– रमेश चंद शर्मा*
जब डर के कारण साहब जी की सिटी-पिट्टी गुम हो गयी
दिल्ली विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय सेवा योजना, एनएसएस का मुख्य कार्यालय दिल्ली समाज कार्य विद्यालय, जो दिल्ली विश्वविद्यालय का समाज कार्य विभाग है, से चलता था। प्रो. डॉ. एस एन रानाडे, डॉ. पी एल गोविल के मार्गदर्शन में इसका काम चलता था। राष्ट्रीय स्तर पर प्रो. एल आर शाह, कर्नल दयाल आदि जुड़े थे।राष्ट्रीय सेवा योजना की प्रारम्भिक बैठकों में गाँधी शांति प्रतिष्ठान के कारण अपन को भी बैठने का अवसर मिला।कभी प्रतिष्ठान में तो कभी विश्व युवक केंद्र में, या कहीं और सर्वश्री कृष्णा स्वामी, एस एन सुब्बाराव, देवेन्द्र भाई, राधाकृष्णजी के साथ जाना होता। इस प्रकार इससे संबंध बनता गया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने हिमालय में द्वारसों, कुमांऊमें अल्मोड़ा रानीखेत मार्ग पर एक शिविर का आयोजन किया। दिल्ली से काठगोदाम तक बड़ी बस में यात्रा हुई। काठगोदाम से द्वारंसों तक के लिए पहाड़ में चलने वाली रोडवेज की छोटी बसों का इंतजाम था। सुनते थे कि मैदान के ड्राईवर को पहाड़ में गाड़ी चलाना कठिन होता है। छोटे छोटे घुमावदार मोड़, कभी ऊँचाई, कभी ढलाई, कम चौड़ी सड़क इसके कारण है।हर बस में छात्र छात्रा, शिक्षक, स्थानीय साथी रहें, यह व्यवस्था की गई। साथ ही यह बताया गया की बसें साथ साथ चलेगी, दूरी बढ़ने पर अगली बस रुककर इंतजार करेगी। हमारे साथ कुमांऊ के रहने वाले प्रो. एच बी जोशी भी साथ थे। हर कदम पर उनका मार्गदर्शन मिलता रहता था। बस में सभी गाते, बजाते, शोर मचाते, हल्ला गुल्ला करते, पहाड़ियों का आनंद लेते मजे से यात्रा चल रही थी। हरे भरे ऊंचे नीचे मनमोहक दृश्य देखने को मिल रहे थे। किसी किसी को चक्कर आ रहे थे, कोई उल्टी भी कर रहा था।
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कुछ दूर जाने पर मालूम हुआ की एक ड्राईवर नशे में है और बस चलाते समय सावधानी भी नहीं बरत रहा है। बीच बीच में पीछे देखकर बातें करने लगता है। सारा मजा किरकिरा हो गया। अब इस स्थिति में बसें रोककर तय हुआ कि इस बस में लड़कों को बिठा दिया जाए। ऐसा करने पर ड्राईवर ने बस चलाने से इंकार कर दियाI बीच रास्ते में कुछ किया नहीं जा सकता था। दूसरी बस का ड्राईवर बहुत ही समझदार था। उसने कुछ सुझाव रखे, उस ड्राईवर को समझाने का प्रयास किया मगर सब बेकार गया। समय बीतता जा रहा था, अँधेरा होने का डर भी सता रहा था। अब क्या होगा इसकी चिंता आयोजकों को सताने लगी। छात्रों में अनेक ऐसे भी थे जिनको कोई चिंता नहीं थी, वे किसी भी स्थिति का सामना करने की बात कर रहे थे। रात होने पर जंगली जानवरों का डर भी था। कुछ दूर जैसे तैसे करके बसें चली भी मगर आखिर में ड्राईवर बेबस होकर गहल, नींद में भरकर लुढ़कने लगा। अब तो रोकने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। अलग अलग सुझाव आने लगे। कोई कहता छात्राओं, शिक्षिकाओं को एक बस में आगे भेज दिया जाए, किसी का कहना था, नहीं सबको साथ ही चलना चाहिए। एक सुझाव आया कि जो भी पास में गाँव पड़ता है, वहां रात बितानी चाहिए। मगर सवाल यह भी था कि इतने ज्यादा लोगों के लिए इंतजाम कैसे संभव होगा। खाना और सोना दोनों ही का इंतजाम अचानक नहीं हो पाएगा। तभी एक मोटर साईकिल आई, उससे सहयोग लेकर नजदीक के डिपो पर जाकर नया ड्राईवर लाया गया और अँधेरे में ही शिविर स्थल पर पहुंचे।
