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श्रद्धांजलि: स्वामी अग्निवेश
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
11 सितम्बर को स्वामी अग्निवेश का दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया। यह एक अपूर्णीय क्षति है। स्वामी अग्निवेश क्रांतिकारी आध्यात्मिक पुरुष थे, उन्होंने गरीबों के लिए, बच्चों के लिए निशक्त निस्सहायों के लिए अधिकार दिलाने के लिए हमेशा लड़ाई लड़ी। मैं उनको 1978 से जानता हूं और 1980 में हमारी और उनकी मुलाक़ात हुई। क्योंकि जब मैं बड़ौत में पढ़ता था, कॉलेज में तो उन दिनों ये जो ईंट भट्ठे होते हैं उनके कारण जो आम के बाग़ थे वो फलने बंद हो गए थे वो खराब हो जाते थे, और ईंट भट्ठों पर तो बंधुआ मजदूर थे। वो एक समस्या थी और मेरे सामने बागों का खराब होना भी समस्या थी। तो इस सिलसिले में हमारी एक मुलाक़ात दिल्ली में हुई और हमने उनसे कहा कि हमारे इलाके के सारे आम के बाग़ खराब हो रहे हैं । तो उन्होंने कहा वहां उस इलाके में जो मजदूर काम करते है उनमें बहुत सारे मजदूर बंधुआ मजदूर की तरह ही काम करते हैं और वे उनके लिए काम करना चाहते है । तो फिर इस तरह से एक साथ दिल्ली से लेकर बड़ौत तक जितने ईट भट्ठे थे उन पर जो मजदूर काम करते थे उनकी हालत बहुत खराब थी उस पर उन्होंने काम शुरू किया। मैं ये जनता हूं कि स्वामी जी रहते थे साधु की वेशभूषा में और उनके अंदर की आत्मा हमेशा गरीबों की पक्षधर थी। वे गरीबों को सहारा देते थे और उनका अध्यात्म कहता था कि जीवन के सारे जीवों का सम्मान करना ही बहुत बड़ा तीर्थ है। जीवों के लिए उनके मन में बहुत जगह थी।
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बाद के दिनों में वह तरुण भारत संघ में आए, और तरुण भारत संघ में 1995 में अरवरी नदी बहने लगी थी वो भी उन्होंने देखा और हमारे सारे काम को भी उन्होंने बहुत अच्छे से देखा समझा। उनके साथ हमारे मतभेद तो बहुत होते थे क्योंकि हम अलग तरह से सोचते और काम करते थे और वो अलग तरह से सोचते और काम करते थे लेकिन उनके अंदर निशक्त निस्सहाय और साथ ही साथ प्रकृति के प्रति जो सम्मान था वो दिन प्रतिदिन बाद के दिनों में काफी गहरा और बढ़ता गया। मुझसे ठीक से याद आ रहा है कि वर्ष 2000 में जब हमारे यहां राष्ट्रपति आए तो उन्होंने कहा कि ‘ तुम्हरा काम तो पूरी दुनिया में जाना माना जाता है लेकिन इसमें आध्यात्मिकता क्या है? तो मैंने उन्हें अपनी छोटी से पुस्तक उस पुस्तक का नाम था ” भारतीय आस्था एवं पर्यावरण रक्षा” – ये किताब बहुत छोटी है कुल 40-42 पेज की पुस्तक हल्की सी और हिंदी अंग्रेजी दोनों में है, तो मैंने दोनों उन्हें दी। उन्होंने 10-12 दिन पढ़ने के बाद कहा कि तुमने बहुत गहरी पुस्तक लिखी है। इसमें भारतीय आस्था को, और ये आस्था है ये ना केवल हिन्दू की बल्कि सबकी है, तो ये जिस आस्था के बारे में तुमने लिखा है ये तो भारतीय आस्था है, वैदिक काल की आस्था है और तुम जिसे भगवान कहते हो मैं भी उसे भगवान को मानता हूं।
