रविवार पर विशेष
विद्यालय संसद
-रमेश चंद शर्मा*
शिक्षण संस्थाओं में लोकतंत्र, संसदीय प्रणाली का ज्ञान छात्र छात्राओं को प्रारंभ से ही हो इसके लिए स्कूलों में मोक पार्लियामेंट की योजना चलाई गई थी। जिसके अंतर्गत बच्चों की नकली संसद चलती थी। संसद की नकल की जाती थी। कक्षाओं में चुनाव की प्रक्रिया चलती थी, जिसमें सांसद चुने जाते थे। चुने हुए सांसद प्रधानमंत्री को चुनते और प्रधानमंत्री मंत्री मंडल बनाता। इसके लिए दो दल बनाए गए। हमारे विद्यालय में इतिहास के अध्यापक को चुनाव अधिकारी बनाया गया। उन्होंने चुनाव की घोषणा की जिसमें दो दल चुनाव लड़ेंगे, नामांकन भरने, नाम वापिस लेने, चुनाव की तिथियाँ लिखी थी। एक हलचल शुरू हो गई। कुछ अध्यापकों ने अपनी पसंद के बच्चों को प्रधान मंत्री बनाने की बात भी करनी शुरू कर दी। इसी मध्य हम कुछ छात्रों ने संसद में निर्दलीय सांसद भी होते है, यह चर्चा शुरू कर दी। एक प्रतिनिधि मंडल बनाकर चुनाव अधिकारी से मिले, जिसके परिणाम स्वरूप नया परिपत्र जारी हुआ। निर्दलीय भी चुनाव में खड़े हो सकते है। अब सवाल उठा की निर्दलीय उम्मीदवार कौन बने। दो दलों के मार्गदर्शन के लिए तो शिक्षक नियुक्त थे मगर निर्दलीय के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। जो बोले सो ही कुंडी खोले के अनुसार मामला अपन के सिर पर आ पड़ा।
अब बच्चों ने ही अपना समूह बनाकर चुनाव की तैयारी शुरू की। दोनों दलों के शिक्षकों के मार्गदर्शन में चुनाव में खड़े होने वालों की सूची घोषित हुई। दलों को चुनाव निशान मिले। निर्दलीय के नाम पर एक ही उम्मीदवार जिसका कोई धनि ना धोरी, उसके साथ केवल छात्र थे। अंत में जिसका कोई नहीं उसका राम और एक शिक्षक हिम्मत कर इस समूह के अनधिकृत ढंग से मार्ग दर्शक बन गए। जिन शिक्षकों के पसंद के छात्रों को उम्मीदवार नहीं बनाया गया, वे खुश नहीं थे। वे भी निर्दलीय के पक्ष में माहौल बनाने लगे। पर्चा भरने का समय समाप्त हो गया था। शिक्षकों की कृपा से दोनों दलों के उम्मीदवार चुनाव मैदान से हट गए और इसकी जानकारी किसी को नहीं हुई। जब अंतिम सूची आई तो निर्दलीय उम्मीदवार के सामने कोई उम्मीदवार था ही नहीं। यह था शिक्षकों का विरोध कदम। बिना वोट पड़े ही अपन जीत गए थे, बिल्ली के भाग्य से छीका टूटा।
यह भी पढ़ें : शहरी जीवन : दबंग की जोरू सबकी दादी
चुनाव पूरा हुआ, दोनों दलों के उम्मीदवारों में एक का अंतर था, मामला उलझ गया। बिना निर्दलीय की सहायता के सरकार नहीं बन सकती थी। असंतुष्ट शिक्षक राजनीति के खिलाडी बन गए। तरह तरह के प्रस्ताव आए, कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। छात्रों से ज्यादा राजनीति शिक्षकों में दिखाई दे रही थी। नकली संसद का यह हाल है तो सत्ता, शक्ति, धन बल, सम्मान, नाम, प्रतिष्ठा की जगह क्या होता होगा। ऐसे बताने वाले शिक्षक भी मौजूद थे। राजनीति के विविध रूप देखने, समझने का सुंदर अवसर मिला।
