संस्मरण
-डॉ. राजेंद्र सिंह*
पूरी दुनिया को जल साक्षरता की आवश्यकता है
फिलीस्तीन, इज़रायल, जॉर्जिया, अजरबैजान, इराक, तुर्किस्तान, कुवैत, ईरान, सऊदी अरब, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, सीरिया, जॉर्डन, भारत और चीन, यमन, मंगोलिया ऐसे देश हैं जहाँ एक तरफ 11000 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा है, वहीं दूसरी तरफ 200 मिलीमीटर से भी कम वार्षिक बरसात है। जहाँ सबसे ज्यादा वर्षा है, वहाँ भी ज्यादा जल संकट है। इस संकट का समाधान जल साक्षरता है। जल उपलब्धता का प्रबंधन और अनुशासित होकर उपयोग करने के लिए जल उपयोग दक्षता बढ़ाना है। इस हेतु अब पूरी दुनिया को जल साक्षरता की आवश्यकता है। एशिया और अफ्रीका को ज्यादा जरूरत है। अफ्रीका में तो समुद्र किनारे के देश जैसे साउथ अफ्रीका, के केपटाउन शहर का बेपानी होने के सारे विश्व में एक चर्चा का विषय बन गया था । इसी प्रकार मिडल ईस्ट और सेंट्रल एशिया पूर्णतया बेपानी बनने के रास्ते पर चल रहे हैं।
हमें स्पष्ट दिख रहा है कि जल बे-समझी को बहुराष्ट्रीय उद्योग लाभ के लिए जल निजीकरण और व्यापारीकरण करने हेतु आगे आ रहे हैं। पूरी दुनिया में अब जल का व्यापार कंपनियाँ कर रही हैं। चीन ने अफ्रीका की जमीन और पानी दोनों ही हथियाने शुरू कर दिए हैं।
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भारत में फ्रांस की जल कंपनियाँ व्यापार करने हेतु 18 शहरों में समझौता कर चुकी हैं। सबसे पहले नागपुर में हुआ है। शेष दिल्ली के नांगलोई, इंदौर, खण्डवा आदि सबमें काम शुरू कर दिया है। यह जल व्यापार ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही है। पहले व्यापार, फिर राज कायम करना। यूरोप की कंपनियाँ पूरी दुनिया में इसी प्रकार अपना राज कायम करती थी।
अब सेवा के नाम पर नया राज करने का यह रास्ता निकाला है। इसी रास्ते पर अब सभी चल रहे हैं। इससे बचना है तो जल साक्षरता करने की जरूरत है। यह अभी नहीं किया गया तो तीसरा विश्वयुद्ध(जल युद्ध) की तैयारी दुनिया में दिख रही है। यह जल युद्ध, पेयजल हेतु शहरों और गांवों के बीच होगा। खेती और उद्योगों के बीच अब चल ही रहा है। खेती में भी सिंचित – असिंचित के बीच में लड़ाई चलेगी। उद्योगों में प्रदूषण और जल शोषण करने वाले तथा जल को बचाने वाले या कम जल उपयोग करने वाले भी आपस में लड़ेंगे। यह लड़ाई गांव से लेकर शहरों, राज्यों और देशों के बीच हो रही है। इस लड़ाई ने स्थाई उजाड़ विस्थापन शुरू कर दिया है। अफ्रीका और मध्य एशिया के देश उजड़ कर यूरोप की तरफ प्रस्थान कर रहे हैं। वहाँ अभी केवल तनाव दिखता है, लेकिन आगे चलकर यही युद्ध में बदलेगा।
जलवायु परिवर्तन शरणार्थी और यूरोप के शहरवासियों के बीच युद्ध से बचने के लिए, दुनिया में शांति कायम रखने हेतु, मेरी इस जल यात्रा का पहला चरण सम्पन्न हो गया है। दूसरे की तैयारी चल रही है। इसी से हम सीख रहे और सिखा भी रहे हैं। मध्य एशिया, अफ्रीका व यूरोप में विश्व जल शांति यात्रा का पहला चरण सम्पन्न हुआ है। इसमें स्पष्ट रूप में समझ आया है।
जलवायु परिवर्तन के कारण ही विस्थापन बढ़ रहा है। यही लड़ाई झगड़ों का मूल कारण बन रहे है। इस यात्रा के मध्य एशिया – अफ्रीका के देशों में जाकर, उनका मजबूरी में विस्थापन(उजाड़) कम करने हेतु समझने-समझाना और उन्हें जल सहेजने में लगाना है। जिससे इनके पास हमेशा जल उपलब्ध रहे। उन्हें बेपानी होकर उजड़ना नहीं पड़े। फिर यूरोप के इस विस्थापन से संबंधित देशों में जाकर वहाँ के राज-समाज को उनके साथ सद्भावना पूर्ण व्यवहार करने का मार्गदर्शन दिया है। जिससे उजड़ कर आने वालों को सही शरण मिल सके। वे भी अच्छे शरणार्थी सिद्ध होवें। दोनों में ही सद्भावना के बीज बोना ही इसका लक्ष्य रहा है।