मेरे लिए तो भगवान ये पांच महाभूत ही हैं जिनसे हम निर्मित हुए हैं। और फिर मैंने उन्हें मेरी जो भगवान के परिभाषा है वो बोलना शुरू किया भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर। ये जो पंच अक्षरा पंच महाभूत है वहीं हमारा भगवान है बस ये सुनकर वो बहुत ही मुक्त हो गए और आनंदित हो गए और कहने लगे मुझे बहुत अच्छा लग रहा है राजेंद्र तुम्हारे साथ बात करके। पहले तो मुझे तुम्हारे साथ तुम्हारे वैचारिक से उतनी सहमति नहीं होती थी लेकिन अभी मुझे लग रहा है कि तुम तो उसी चिंतन से काम कर रहे हो जो हमारा चिंतन है। आर्य समाज और फिर उन सब कि व्याख्या करते हुए बहुत गहराई से उन्होंने कहा कि आर्य समाज जो आज की जरूरत है, जो आधुनिक जरूरत है ,जो परिपेक्ष्य में प्रकृति को और पंच महाभूतों को देखने का नजरिया है। और फिर उन्होंने सत्यप्रकाश का हवाला देते हुए कहा कि स्वामी दयानंद जी उस वक़्त क्योंकि धार्मिक कर्मकांड था, पूजा पाठ था, परमानंद थी उनकी, उनके लिए बोल रहे थे लेकिन तुमने तो बिल्कुल अलग पक्ष रखा है। क्रिएटिव, पॉजिटिव पक्ष रखा है इस “भारतीय आस्था एवं पर्यावरण रक्षा” में और ये एक तरह से तो हमारी वैदिक परंपरा है।
पानी को वरूण देवता और पूरी प्रकृति को एक तरह से जीवन का आधार मानना और उसी के प्रति हमारा प्रेम, सम्मान, आस्था, श्रद्धा, भक्ति भाव जिस तरीके से जिस तरह से तुमने इस पुस्तक को सृजित किया है, ये पुस्तक तो सबके काम की है।
उस पुस्तक के बाद तो वे बार बार फिर तो तरुण भारत में बहुत आने लगे थे। वर्ष 2000 के बाद उन्होंने मुझसे कई बार कहा कि तुम वही काम कर रहे हो जो हम करना चाहते है। तुमने धरती पर नदियों को पुनर्जीवित किया और प्रकृति को पुनर्जीवित किया हम लोग तो केवल गरीबों के अधिकारों के लिए निशक्त निस्सहाय लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे जीवन भर।
उनके मन में बहुत स्पष्टता रहती थी। वो कभी भी घुमा कर बात नहीं करते थे। सीधी बात करते थे किसी को अच्छी लगे बुरी लगे किसी को चुभे ना चुभे। पर मैंने देखा कि वो बहुत घुमाकर बात नहीं करते थे। कम से कम मेरे साथ तो नहीं। मेरे साथ वो सीधी सी भाषा में बात करते थे। इससे मुझे लगता था वह एक ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी से डरता नहीं है। स्वामी अग्निवेश के अंदर डर नहीं था किसी का भी। चाहे कोई उन्हें कुछ भी कहे। मैंने उनसे पूछा कि स्वामी जी आपका जो व्यवहार है वो तो एकदम क्रांतिकारी है, और क्रान्ति भी एकदम अहिंसा और सत्य से जुड़ा जो गांधी का रास्ता है वो। लेकिन आपने फिर यह लाल कपड़े क्यों पहने है। आपको क्या जरूरत थी ये लाल कपड़े पहनने की तो कहने लगे कि इनसे क्या बिगड़ जाता है? मैं यदि इनको ना पहनूं तो क्या होगा? मैंने कुछ जवाब नहीं दिया फिर वो अपने आप अपनी व्याख्या करने लगे कि देखो मेरा जीवन आर्य समाज में पला बढ़ा हुआ और मैंने उसकी पालना की। फिर मैं ये भी बताना चाहता हूं कि ये लाल कपड़े पहनने से कोई व्यक्ति किसी एक समूह के साथ बंध जाएगा या एक छोटे ग्रुप के साथ बंध जाएगा ऐसा नहीं है। हम ये साधुओं के कपड़े पहन कर भी पूरी दुनिया से एक हो कर बात कर सकते है। तो उस तरीके से उन्होंने उनका जो देखने का नजरिया था दुनिया के बारे में, देश के बारे में, समाज के बारे में, उस नजरिए पर वो कोई समझौता नहीं करते थे। वो किसी को अच्छा लगे बुरा लगे वो सीधी सटीक बात है उसे कहने में कदाचित संकोच नहीं करते थे। उसी के कारण हम लोग आखिर के दिनों में बहुत मिलने लगे थे, बातचीत करने लगे थे।
