चिपको आंदोलन की 48वीं वर्षगाँठ पर विशेष
– किशोर उपाध्याय*
वैसे तो उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना का इतिहास 100 साल से अधिक पुराना है, लेकिन इसे असली धार देने का काम किया चिपको आंदोलन ने
उत्तराखंड में वन आंदोलनों का इतिहास अंग्रेजों के आने के साथ ही शुरू हो गया था। ब्रितानी सरकार ने जैसे–जैसे वनों पर अपना आधिपत्य जमाना शुरू किया, जनता के अधिकारों का हनन किया, वैसे वैसे वनों पर आजीविका के लिए आश्रित पर्वतीय समाज में विद्रोह के स्वर फूटने लगे। कुमाऊँ क्षेत्र में वर्ष 1907 से लेकर 1920 के बीच यह आंदोलन कई जगह हिंसक भी हो गया, मजबूरन ब्रितानी सरकार को इस विद्रोह को समझने और जनता की समस्याओं को सुनने के लिए ‘कुमाऊँ फारेस्ट ग्रीवांस कमेटी‘ का गठन करना पड़ा, इस समिति ने अनेक सुझाव दिए, जिसमें सबसे प्रमुख था वन पंचायतों का गठन। वन पंचायतों के गठन में सबसे कमाल की बात यह थी कि इसमें वन प्रबंधन का मुद्दा होने के बावजूद, इससे वन विभाग को अलग रखा गया था।
चिपको आंदोलन आजाद भारत में अनूठा आंदोलन था जिसमें जनता सरकार को वनों को काटने से रोक रही थी। अगर इतिहास की नजर से देखें तो ‘दशोली ग्राम स्वराज संघ’ ने अपने स्वरोजगार केंद्र में, कृषि यंत्र बनाने के लिए, सरकार से कुछ पेड़ मांगे, सरकार ने पेड़ देने से इंकार कर दिया, दूसरी तरफ उसी समय खेल सामान बनाने वाली एक कंपनी को सैकड़ों पेड़ काटने की इजाजत दे दी। जनता ने इसका विरोध किया, शायद यह आजाद भारत में कॉर्पोरेट की संस्थागत लूट के खिलाफ पहला आंदोलन था। जनता अपने जंगल से अपने परम्परागत अधिकारों के तहत कुछ हिस्सा मांग रही थी और सरकार कॉर्पोरेट के पक्ष में जनता को प्रताड़ित कर रही थी। 26 मार्च 1973 को, एक तरफ गौरा देवी के नेतृत्व में भुटिया समाज की महिलायें अपने जंगल की रक्षा करने के लिए, सरकार समर्थित ठेकेदारों से संघर्ष कर रही थी, वहीं दूसरी तरफ सरकार जंगल काटने की साजिश को हर हालत में सफल बनाने पर आमादा थी।
इस आंदोलन में एक तीसरा पक्ष, शहरी मध्यम वर्ग के पर्यावरणविद भी कूद गए, जो बिना स्थानीय समाज की आर्थिक– सामाजिक – सांस्कृतिक स्थिति को जाने समझे, पर्यावरण का झंडा बुलंद किये हुए अपनी रोटी सेक रहे थे । इस समाज ने चिपको आंदोलन को अलग अलग नाम (एनवायर्नमेंटल मूवमेंट , डीप इकोलॉजी, फेमिनिस्ट इकोलॉजी आदि) देकर, अपने परम्परागत अधिकारों और आजीविका के इस आंदोलन को पर्यावरण का आंदोलन बना दिया। जो जनता अपनी आजीविका, और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थी, सरकार ने पर्यावरण कानूनों की आड़ लेकर, उसके ही जंगलों में जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
रैणी के जंगल जिसकी रक्षा के लिए रैणी गांव की महिलाओं ने ठेकेदार की कुल्हाड़ी और सरकार की बन्दूक की भी परवाह नहीं की, सरकार ने उसी जंगल को नंदा देवी बायोस्फेयर के नाम से संरक्षित श्रेणी में रखकर, भुटिया समुदाय के जनजीवन को अस्तव्यस्त कर दिया। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जंगलों को अलग अलग नाम से संरक्षित करने और वनाश्रित समुदाय के आजीविका के साधन छीनने का यह सिलसिला पूरे उत्तराखंड को रौंद रहा है। 1981 -82 में, 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई के क्षेत्रों में हरे पेड़ों के कटान पर, 15 साल के लिए लगी रोक, आज तक अनवरत जारी है, नतीजतन चीड़ का जंगल खेतों में आ गया है। खेत बंजर हो गए हैं, जंगली जानवरों का आतंक गांवों में साफ़ दिखाई देता है।