शरणदाता का हृदय बड़ा हो के इन्हें देखकर पसीजे और इनके लिए दरवाजे खोलें। शरणार्थियों की आँखों में भी पानी आये। प्यार का स्थान पाकर शरणार्थियों की आंखों का पानी देखकर यूरोपियन का दिल पसीजेगा तो अफ्रीकन और मध्य एशियन भी प्यार की पानी की बूंदें आंखों से टपकाएगा। यह आज बेपानी दुनिया के संकट के समय की पुकार है। इन्होंने एक काल में इन पर राज करके इन्हें कमजोर बनाया था। इसलिए अब यूरोप अपने पुराने उस कर्ज को भी चुकाये, यह उसे समझाया है।
हमें यह बार-बार याद करने की ज़रूरत है कि दुनिया में फैली इस अशांति की जड़ में कहीं न कहीं पानी है। अब आप फिलिस्तीन को ही ले लीजिए; फिलिस्तीन, पानी की कमी वाला देश है। फिलिस्तीन के पश्चिमी तटों पर एक व्यक्ति को एक दिन में मात्र 70 लीटर पानी ही उपलब्ध है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से काफी कम है।
( एक व्यक्ति को प्रति दिन कितना पानी चाहिए? इसके आकलन के अलग-अलग आधार होते हैं। आप गाँव में रहते हैं या शहर मेंं? आपका शहर सीवेज पाइप वाला है या बिना सीवेज पाइप वाला? यदि आप बिना सीवेज पाइप वाले छोटे शहर के बाशिंदे हैं, तो भारत में आपका काम 70 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन में भी चल सकता है। सीवेज वाले शहरों में न्यूनतम ज़रूरत 135 से 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन की उपलब्धता होनी चाहिए। भारत सरकार का ऐसा कायदा है। आप किसी महानगर में कार और किचन गार्डन और बाथ टैंक के साथ रहते हैं, तो यह ज़रूरत और भी अधिक हो सकती है।)
फिलिस्तीन में कुदरती तौर पर ही ऐसा है या जल संकट के और कारण हैं ? यहाँ यह समझना जरूरी लगता है।
फिलीस्तीन में पानी का यह संकट कुदरती नहीं है। हालाँकि फिलिस्तीन की सरकार, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, यहाँ तक कि वहांँ का साहित्य भी कहता तो यही है कि फिलिस्तीन का जल संकट, क्षेत्रीय जलवायु की देन है। असल में फिलिस्तीन का जल संकट, इज़रायली किबुत्जों द्वारा फिलिस्तीन के जल स्रोतों पर नियंत्रण के कारण है।
फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्रोतों को जाकर देखिए। उनका 85 प्रतिशत पानी इज़रायली ही उपयोग कर रहे हैं। उन्हांने ऑक्युपाइड पैलस्टिन टेरीटरी (ओपीटी) के इलाके के लोगों को जलापूर्ति के लिए, इज़रायल पर निर्भर रहने को मज़बूर कर दिया है। कितना अन्यायपूर्ण चित्र है ! एक ओर देखिए तो ग्रामीण फिलिस्तीनियों को बहता पानी तक नसीब नहीं है। दूसरी ओर फिलिस्तीन में बाहर से आकर बसे इज़रायलियों के पास बड़े-बडे़ फार्म हैं, हरे-भरे गार्डन और स्वीमिंग पूल हैं। उनके पास सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी है और पानी के शोषण के लिए मशीनें भी हैं।
इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था ‘ओस्लो एकॉर्ड’। इस एकॉर्ड के मुताबिक, फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के जल स्रोतों में 80 प्रतिशत पर इज़रायल का नियंत्रण रहेगा। यह समझौता अस्थायी था। किंतु इस समझौते को हुए आज 20 साल हो गये। आज फिलिस्तीनियों की तुलना में इज़राइली लोग चार गुने अधिक पानी का उपभोग कर रहे हैं, बावजू़द इसके फिलिस्तीन कुछ नहीं कर पा रहा है। यह फिलिस्तीन की बेबसी नहीं, तो और क्या है?
