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रविवार पर विशेष
दिल्ली के कूचे, छत्ते, कटरे, गलियां
-रमेश चंद शर्मा*
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गांव से चलकर जब मैं पहली बार दिल्ली पहुंचा। मन में एक ओर कुछ सपने, कुछ कल्पनाएं थी। दूसरी ओर कुछ शंकाएं, सवाल अपने सामने खड़े थे, जिनका सामना मुझे अगले कुछ दिन करना था। अपनी यह तैयारी तो गांव से ही मन ने संकल्प सहित कर ली थी कि जो भी स्थिति हो अपने को उसका मुकाबला हर हालात में करना ही है।
दिल्ली जंक्शन रेलवे स्टेशन पर उतरकर पुरानी दिल्ली की खारी बावली में कूंचा चेलान में रहने की व्यवस्था थी। एक छोटा कमरा जिसमें बिजली भी नहीं थी। अंदर गली में चलकर जाना पड़ता था। कमरे के कुछ मकानों के बाद गली बंद है। कूंचे में प्रवेश करने के लिए बड़ा गेट था। शुरु में कुछ दुकाने थी, जिसमें पान की, पनवाडी की, पेठे की, डाक्टर की, हलवाई की, नाई की, चाय की, सुनार की, कोयले की, स्टेशनरी की, पुस्तकों की, धूप, अगरबत्ती की, ज्योतिषाचार्य की, छपाई मशीन की, कटिंग एवं जिल्दसाजी की दुकान के साथ साथ कुछ गोदाम थे।
गली में तीन मंदिर, लक्ष्मी कन्या माध्यमिक एव॔ उच्च विद्यालय के दो भवन, एक मुनिमाई की छोटी पाठशाला, बिजली के हीटर, टोस्टर का कारखाना, एक सार्वजनिक कुआं था। व्यक्तिगत कुएं, हैंडपम्प, नल अनेक घरों में थे। गली कई हिस्सों में बंटी हुई थी। लक्ष्मी माध्यमिक कन्या विद्यालय के पास मुख्य गली में एक ओर पहला मोड़ पड़ता था, जहां गली में छत्ता बना हुआ था। इसमें दरवाजा भी लगा हुआ था। इसमें कुछ गिने चुने घर थे। दूसरी ओर भी एक ओर मोड़ था, यह गली कुछ लंबी थी। इसी गली में कोयले की दुकान होती थी। इसके मोड़ पर एक ओर नाई की तथा दूसरी ओर सुनार की दुकान होती थी। मुख्य गली में आगे बढने पर लक्ष्मी उच्च विद्यालय का भवन उसके सामने कांच वाला मंदिर इसकी बगल में एक छत्ता, इसमें भी गिने चुने मकान थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर फिर एक छोटी गली जहां कोने पर धूप अगरबत्ती की दुकान उसके ऊपर एक मंदिर। पास ही ज्योतिषाचार्य की दुकान उसके सामने सुबह तीन घंटे के लिए वाचनालय चलता था, जहां अनेक समाचार पत्र उपलब्ध रहते। इस मोड़ पर एक ओर कुआं तथा दूसरी ओर हाथीखाना था जहां अब एक छोटी सी पाठशाला, बिजली का छोटा कारखाना था। कुएं के ऊपर एक गोपालजी का मंदिर था, जिसमें समय समय पर धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे जिसमें देश भर से अच्छे विद्वान, कथाकार, गायक, संत, महात्मा, शंकराचार्य, करपात्री महाराज, व्यास जी जैसे प्रकाण्ड विद्वान भी आते थे। आगे बढ़कर मंदिर के पीछे एक छोटी गली तथा दूसरी ओर भी गली मुड़ती जिसमें आगे भी दो मोड़ थे। इस प्रकार गली का मुख्य दरवाजा बंद होने पर किसी का भी आना जाना बंद। अब कोई आना चाहे तो अन्य कटरो, गली से छत से कूदकर ही आ सकता था, या तम्बाकू कटरे की एक बहुत बड़ी गद्दी वाली कोठी का दरवाजा गली में भी खुलता था। यह मार्ग केवल जानने वालों के लिए ही सुगम था।