शिविर में एनएसएस कार्यालय के एक ऐसे व्यक्ति भी थे, जिनसे ज्यादातर लड़के चिढ़ते थे।लड़कों को बात बेबात डांटना, कुछ भी कहना। वैसे बड़े मनचले स्वभाव के थे। उनको कार्यालय से आए हैं, यह भी अहंकार मन में होगा। अन्य शिक्षकों, वरिष्ठों के मुकाबले उनको सम्मान भी कम मिलता था। शिविर स्थल गाँव के बाहर एकांत में था। सड़क के पास मगर खेत, जंगल की ओर। सामने घाटी नजर आती, नज़ारे तो गजब के दिखते। रात को आसमान के तारे अपनी छटा बिखेरते, पहाड़ी का सूनापन कानों में गूंजता। दिल्ली से एकदम भिन्न वातावरण, मौसम, जलवायु, रहन सहन। ठंडा मौसम, रात को कंपकंपी छूटती। गर्म कपड़े दिन में भी पहनने पड़ते।
कुछ लड़कों ने मिलकर इनको सबक सिखाने की योजना बनाई। एक योजना बनी की रात को सोते हुए इनकी चारपाई को सावधानी से चुपचाप उठाकर बाहर मैदान में रख दिया जाए। इसके लिए मजबूत मजबूत जवानों का चयन हुआ। उनके चेहरे ऐसे ढकने हैं, जिससे उनके चेहरे के साथ कपड़े भी नजर ना आएं। ऐसी व्यवस्था सोची गई। कुछ लोग दरवाजे के पास तैयार खड़े रहे, जिससे अगर जाग हो जाएं तो वे एक साथ बाहर दौड़े, इनका पीछा करें। कुछ दूर जाने पर जिनके चेहरे ढके हुए थे, वे अपना चेहरा खोले और यह कहते हुए वापिस आए कि वे लोग जंगल की ओर भाग गए। सर आप कहें तो हम टॉर्च लेकर उनका पीछा करें। अगर योजना सफल हो जाए तो इनको और ज्यादा कैसे डराया जाए। इसके लिए योजना बनी। बहुत देर से सोने के कारण यह जल्दी ही गहरी नींद में चले जाते है। इसका अहसास हो गया था। दिन में कुछ उल्टी सीधी बातें डर की भी इनको सुनाने का प्रयास कुछ छात्राओं के माध्यम से किया गया। यह बातें गाँव वालों से सुनी है, यह बताया गया।योजनानुसार यह आपरेशन शुरू हुआ और सफल रहा। डर के कारण साहब जी की सिटीपिट्टी गुम। इस घटना के बाद उनका व्यवहार बदला बदला नजर आने लगा। मजे लेने के लिए उनसे पूछते सर जब आपकी चारपाई उठी तब आपने आवाज लगाकर हमें क्यों नहीं बुलाया। हम उनको सबक देते। सर जी, अब हम रात को ज्यादा सावधान रहेंगे।
इसका एक फायदा हुआ कि जनाब समय से पहले ही बिस्तर पर जाने लगे। रात को बाहर निकलने से डरने लगे। शिविरार्थियों को कुछ ज्यादा आज़ादी मिल गई। अब रात को कुछ लोग देर तक बाहर का नजारा देख सकते थे। बाहर बैठकर बातचीत, गपशप करते, थोडा बहुत घूम सकते थे। इसके बाद लड़कों के हौसले बुलंद थे। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी मजे से होने लगा। शिक्षक तो पहले से ही छात्रों के साथ थे। यह जो बात बात में अपनी धाक जमाते थे, उसमें जरुर असर पड गया।
हिमालय दर्शन, रानीखेत, अल्मोड़ा देखने का अवसर, घूमना फिरना, आडू, खुमानी, काफल सहित पहाड़ी फलों, बाल मिठाई, सिंघोड़ी का स्वादिष्ट आनंद एवं घर तक लाना। इस शिविर की सबसे ज्यादा बड़ी बात रही।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।