अभी पिछली जुलाई के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दखल से एक द्विपक्षीय समझौता हुआ भी तो आप देखेंगे कि यह महज एक कॉमर्शियल डील है। यह समझौता इज़रायल को किसी भी तरह बाध्य नहीं करता कि वह पश्चिमी तटीय फिलिस्तीन के जल संकट के निदान के लिए कुछ आवश्यक ढाँचागत उपाय करे। यह समझौता फिलिस्तीन प्राधिकरण को सिर्फ एक छूट देता है कि वह चाहे तो इज़रायल से 32 मिलियन क्युबिक मीटर तक पानी खरीद सकता है। इसमें से 22 मिलियन क्यूबिक पश्चिमी तटीय इलाके को मिलेगा, जो 3.3 सिकिल प्रति क्यूबिक मीटर की दर से होगा। शेष 10 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी गाज़ा पट्टी के लिए होगा, जो 3.2 सिकिल प्रति क्यूबिक मीटर की दर से मिलेगा। (3.3 सिकिल यानी 0.9 डॉलर। यह सब देख-सुनकर मैं बहुत दुःखी हुआ।
यदि आपको कभी फिलिस्तीनियों से मिलने का मौका मिले, तो आप पायेंगे कि वे दिल के अच्छे हैं। लेकिन वे जो पानी पी रहे हैं, वह विषैली अशुद्धियों से भरा हुआ है। वे किड़नी में पथरी जैसी कई जलजनित बीमारियों के शिकार हैं। उनका ज्यादातर पैसा, समय और ऊर्जा इलाज कराने में जा रहा है। फिलिस्तीनियों के पास ज़मीनें हैं, लेकिन वे इतनी सूखी और रेगिस्तानी हैं कि वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते। वे मांसाहारी हैं, लेकिन मांस उत्पादन को भी तो पानी चाहिए। यही वजह है कि फिलिस्तीनी, एक दुःखी खानाबदोश की ज़िंदगी जीने को मज़बूर हैं। वे किसी तरह अपने ऊँट और दूसरे मवेशियों के साथ घुमक्कड़ी करके अपना जीवन चलाते हैं। पहले मवेशी को बेचकर, कुछ हासिल हो जाता था। फिलिस्तीनी कहते हैं कि अब तो वह समय भी नहीं रहा।
फिलिस्तीन सरकार ने सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूर कुछ किया हैं; किंतु वह अपर्याप्त है। मुझे तो ज्यादातर फिलिस्तीनी असहाय ही दिखे। खानाबदोश फिलिस्तीनियों को खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा की कितनी ज़रूरत है यह बात आप इसी से समझ सकते हैं कि अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए वे कभी-कभी लूट भी करने लगे हैं। मज़बूरी में उपजी इस नई हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण वे कभी-कभी सीरिया के सुन्नी और फिलिस्तीन के शिया के बीच संघर्ष का हिस्सा भी बन जाते हैं। किंतु क्या इस झगडे़ की उपज वाकई सांप्रदायिक कारणों से हुई है? हमें यह सवाल बार-बार अपने से पूछना चाहिए।
वहांँ जाकर मुझे जो पता चला, वह तो यह है कि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इज़रायली और फिलिस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। किंतु दोनां देशोंं की सरकारें आपसी जल विवाद के त्वरित समाधान के लिए कोई संजीदगी नहीं दिखा रही। क्यों? क्योंकि न तो दोनों देशोंं की सरकारें ही एक-दूसरे पर भरोसा करती हैं और न ही लोग। अतः सबसे पहले ज़रूरी है कि, दोनों देशों की सरकारें और लोग आपस में सकारात्मक संवाद के मौके बढ़ाएँ।
सकारात्मक संवाद बढ़ने से ही विश्वास बढ़ता है। विश्वास के बिना फिलिस्तीन के जल संकट का कोई समाधान नहीं निकल सकता। जब सकारात्मक संवाद शुरू होगा, तो पानी इंजीनियरिंग, तकनीक और अनुशासित उपयोग के मामले में फिलिस्तीन को सिखाने के लिए इज़रायल के पास बहुत कुछ है। फिलिस्तीन उससे सीख सकता है। इसी साझी सकारात्मकता से इस क्षेत्र में जल संतुलन कायम होगा। इसी से इस क्षेत्र में शांति बहाल होगी, वरना पानी के लिए विश्व युद्ध की भविष्यवाणी तो बहुत पहले की ही जा चुकी है।