पुरानी दिल्ली की अपनी ही मजेदार जिन्दगी है। गली में गली, छत्ते में छत्ता, कटरे में कटरा, कूचे में कूंचा, बाजार में बाजार, दुकान में दुकान। कहां से कहां पहुंच जाएं, जानकारी होनी चाहिए। एक मकान से दूसरा मकान ऐसे जुड़ा हुआ है कि छत से छत पर होते हुए आप कहीं से कहीं पहुंच जाएँ, किसी को मालूम ही नहीं पड़ता । कई कटरे, कूचे, छत्ते, गलियां पार हो सकती है।
यहां आकर मालूम पड़ा कि स्कूल, घर से अलग भी पढ़ाई के लिए ट्यूशन भी होती है। खेल के लिए गांव, कस्बे की तरह स्थान सहज उपलब्ध नहीं है, दूर जाना पड़ता है।
सफाई व्यवस्था
पुरानी दिल्ली में शौच जाने के लिए तो बडी कठिनाई से भी मैदान, जंगल, खेत नहीं मिलेगा। रेलवे लाइन तो पूरे देश में ही इस कार्य के लिए बहुत उपयोग की जाती है, या फिर जमना, यमुना नदी को पार करो। दिल्ली देहात की बात अलग है। पुरानी दिल्ली में भी सभी घरों में फ्लश नहीं था। ज्यादा उठाऊ, कमाऊ शौचालय ही थे। गट्टर, ड्रेनेज सिस्टम तो था, मगर सभी घर उससे जुड़े हुए नहीं थे। कुछ ईंटे रखो ओर शौचालय तैयार। थोडा सुविधाजनक बनाना है तो ऊपर बीच में कटा हुआ पत्थर रख दो। किसी किसी में नीचे ट्ररें, बाल्टी, बर्तन भी रखा जाता था। जहां स्थान और सुविधा उपलब्ध होती उसमें तीन ओर ईंटे लगाकर पीछे की ओर से कमाने के लिए खुला स्थान रखा जाता। इसमें सामने से शौच नजर नहीं आता था। सफाई के लिए मेहत्तर, मेहत्तरानी आते, इनके इलाके, घर बंटे हुए होते। इनको बदलना आसान नहीं था। अपने जजमान को वे खुद दूसरे को दे सकते थे। दहेज में, ठेके, ब॔टाई पर भी जजमानों की अदला बदली होती थी। सिर पर मैला उठाने जैसी अमानवीय घटना को भी सामान्य सी बात माना जाता था। मैले को खत्ते में डालकर खाद बनाया जाता था, जिसे किसान खरीदते थे। नहा धोकर मेहत्तर दोपहर में रोटी लेने आते थे। तब अनेक बार घर बार, दुख दर्द, हारी बीमारी, हंसी खुशी, गांव समाज से लेकर रिश्ते नातेदार, बाजार आदि की कोई भी बातचीत होती। परस्पर दूरी के साथ एक संबंध भी नजर आता था।
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कुछ स्थानों पर सार्वजनिक शौचालय भी बने थे। इनकी फ्लश व्यवस्था भी अपने ही प्रकार की थी। आमतौर पर इनकी बनावट दो पंक्तियों में आमने सामने होती। शौचालय एक सीधी पंक्ति में होते। जिनके मध्य में एक नाली बनी होती, जिसमें शौच करना होता। इसमें कुछ कुछ देर बाद टैंकी से अपने आप पानी आता ओर नाली साफ हो जाती। एक बार के पानी से आठ से दस शौचालय भी साफ हो जाते। एक पंक्ति में जितने भी शौचालय होते वे सभी एक ही टैंकी से साफ हो जाते। महिला और पुरुष दोनों के लिए अलग अलग शौचालय थे। इनमें एक स्थान पर नल भी लगा होता। यह सब बिना शुल्क के ही साफ सुथरे रहते थे।
