– रमेश चंद शर्मा*
पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा जी के अनेक प्रेरणास्त्रोत रहे। वनाधिकारी उनके पिता अंबा प्रसाद बहुगुणा जिनका देहावसान इनके बचपन में ही हो गया। गंगा के प्रति अगाध श्रद्धा पिताजी से विरासत में मिली। मां पूर्णादेवी ने कड़ी मेहनत करके परिवार का पालन-पोषण किया। हिम्मत, कष्टमय जीवन से नहीं घबराना, खूब मेहनत, परिश्रम करने का संस्कार मां से मिला। गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी देव सुमन (सुमन जी के नाम से प्रसिद्ध) का बड़ा प्रभाव पड़ा। आजादी एवं गांधी विचार के बारे में इनसे सीख मिली।
9 जनवरी, 1927 को टिहरी के एक बहुत ही छोटे से गांव मरोरा में जन्में बच्चे का नाम सुंदरलाल बहुगुणा रखा गया जिसका बचपन बहुत ही संघर्ष पूर्ण रहा। शिक्षा के लिए दूर-दूर जाना पड़ा, लाहौर, लायलपुर आदि। अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़े। लिखने पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा। वे जितना जमीन से जुड़े रहे, उतना ही कलम से भी। ताउम्र हिमालय की सेवा, साधना में सादगी, सरलता, सहजता, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प, समझदारी, समर्पण से लगे रहे।
हिमालय में सक्रिय रही गांधी जी की शिष्या सरला बहन (जो अपने को विश्व नागरिक मानती थी) की शिष्या बिमला बहन के सुंदरलाल बहुगुणा के जीवन में आने के बाद इनकी सोच, विचार, जीवनशैली और अधिक प्रखर बन गई। विमला बहन ने जिस निष्ठा, भावना, समर्पण से जीवन भर साथ निभाया, इनका ध्यान रखा ऐसे कम ही उदाहरण मिलते हैं। बहुगुणा जी के काम में श्रीमती बिमला बहन का विशेष महत्व, योगदान रहा है।
21 मार्च, 2021 की देहरादून में दर्शनार्थ मुलाकात बहुगुणा जी से अंतिम मुलाकात बन जाएगी ऐसा नहीं सोचा था। इस मुलाकात में उन्होंने एक कविता भी सुनाई। बहुत देर तक उनके आशीर्वाद, आशीर्वचन प्राप्त हुए। वैसे हिमालय के साथ साथ देश, विदेश में भी उनके दर्शन का लाभ मिला। सभा, सम्मेलन, बैठक, पदयात्रा, यात्रा, विभिन्न कार्यक्रमों में मिलने का सहज अवसर मिलता रहा।
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एक प्रसंग याद आ रहा है। कुछ समय पूर्व भी एक बार देहरादून में युगल बहुगुणा जी के दर्शनार्थ गया था। बा बापू 150 के बारे में अलीगढ़ से प्रकाशित हमारी धरती का बा बापू 150 विशेषांक भेंट करके आनंद की अनुभूति हुई। यह खुशी और बढ़ गई जब बिमला बहन बहुगुणा जी ने इसमें लिखी सामग्री, प्रसंगों की चर्चा करनी शुरू की। उन्होंने हमारी पोती आशी का नाम लेकर पूछा कि वह कैसी है। आशी का नाम इन्हें कैसे याद है, इसका खुलासा इस पत्रिका में लिखे एक प्रसंग को सुनकर हुआ। आयु के इस पड़ाव पर भी अध्ययन, स्वाध्याय जारी है, अद्भुत, अच्छा लगा। नई पीढ़ी को इससे सीख मिल सकती है।
बातचीत में एक दुख भी झलक पड़ा। आयु के कारण आना जाना कम हुआ ही था, ऊपर से इस माहौल ने साथियों से मिलने का अवसर और कम कर दिया। देश भरकर के साथियों के बारे में चिंतन, मनन, विचार करना। उनको याद करना। उनके बारे में पूछताछ करना। उनके बारे में जानकारी करना। बिमला बहन की सक्रियता देखकर तो बहुत ही अच्छा लगा।
