बच्चों के प्रति प्रेम और ज़िम्मेदारी के कारण परसाई मामा ने शादी नहीं की. आजीवन कुंवारे रहे. उन लोगों के लिए अपना जीवन होम कर दिया. आखिरी दिनों में उनकी बहन और बच्चों ने भी परसाई मामा की बहुत सेवा की. देखभाल की. संघर्षमय जीवन भाई-बहन हिम्मत के साथ गुज़ार रहे थे. तभी एक दिन मनहूस खबर सुनने को मिली- प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का निधन हो गया. हमारे परसाई मामा नहीं रहे. हम स्तब्ध रह गए. हतप्रभ. सहारा देने वाले भाई के बिना एक विधवा बहन के जीवन में दूसरा बड़ा आघात. जी हां, 10 अगस्त 1995 की राखी का वह दिन था जब परसाई मामा इस दुनिया से अलविदा कह गए. भला राखी के दिन इस तरह कोई भाई अपनी प्यारी बहन को छोड़कर जाता है क्या…
*लेखिका पटना विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं एवं हिंदी के प्रख्यात लेखक रोबिन शॉ पुष्प की पत्नी हैं।
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बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी संस्मरण। हमारी पीढ़ी भी परसाई जी और रॉबिन शॉ पुष्प को पढ़ते हुए बड़ी हुई है। एक दौर में दोनों धर्मयुग सहित हिंदी की सारी पत्रिकाओं में छाए रहते थे।