कमाने वालों के अलावा सरकारी नौकरी वाले मेहत्तर भी आते थे। गली, नाली की सफाई, धुलाई का काम इनका होता था। इनकी आमतौर पर दो की जोड़ी होती थी। एक इसमें मसक वाला होता था। जो पानी डालने का काम करता था। वह चमड़े की मसक को कंधे के सहारे कमर पर रखकर चलता था।पानी कहीं दूर से तो कहीं नजदीक से लाना होता। अनेक स्थान आज से ज्यादा साफ सुथरे थे।
मुख्य बाजार में जगह जगह पानी के लिए नल लगे थे। प्याऊ भी खूब बनी हुई थी। किसी किसी प्याऊ पर बहुत ही ठंडा पानी होता था। प्याऊ पर पानी पीलाने वाला भी रहता। कुछ प्याऊ पर नल की टोंटी लगी होती थी। कुछ जगह पानी पीने से पहले नए आदमी से उसका धर्म, जाति पूछी जाती थी। यह भेदभाव समय के साथ कम होता गया।
दिल्ली तुझे सलाम
दिल्ली आज अब वो दिल्ली नहीं रही है, जिस दिल्ली में अपन ने साठ साल पहले प्रवेश किया था। जिसके दो बड़े रेलवे स्टेशन दिल्ली जंक्शन जिसे पुरानी दिल्ली के नाम से भी पुकारा जाता, दूसरा नई दिल्ली था। आज तो इन दो के साथ साथ हजरत निजामुदीन, सराय रोहिल्ला, आनंद विहार, सरोजनी नगर, सब्जी मंड़ी, तिलक ब्रिज स्टेशन से भी कुछ गाड़ियां प्रारंभ होती है। बस अड्डे के नाम पर पुरानी दिल्ली स्टेशन के बाहर फतेहपुरी की ओर से ही बसें चलती थी। दिल्ली में तांगा, साइकिल, साइकिल रिक्शा, फटफट जिसे फाॅर सीटर भी कहा जाता, ट्राम, बस, मिनीबस, बैलगाड़ी चलती थी। ट्राम एक लाल किला से चांदनी चौक, फतेहपुरी, खारी बावली, लाहौरी गेट, कुतुब रोड, सदर बाजार, पहाड़ी धीरज होते हुए बाड़ा हिन्दूराव, तथा दूसरी लाल किला से चांदनी चौक, फतेहपुरी, फराश खाना, लाल कुआं होते हुए काजी हौज तक जाती। कुतुब रोड पर ट्राम का डिपो होता था। ट्राम में टिकट देने का काम भी ड्राईवर करता।
दिल्ली एक शहर है, रहेगा। दिल्ली की अपनी ही कहानी है, बड़ी अद्भुत, मजेदार। दिल्ली ने अनेक रंगों को देखा भाला, झेला, भोगा है। दिल्ली बार बार उजड़ी, बार बार बसी। बार बार नाम बदले।
दिल्ली एक ओर नटखट, नखरेवाली, आकर्षक, दिलदार, हंसती खेलती, राजदुलारी, सत्ता की रानी, दीवानी मस्तानी, सब पर भारी, सपनों की सौदागर, तीन सौ साठ गाँव की बस्ती, कभी मंहगी, कभी सस्ती, मेरी दिल्ली मेरी शान का नारा लगाती अकड़ कर खड़ी है, तो दूसरी ओर अटपटी, शरारती, बेवफा, बदनाम, धोखेबाज, बेदिल, बेजान, उजड़ती, बिगडती, चेहरा छुपाती, लुटती लुटाती दिल्ली भी बेसहारा नजर आती है। मगर दिल्ली तो दिल्ली है, दिलवालों की, जो आकर बस जाए, जो मन लगाए उन सबका स्वागत करती दिल्ली। रंक से लेकर राजा तक सभी दिल्ली वासी है, किसी के पास लाखों का सूट, हजारों के बूट तो किसी के पास टूटी झोपड़ी, फटे चीथड़े, चप्पल भी ढ़ंग की नहीं, आकाश भी, छत भी, रजाई भी, धरती फर्श भी, चटाई भी, पटरी का बिछोना, यहीं पर खाना, यहीं पर सोना, जहाँ भी मिल जाए धाती का कोना। ऐसे में भी हँसते रहना, कभी न रोना। यह है दिल्ली।
