– रमेश चंद शर्मा*
ग्राम स्वराज्य अभियान, सहरसा, बिहार
ग्राम स्वराज्य अभियान, सहरसा, बिहार को सर्व सेवा संघ ने राष्ट्रीय अभियान घोषित किया था। इसमें देश भर के कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। विभिन्न प्रदेशों के वरिष्ठ से लेकर नए कार्यकर्ताओं के दल इसमें भाग लेने के लिए पहुंचे थे। दिल्ली से गई टीम में अपन भी शामिल थे। आयु के हिसाब से अपन जवान मगर जिम्मेदारी मिल गई दस्तावेज देने की। वो भी पूरी तरह से अपने ही कन्धों पर। इसके लिए विनोबा आश्रम में अपने को कार्यालय एवं रहने के लिए अलग से एक पूरा कमरा दिया गया। इसमें अपन लम्बे समय तक रहे। कार्यकर्ता या कार्यकर्ताओं की टीम जब क्षेत्र में जाते तो उनको साहित्य, ग्राम सभा, ग्राम कोष, ग्रामदान, ग्राम स्वराज्य से सम्बंधित कागजात, काम आने वाली सामग्री एक थैले में रखकर देनी होती थी।
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इसमें वरिष्ठ, युवा, भाई, बहन, स्थानीय, बिहार के बाहर से आए साथी सभी शामिल थे। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, असम, तमिलनाडु, आन्ध्र, पंजाब, हरियाणा, केरल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, कर्नाटक आदि के साथी शामिल थे। मुंबई से अनेक लोग आए थे। जैसा मुझे याद आ रहा है तुलसी भाई, कुसुम बहन तो अपने छोटे बच्चे आशीष को लेकर आई थी। यह सबका खिलौना, सबका ध्यान अपनी और खींचता। खूब सक्रिय, कुछ भी करने लगता। कुछ वरिष्ठ साथी क्षेत्र तय, निश्चित करके वहां बैठ गए थे। अभियान के माध्यम से बैठक, गाँव सभा, सम्पर्क, संवाद, शिविर, आदि चल रहे थे।
देश के चुने हुए सर्वोदय के प्रमुख, वरिष्ठ साथी बिहार के तो लगभग सभी वरिष्ठ साथी इसमें शामिल थे। सर्वश्री जयप्रकाश नारायण, विमला बहन ठकार, राजाबाबू, आचार्य राममूर्ति, सिद्धराज ढडडा, ठाकुर दास बंग, धीरेन्द्रदा, जगन्नाथनजी, कृष्णाम्मा, लवणम, चुन्नी काका, गोविंदराव देशपांडे, मनमोहन चौधरी, चारुदा, बिमल पाल, निर्मला देशपांडे, महेंद्र भाई, रुकमनी बहन, रामचन्द्र भार्गव, विनय भाई, बाबू बैद्यनाथ चौधरी, महेंद्र संत, तपेश्वर भाई, राधाकृष्ण बजाज, इंदु बहन, कांति भाई, विद्यासागर भाई, प्रकाश भाई, अच्युत काका, टी के सोमैया, हरिवल्लभ पारीख, बृजमोहन शर्मा, जगदीश शाह, हरविलास कांता बहन, नारायण देसाई, द्वारकों सुन्दरानी, कृष्णराज मेहता, शिवानन्द भाई, सरला बहन जैसे नामी गिरामी लोगों का जमावड़ा काम में लगा हुआ था। सबका नाम लिखना संभव भी नहीं है और यादगार भी जवाब दे जाती है।
अपना कुछ समय कार्यालय में जो अपने को मुख्य काम सौंपा गया था उसके लिए था, मगर अपन क्षेत्र में जाने का मौका जरुर निकाल लेते। आसपास की शिक्षण संस्थाओं, गांवों, कस्बों में जाना। इनके लिए समय निकल ही जाता था। निर्मला बहन घोघरडीहा में नौजवानों की टीम लेकर बैठी हुई थी, वहां जाने पर खूब अच्छा लगता। इस तरह एक क्षेत्र के बजाय अपने को पूरे क्षेत्र में जाने का मौका मिला।
तपेश्वर भाई भी मजे में गाते थे। उनके छोटे भाई फुलेश्वर शम्भूजी से अपनी अच्छी पटरी बैठ गई। वे प्रसिद्ध गीतकार लल्लनजी के डेरे में रहते थे। अपना भी उनसे सम्पर्क हो गया। उनके घर सीतामढ़ी भी जाना हुआ। तपेश्वर भाई के घर गाँव में तो होली के समय कई दिन रहा। नेपाल यात्रा का भी आनंद उठाया। सहरसा में उस समय टीन सेड में सिनेमा चलता था। बिहार में यात्रा का बड़ा मजा था, रेल, बस सबमें छत पर बैठकर यात्रा करना आम बात थी, चाहे नीचे, अंदर सीट खाली हो। कुछ छात्रों को तो जैसे विशेषाधिकार प्राप्त थे, मुफ्त यात्रा करने के। बस में तो कभी हद ही लगती, जब टिकट मांगने पर उन्हीं से वापिस जलपान के पैसे की मांग छात्र करते। छत पर बैठे है, कमाते नहीं पैसा कहां से देंगे। मुफ्त यात्रा अपन को भी जबरदस्ती उनके दवाब में करनी पड़ी। उनका तर्क था अगर अपन ने पैसे दिए तो यह हम सबसे भी मांगेगा, इसलिए चुपचाप बैठे रहो नहीं तो बस से उतर जाओ। वह छत पर अपनी ओर आएगा ही नहीं।
सहरसा क्षेत्र का दही तो गजब है, इतना चिकना, गाढ़ा अच्छी मात्रा में चाहे हथेली पर रखकर लो, नीचे गिरने का नाम ही नहीं। खाने में भी स्वादिष्ट। दही चूड़ा खाने का अपना ही आनंद है, दही ज्यादा चूड़ा कम, के साथ में मीठा, केला, आम आदि। अपन को तो इतना जमता था कि कई बार अपन तो भोजन में भी इसकी मांग कर लेतेI भात से ज्यादा तो यही अच्छा लगता। दिन में एक बार तो अपन को जरुर ही खाना होता। भात खाते समय कभी कोई कंकड़ आ जाता तो बताने पर सुनना पड़ता भात को भी चबा रहे हो।
इसी प्रवास में अपना संपर्क महादेव विद्रोही और कुमार कलानंद मणि से हुआ। दोनों एम पी जिला स्कूल में पढ़ते थे। अपन जब तक वहां रहे कई बार मिलना हुआ। कई बार विनोबा आश्रम में अपने कमरे में ही रह जाते। दिल्ली आने के बाद लम्बे समय तक परस्पर पत्र व्यवहार चला। आज भी उन पोस्ट कार्ड की याद आती है। अपन अभी भी यदा कदा पोस्ट कार्ड का प्रयोग करते है। पहले तो थोक के भाव लिखता था। सहरसा में अनेक साथियों से सम्पर्क हुआ, कुछ का संपर्क अभी भी बना हुआ है, कुछ की याद बनी हुई है। कुछ समय के साथ कहा से कहा पहुँच गए मालूम ही नहीं है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक है।