90 के दशक में हमारे और उनके बहुत मतभेद थे। किन्हीं कारणों से उनको ये पानी का काम क्रांतिकारी काम नहीं दिखता था। जो मैं करता हूं, जो मैं प्रकृति के संरक्षण का जंगलों के संरक्षण का काम करता हूं ,उनको लगता था कि मैं ऐसा काम कर रहा हूं जिससे समाज को, गरीब को, निशक्त को न्याय नहीं मिलता। तो इस कारण मुझे लगता है हमारा और उनका बीच के दिनों में बहुत बोलचाल नहीं थे लेकिन आखिर के दिनों में जब वो बीमार थे, जैसे ही बीमार हुए तो मैंने उनको फोन करके पूछा और दुर्भाग्य से उन्हें कोरोना हो गया था। तो फिर कोरोना के कारण मैं निकल नहीं पाया अपने आश्रम से। उनको मिल नहीं पाया लेकिन जब मानव (स्वामी अग्निवेश के सहयोगी) ने मुझे जब ये बताया तो मैं स्तब्ध रह गया कि ये जो किडनी का रोग उन्हें कैसे हो गया वो तो बिल्कुल स्वस्थ दिखते थे।
स्वामी जी के साथ बाद के दिनों में मेरा सबसे गहरा रिश्ता हुआ। वो यह मानते थे कि पानी जो है वह सब का है यह किसी की प्रॉपर्टी नहीं हो सकता। ये पानी बाज़ार की चीज नहीं हो सकता और वो इस बात को बिल्कुल गहराई से मानते थे कि को जल है वह मानवाधिकार है। जल जीवन के लिए, सबके लिए मिलना चाहिए। इसके लिए इस पर हमारी बहुत पहले से ही एक मित्रता थी और फिर इसी विचार के कारण हमारे उनके रिश्ते और गहरे होते चले गए। फिर उनको भी ये समझने आने लगा था कि मानवता और प्रकृति दोनों बराबर ही है। यदि प्रकृति का वास होगा तो गरीब निशक्त निस्सहाय को ही इसका फायदा होगा। इसी कारण वो तरुण भारत संघ को एक तरह से बहुत प्यार करने लगे। बिहार में भी हम लोगों ने कई बार यात्रायें की। साथ में राजस्थान की यात्रा की।
तो एक तरह से स्वामी अग्निवेश अन्याय और अत्याचार के खिलाफ निर्भय होकर, निडर होकर, एक अनुशासित सन्यासी की तरह जीवन भर लड़ते रहे। इसी के कारण उनको बहुत सारे लोगों का गुस्सा और क्रोध भी झेलना पड़ा। उनके जाने का मुझे बहुत दुख है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि वो एक ऐसे इंसान थे जो सत्य को बोलने से नहीं झिझकते थे और जितना मैं उनको जानता हूं, मेरे साथ तो वह अहिंसा से आंदोलन करने में ही वह आगे रहते थे। बापू के जीवन में सत्य भगवान है और अहिंसा जीवन जीने के लिए जरूरी है। इसकी वो पालना करते थे और शायद इसी विचार के कारण बाद के दिनों में भी प्रकृति खासकर पानी के प्रति प्यार बढ़ गया था। इस काम को वो बहुत चाहने लगे थे इसलिए मैं उनके जाने पर बहुत दुखी हूं और यह मानता हूं कि उनको और जीना चाहिए था। वो जीते तो इस देश के भले के लिए इस देश में अन्याय अत्याचार के खिलाफ सत्याग्रह को बढ़ावा देने के काम में आगे बढ़ते।
भले ही वो बापू का अपने भाषणों में ज्यादा नाम नहीं लेते थे पर मैं उनके काम को एक तरह से ये मानता हूं कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ कमजोर से कमजोर व्यक्ति को खड़ा करने कि कला उनके अंदर थी। और निशक्त निस्सहाय को शक्तिशाली बनाने का उनके मन में बहुत विश्वास था।
इसलिए कभी कभी जैसे पांच सितारा होटल में मजदूरों को घुसा कर उन्हें वहां भोजन कराने का, उनके बड़े समाज को लेकर आने का – असमता, असमानता, असहाय और अत्याचार को रोकने के लिए वो किसी भी तरह आगे आने की कोशिश करते थे। मैं उनके जाने पर बस इतना ही कहना चाहता हूं कि जल के निजीकरण को रोकने कि लिए और नदी जोड़ कि योजना के बारे में उनकी बड़ी स्पष्ट राय थी। वो बड़े बांधो के खिलाफ और नदी जोड़ जैसे कामों के विरूद्ध थे। इस सब के चलते मेरा उनके साथ जो एक वैचारिक एकजुटता थी उस वैचारिक एकजुटता में मेरा विचार है कि उनका ऐसे वक़्त में ज्यादा जीवन जीना सबके लिए, भारत और पूरी दुनिया के लिए अच्छा होता।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं।
– प्रस्तुति: लता
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