अपन मोहरे बने हुए थे। राजनीति के केंद्र में अपन थे, मगर नकेल, निर्णय अपने हाथ में कुछ नहीं। मजेदार खेल के पासे बनकर अपन शटल की तरह इधर से उधर ले जाए जाने लगे। अंत में कुल मिलाकर तय यह हुआ की अपन को गृह मंत्री का पद संभालना है। सबको शपथ लेनी थी, शपथ समारोह हुआ। चुनाव में पर्चा भरना, नाम वापिस लेना, उम्मीदवारी की घोषणा, चुनाव प्रचार का नाटक, भाषण बाजी, कक्षा बैठक, पूरे विद्यालय की सभा, इकलौते निर्दलीय के कारण अपन को लगभग तीसरा दल जैसा माना जाना, इसलिए अपन ने भी सभा में भाषण दिया, जिसके ज्यादातर मुद्दे शिक्षकों ने बताए थे, मतपत्र, मतदान, मतदान की गिनती, चुनाव परिणाम, विजय का हंगामा, सरकार बनाने की जुगाड़, संख्या बल पूरा ना होने पर जोड़ तोड़ का नाटक, नेता का चुनाव, शपथ समारोह, प्रधानमंत्री का चयन, मंत्री मंडल का गठन, सत्र, राष्ट्रपति का भाषण, धन्यवाद प्रस्ताव, और फिर सत्रों का आयोजन, बहस, चर्चा, बिल, बजट पास करना, संसदीय कमेटी बनाना, पक्ष, विपक्ष के खेल, टांग खिंचाई, संसद से बाहर निकालना, सत्र का, संसद का बहिष्कार जैसे नाटक शिक्षकों की देख रेख में होने लगे। मजा तो खूब आता, तैयारी में समय भी जाता।
याद आता है सांसद सेठ गोविंद दास ने अपनी ही सरकार का हिंदी के मामले में संसद में विरोध किया था। ऐसा दृश्य हमारी नकली संसद में भी पेश हुआ। नाटक अच्छा चल रहा था। राजनैतिक समझ जानने का अवसर मिला। अब भी अपन को लगता है, ऐसे प्रयोग उपयोगी है, होने चाहिए। सावधानी, सतर्कता, सार्थकता, सकारात्मकता को जरुर ध्यान में रखना होगा। पुस्तकों के बोझ के स्थान में ऐसे उपयोगी प्रयोग होने चाहिए। इनको शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना होगा। जीवन उपयोगी शिक्षा बनें। नए नए उपयोगी प्रयोग जोड़े जाए।
इसी योजना से हमारी विद्यालय छात्र संसद निकली, जो एक शिक्षक के मार्गदर्शन में चलती थी। विद्यालय के कुछ कार्य करने के लिए इसको अधिकार भी दिए गए। एक काम था विद्यालय के बाहर से आने वाले किसी भी व्यक्ति के कार्यक्रम का आयोजन विद्यालय संसद की आज्ञा से ही संभव था। छात्र निर्णय करना सीखें, इसके लिए यह व्यवस्था बनाई गई होगी। इसमें कोई खर्च का सवाल नहीं था। मोक संसद को ही विद्यालय संसद मान लिया गया था। इसलिए अपन गृहमंत्री के नाते विद्यालय संसद में मुख्य जिम्मेदारी निभाने लगे। इस प्रक्रिया में शामिल होने, तथा अपनी रुचि होने के कारण अनेक नेताओं से मिलना, बातचीत, सुनना भी हुआ। संसद को अंदर से देखने, जानने, समझने को भी मिला। विश्वास बढ़ा, जानकारी हुई, कुछ करने की रुचि जागृत हुई। अपन को इसमें शामिल होने तथा गृहमंत्री की जिम्मेदारी निभाने का अवसर मिला। इससे कई व्यवस्थाएं जानने, सीखने का मौका मिला। जीवन का यह सुनहरा मौका रहा। इस प्रक्रिया में पूरी सक्रियता से भागीदारी की, जिसका लाभ अभी तक महसूस करता हूं।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।