दिल्ली की बिल्ली के अनोखे खेल हैं। बनती बिगड़ती, रगड़ती घिसटती, लड़ती झगड़ती, रोती रुलाती, भागती दौड़ती, जीतती हारती, खाती खिलाती, फिसलती फिसलाती, भटकती भटकाती, बिलखती बिखलाती, मरती मारती, बनती बनाती, सीखती सिखाती, डरती डराती, सुधरती सुधारती, चीखती चिल्लाती, दिल्ली के विभिन्न रूप बदल बदलकर हमारे सामने समय समय पर आते है। इन सबके बावजूद दिल्ली शहर जिसका दिल बड़ा, बहुत बड़ा है, सबको अपनाती, अपने में समाती, फैलती जाती है। कोई आता है तो रूप संवारता है, तो किसी पर बिगड़ने का आरोप लगता है कि वे दिल्ली का रूप बिगाड़ रहे हैI दिल्ली का दुख है की वह सबको हाथ फैलाकर अपने आंचल में जगह देती है मगर दिल्ली को अपना कहने वाले कितने लोग आज मौजूद है। दिल्ली दिल में बसी है या मन की बात में ही दिल्ली है, अपने प्रयोग, दुरूपयोग के बाद फेंकने, भुलाने के लिए दिल्ली है, यह बड़ा प्रश्न सबके सामने मुंह बाये खड़ा है।
दिल्ली में कभी गली, मोहल्ला, कूचे, बाड़े, बाज़ार, बाग, बगीचे, खेत खलियान, कस्बे, गाँव, नदी नाले, नहर, पहाड़ी, पहाड़, बावड़ियाँ, हौज़, कुंए, झील, तालाब, साफ सुथरे नज़र आते थे।दिल्ली कब शुरू हुई, कहां खत्म इसका अहसास भी कठिन हो रहा है। दिल्ली जीती जागती दिल्ली कंक्रीट का मकड़जाल बना दी गई है।
दिल्ली ने कितने ही राजा महाराजाओं, राजकर्ताओं, व्यापारिओं, सत्ताधारियों, हमलावरों को आते जाते, रहते, भागते देखा है। दिल्ली के बाग़ बगीचे, घाट, बाजार, मेले, उत्सव, त्यौहार, बैठकें, खानपान, स्थान स्मृति में खोते जा रहे हैं । उनका रूप बिगड़ा ही नहीं पूरी तरह बदल गया है। पुराणी दिल्ली दीवार से घिरी छह छह गेट वाली (दिल्ली गेट, तुर्कमान गेट, अजमेरी गेट, लाहौरी गेट, मोरी गेट, कश्मीरी गेट), देहाती दिल्ली, जमुनापार की दिल्ली, पंजाब, उत्तरप्रदेश, हरियाणा से जुडी दिल्ली, नई दिल्ली, इंद्रप्रस्थ वाली दिल्ली, जमुना किनारे बसी दिल्ली, क़ुतुब मीनार, लालकिला, जन्तर मन्तर, बिरला मंदिर, जामा मस्जिद, गौरीशंकर मंदिर, शीशगंज, रेकाबगंज, बंगला साहिब गुरुद्वारा, चर्च, बौद्ध मन्दिर, बहाई लोटस मन्दिर, कालकाजी, झंडेवालान, जैन लाल मन्दिर, शांति स्तूप वाली, भाई मतिदास, गुरु तेगबहादुर, स्वामी श्रधानंद, महात्मा गाँधी के बलिदान वाली दिल्ली।
दिल्ली के अपने नाज़ नखरे, चाल ढाल, रंग ढंग रहे हैं । ताजो तख़्त की रानी, सत्ता की दीवानी, बाजार की अधिकारी, घूमती सवारी, मीठे पानी के धौले लाल कुएं, मीठे खारे पानी की बावड़ी, जमुना के घाट, राजपथ, जनपथ, पगडण्डी और बाट, किसान, मजदूर, नौकर और लाट, फटेहाल और गुदड़ी के लाल, साथ में खड़े मालामाल, एक ओर संभाले संभले नहीं, दूसरी ओर बेहाल, ऐ दिल्ली तुझे सलाम।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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