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चीड़ के जंगलों के बढ़ने और जंगली जानवरों के खौफ के कारण कृषि कार्य में कमी आई, खेतों की नमी खत्म हुई, अर्थात वर्षा जल संरक्षण नहीं हो पा रहा है, प्राकृतिक जल स्रोत सूख रहे हैं, नतीजतन गांवों से पलायन बढ़ रहा है। यह एक कुचक्र है, जिसमें क्या पहले और क्या बाद में हो रहा है, उस पर सिर्फ शोध की ही जरूरत नहीं है बल्कि मिशन मोड़ में इस समस्या का हल निकालने के प्रयास करने की जरूरत है। इसके लिए कुछ नीतिगत बदलावों की भी जरूरत है, उनमें सबसे प्रमुख हैं वन कानूनों में बदलाव, पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण कानूनों को लचीला बनाना, वन भूमि स्थानांतरण कानून को स्थानीय जरूरतों के हिसाब से बदलना और ये तभी संभव है जब वन प्रबंधन प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन और वन प्रबंधन में स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित होगी।यह भागीदारी सिर्फ प्रबंधन में न होकर वनों से होने वाली आय में भी होगी।
वन विभाग और वन प्रबंधन प्रणाली को जनता के प्रति और अधिक जवाबदेह बनाने की जरूरत है। वन विभाग का गठन अंग्रजों ने किया था, जिसका मकसद वनों का अधिक से अधिक दोहन कर अंग्रेज महारानी के खजाने को भरना था। यह भी शाश्वत सत्य है कि एक का खजाना भरने के लिए, बहुतों को खाली पेट रहने के लिए मजबूर किया जाता है। इसलिए अंग्रेजों के तथाकथित साइंटिफिक फारेस्ट मैनेजमेंट ने जनता के परम्परागत अधिकारों को खत्म किया, वनों से उनको दूर किया, वनों में जाने, वन सम्पदा के इस्तेमाल के लिए दण्डित भी किया। आज भी वन विभाग उसी प्रकार की सामंती सोच के साथ चल रहा है।
तिलाड़ी का संघर्ष – पहाड़ी क्षेत्र का जलियावालां हैं। जहाँ टिहरी राजपरिवार की सेना ने निहत्ते रवाल्टों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाई। 30 मई 1930 को, उत्तरकाशी की रवाईं घाटी के लोग सिर्फ वनों पर अपने परम्परागत अधिकारों को सुनिश्चित करने की मांग ही तो कर रहे थे। वे वनों के नए सीमांकरण का ही तो विरोध कर रहे थे, वे अपने खेत खलियान, चरागाह, जलस्रोत पर अपने परम्परागत अधिकारों की मांग ही तो कर रहे थे। इस गोलीकांड के बाद क्या हुआ, वो स्पष्ट रूप से इतिहास में दर्ज है। तिलाड़ी कांड के उन शहीदों को, जिनके चेहरों पर राजशाही ने यमुना तट पर तारकोल पोतकर पहचान करना असंभव कर दिया था और उन रवांल्टों को, जिन्होंने जीवन के अंतिम पल तक माफी मांगकर टिहरी की नरकीय जेल से रिहा होने के बजाय मृत्यु का आलिंगन कर, भावी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल कायम कर देना अधिक श्रेयस्कर समझा था। विद्यासागर नौटियाल जी ने उपन्यास – यमुना के बागी बेटे, में इन बहादुर रवाल्टों की कहानी को बहुत सुन्दर तरीके से दर्शाया है।