इस युगल के कितने ही प्रसंग है जो यादों में घूम रहे हैं। टिहरी बांध परियोजना के खिलाफ हिम गंगा कुटी पर उपवास चल रहा था। हमने सपरिवार इसमें शामिल होने का तय किया। आंदोलन में शामिल तो हुए ही साथ ही साथ क्षेत्र में भी जाने का कार्यक्रम बनाया और लोकजीवन विकास भारती, बूढ़ा केदार बिहारी लाल भाई के क्षेत्र तक पहुंच गए। आंदोलन के प्रचार-प्रसार के साथ साथ साथियों से मिलने जुलने का सुखद अनुभव भी हुआ।
मिट्टी पानी और बयार,
यह है जीवन के आधार।
पेड़ की खेती करो, खूब पेड़ लगाओ,
पानी, वायु, खाद, चारा, फल, ईधन पाओ।
पेड़ काटे जाएंगे तो हिमालय की मृदा, मिट्टी बहकर नदियों का स्वास्थ्य खराब करेगी। वर्षा की प्रक्रिया प्रभावित होगी। हिमालय में कटाव, भूस्खलन होंगे। हिमालय में जल संकट उत्पन्न होगा। हिमालय बंजर, उजाड़ बनेगा, प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। हिमालय के साथ साथ देश के बड़े हिस्से को समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। ग्लेशियर प्रभावित होंगे, बहेंगे, टूटेंगे, पीछे जाएंगे। जो तबाही के कारण बनेंगे। नदियां प्रभावित होगी।
बांधों के खिलाफ बात ही नहीं की बल्कि समाधान भी प्रस्तुत किया कि हर खाले पर बहते पानी से बांधों से ज्यादा बिजली प्राप्त की जा सकती है, वह भी बिना किसी खतरे के। बहुत कम खर्च में। हर गांव स्वावलंबी बन जाएगा। अनाज पीसने, तेल निकालने, लकड़ी चीरने, औजार आदि बनाने के लिए खराद भी चलाई जा सकती है।
शराब बंदी, छुआछूत, सार्वजनिक सामाजिक जनहित के मुद्दों से जुड़े रहे, चिपको, खदानों के खिलाफ, हिमालय बचाओ, बांधों का विरोध, नदियां बचाओ जैसे अनेक आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। जिसकी देश विदेश में आवाज बुलंद हुई।
उन्होंने हिमालय में लंबी-लंबी पदयात्राएं की। एक गांव से दूसरे गांव, एक शहर से दूसरे शहर, एक जिला से दूसरा जिला, एक राज्य से दूसरे राज्य, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी। श्रीनगर, कश्मीर से कोहिमा, नागालैंड तक की पदयात्रा लगभग 5000 किलोमीटर और डेढ़ साल से अधिक का समय। कल्पना करने पर ही मन कहीं कहीं पहुंच जाता है।
पदयात्रा एक सशक्त माध्यम है। जन जन तक संदेश पहुंचाने, देश दुनिया को जानने, समझने, सीखने-सिखाने का एक मजेदार मार्ग। जिसका पूरा अनुभव खुद पदयात्रा करके ही लिया जा सकता है। यात्रा खुला शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान है।
उन्हें मिले पुरस्कारों की चर्चा करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा। वे पुरस्कार से बहुत ऊपर उठ चुके थे। कुछ पुरस्कार लेने से खुद ही मना कर दिया। ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा इंसान ही इतनी सादगी सरलता सहजता स्पष्टता संवेदना संकल्प समझदारी से जीवन जीने की हिम्मत रख सकता है। बच्चों, बड़ों, छात्रों, शिक्षकों, महिलाओं, पुरुषों, पढ़ें लिखे, अनपढ़, शहरी, ग्रामीण, कार्यकर्ता, अधिकारी, नेता, धार्मिक, राजनीतिक, व्यापारी, ग्राहक, कम, ज्यादा, गांव की स्थानीय, अंतर्राष्ट्रीय किसी के मध्य भी वे उसी सहजता सरलता से अपनी बात रखते थे। जो लोग उनके इस स्वभाव से परिचित नहीं थे उनको यह सब देखकर आश्चर्य होता था।
ऐसे व्यक्ति का जाना एक विशेष रिक्तता पैदा करता है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।