वैसे तो उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना का इतिहास 100 साल से अधिक पुराना है, लेकिन इसे असली धार देने का काम किया चिपको आंदोलन ने। अपने प्राकृतिक और मानव संसाधनों को, इस भूभाग के हित में बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की, इस परिकल्पना या जद्दोजहद का ही परिणाम था 1994 के बाद का आंदोलन। वर्ष 1994 में, उत्तराखंड राज्य आंदोलन की तात्कालिक कारण भले ही छात्रों द्वारा 27 प्रतिशत आरक्षण का विरोध रहा हो लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं प्राकृतिक संसाधनों की लूट का विरोध, प्राकृतिक संसाधनों का स्थानीय जनता के हित में इस्तेमाल, प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर वैज्ञानिक दोहन से रोजगार की व्यवस्था और विकास का स्थनीय मॉडल तैयार करना ही था। वर्ष 1994 से, कई दशक पहले भी इस राज्य की भौगोलिक परिस्थियों के अनुसार विकास का मॉडल बनाने पर सहमति हो चुकी थी।
राज्य मिल गया, लेकिन अलग हिमालयी राज्य की परिकल्पना के इतर, उत्तरप्रदेश का एक छोटा हिस्सा – 9 नवंबर 2000 के बाद उत्तराखंड कहलाने लगा। न नीतियों में बदलाव न कार्यप्रणाली में विशेष बदलाव। शिक्षा – स्वास्थ्य – रोजगार – विकास की कमी के कारण जिस पलायन की मार हम पहले झेल रहे थे वो आज भी बदस्तूर जारी है।
आज राज्य बने 20 साल से अधिक हो गए हैं, एक बार फिर जरूरत महसूस हो रही है कि राज्य की अवधारणा पर चर्चा हो। इसके लिए, चिपको आंदोलन की वर्षगांठ से बेहतर समय और कौन हो सकता है।
वनाधिकार आंदोलन की प्रमुख मांगे :
- वनवासी / गिरवासी का दर्जा : उत्तराखंड राज्य को वन प्रदेश घोषित किया जाय, और राज्य के नागरिकों को वनवासी / जनजाति का दर्जा दिया जाना चाहिए।
- वन अधिकार अधिनियम:- वन अधिकार अधिनियम 2006 को पत्र और भावना में लागू किया जाना चाहिए।
- प्रथागत और पारंपरिक अधिकार: –
- प्राकृतिक संसाधनों पर हमारे प्रथागत और पारंपरिक अधिकारों की पुनर्स्थापना की जाय, और उनका सम्मान किया जाय ; तथा वन, वन्य प्राणियों – वनस्पतियों और स्वच्छ जल संसाधनों को बचाने के एवज में वनक्षेत्र के निवासियों को प्रत्यक्ष प्रोत्साहन बोनस दिया जाय।
- हम मांग करते हैं कि यह प्रत्यक्ष प्रोत्साहन बोनस एलपीजी–गैस सिलेंडर (प्रति माह एक/ परिवार), मुफ्त पानी (मानक– अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार), बिजली (प्रति माह 100 इकाई प्रति परिवार प्रति माह), भवन निर्माण सामग्री (प्रत्येक 10 वर्ष में एक बार, प्रति परिवार) के रूप में दिया जाय।
- केंद्र सरकार नौकरियों में आरक्षण:
उत्तराखंड राज्य के निवासियों को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए।
- लघु वनोपज और खनिज
- लघुवनोपज को इकठ्ठा करने और खनन कार्यों (मिट्टी, पत्थर, रेत, बजरी और अन्य खनिजों) में ब्लॉक स्तर पर रहने वाले समुदाय को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
- उसके बाद, आवंटन जिला और राज्य स्तर पर किया जाना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए, राज्य की स्थानीय व्यावसायिक संस्थाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
- स्थानीय व्यावसायिक संस्थाओं की अनुपलब्धता के मामले में, अन्य राज्यों के उन संस्थानों को काम दिया जाना चाहिए जो आंशिक रूप से उत्तराखंड मूल के लोगों के स्वामित्व में हैं या उनके साथ कुछ संयुक्त उद्यम हैं।
6. पौध नर्सरी:
- स्थानीय स्व–सहायता समूहों को पंचायत स्तर / वन इकाई स्तर पर पौध नर्सरी का विकास करने का कार्य दिया जाना चाहिए। इस कार्य को राज्य भर में स्वयं सहायता समूहों के बीच इस प्रकार से वितरित किया जाना चाहिए ताकि लोगों को अधिक से अधिक संख्या में लोगों को रोजगार मिल सके।
- जिले या क्षेत्रीय वनाधिकारी क्षेत्र के बाहर से कोई पौध या रोपण सामग्री नहीं खरीदी जानी चाहिए।
- जंगल में पौधों / वृक्ष / जड़ी बूटियों के चयन में स्थानीय समुदाय के पारंपरिक ज्ञान का सम्मान किया जाना चाहिए।
7. ग्रीन बोनस:
- राष्ट्र को ताजे पानी और स्वच्छ हवा प्रदान करने के एवज में, हम राज्य को (पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्र में) स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क के निर्माण के लिए, दस हज़ार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग करते हैं।
8. ग्रीन कवर विकसित करना:
- वृक्ष खेती (वृक्ष कृषि): समुदाय को वृक्ष खेती के लिए अनुमति और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- हम पर्वतीय और प्राकृतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में, किसानों को, पारिस्थितिक सामाजिक सेवा (इकोलॉजिकल सोशल सर्विस) के एवज में 5000 प्रति बीघा (रु।250 प्रति नाली / 225 वर्ग मीटर) रुपये की प्रोत्साहन राशि देने की मांग करते हैं।
- किसान को उनकी निजी भूमि में अपनी पसंद के पेड़ लगाने की अनुमति और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए; उन्हें इन पेड़ों से सभी प्रकार की उपज लेने की अनुमति दी जानी चाहिए।
- किसान को अपने कृषि फार्म या बागवानी फार्म में उगाए गए पेड़ों (किसी भी प्रकृति के) को काटने / उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए, हालांकि, इस पर प्रतिपूरक वृक्षारोपण का प्रावधान जोड़ा जा सकता है।
9. हिमालयी राज्यों का सतत विकास
- केंद्र सरकार को हिमालयी राज्यों के सतत विकास के लिए, प्राथमिकता के आधार पर, नीतियों और कार्यक्रमो के लिए पहल करनी चाहिए, एक अलग मंत्रालय का गठन हिमालय के व्यापक और सतत विकास के लिए शुरुआती बिंदु होगा जो कि बाद में ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के लिए विश्व को दिया जाने वाला जवाब बन जाएगा। ।
10. विशेषज्ञ, और सामुदायिक प्रतिनिधियों को जंगल के प्रबंधन के लिए प्रत्येक चरण में शामिल किया जाना चाहिए।
11. वन विभागों को मानव–पशु संघर्ष के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। मानव–पशु संघर्ष के पीड़ितों में से प्रत्येक को सम्मानजनक मुआवजा दिया जाना चाहिए। हम मृतक के परिवार के लिए 25 लाख रुपये तथा परिवार के एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी की मांग करते हैं, गंभीर चोट के लिए 10 लाख के साथ पूरे इलाज का खर्चा, तथा आंशिक घायल के लिए 2,50,000 रुपये तथा इलाज का पूरा खर्चा की मांग करते हैं।
12. वन कानूनों और पर्यावरण कानूनों का पुनर्मूल्यांकन तथा स्थानीय समुदायों के हित में सुधार और संसोधन हेतु निरंतर प्रयास।
*लेखक पर्यावरणविद एवं उत्तराखंड के पूर्व मंत्री तथा पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं।यहाँ प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।