अब आप देखिए कि लेबनान, सीरिया, जॉर्डन, इज़राइल और कुछ हिस्सा फिलिस्तीन का कायदे से जॉर्डन नदी के पानी के उपयोग में इन सभी की हकदारी है। ताजे जल निकासी तंत्र की बात करें तो खासकर इज़राइल , जॉर्डन और फिलिस्तीन के लिये जॉर्डन नदी का विशेष महत्त्व है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि जॉर्डन के पानी पर सबसे बड़ा कब्जा, इज़राइल का है। इज़राइल ने फिलिस्तीन के राष्ट्रीय प्राधिकरण को पानी देने से साफ-साफ मना कर रखा है।
आप देखें कि इज़राइल ने 156 मील लम्बी जॉर्डन नदी पर क्या कर रखा है? उसने एक बाँध बना रखा है। यह बाँध, जॉर्डन देश की ओर बहकर जाने वाले पानी को रोक देता है। इज़राइल यह सब इसके बावजूद करता है, जबकि जॉर्डन और उसके बीच पानी को लेकर 26 फरवरी, 2015 को हस्ताक्षरित एक औपचारिक द्विपक्षीय समझौता अभी अस्तित्व में है। इस समझौते के तहत पाइप लाइन के जरिए रेड सी को डेड सी से जोड़ने तथा एक्युबा गल्फ में खारे पानी को मीठा बनाने के एक संयंत्र को लेकर सहमति भी शामिल है। ताजा पानी मुहैया कराने तथा तेजी से सिकुड़ते डेड सी की दृष्टि से इस समझौते का महत्त्व है। आलोचना करने वालों का कहना है कि ऐसा कोई समझौता तब तक प्रभावी नहीं हो सकता, जब तक कि इज़राइल द्वारा की जा रही पानी की चोरी रुक न जाये। इजराइल द्वारा की जा रही पानी की इस चोरी ने जॉर्डन की खेती और उद्योग.. दोनों को नुकसान पहुँचाया है। जॉर्डन के पास घरेलू उपयोग के लिये भी कोई अफरात पानी नहीं है। यहाँ भी वही हुआ? जॉर्डन में भी लोगों ने पहले पानी के लिये संघर्ष किया और फिर अपना देश छोड़कर स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड और बेल्जियम चले गए।
हालाँकि, जॉर्डन के लोग यह भी महसूस करते हैं कि, समझौते के बावजूद, जल संकट बरकरार रहने वाला है। वे मानते हैं कि इसका पहला कारण, जॉर्डन में भी गर्मी तथा मौसमी बदलाव की बढ़ती प्रवृत्ति है। इसकी वजह से जॉर्डन में भूमि कटाव और गाद में बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरा वे मानते हैं कि यदि वे प्रदूषित पानी को साफ कर सकें, तो उनके पास उपयोगी पानी की उपलब्धता बढ़ सकती है। किन्तु उनके पास इसका तकनीकी का अभाव है।
वर्षा जल का उचित संचयन और प्रबन्धन वहाँ कारगर हो सकता है। किन्तु जॉर्डन के इंजीनियर, छोटी परियोजनाओं में रुचि नहीं लेते। उनकी ज्यादा रुचि, नदी घाटी आधारित बड़ी बाँघ परियोजनाओं में रहती है। लोग आगे आएँ तो यह हो सकता है। किन्तु खुद के पानी प्रबन्धन के लिये उनमें प्रेरणा का अभाव है। जॉर्डन में पानी पर सरकार का अधिकार है। लोगों के बीच पानी प्रबन्धन की स्वस्फूर्त प्रेरणा के अभाव के पीछे एक कारण यह भी दिखता है।
सरकार और समाज के बीच पुल बने, तो प्रेरणा को जमीन पर उतारने में सफलता मिल सकती है। लेकिन मुझे तो वहाँ ऐसे उत्साही पानी कार्यकर्ताओं का भी अभाव ही दिखाई दिया। जॉर्डन चाहे, तो इज़राइल के पानी प्रबन्धन से सीख ले सकता है। किन्तु दो देशोंं के बीच विश्वास का अभाव यहाँ भी आड़े आता है।
इज़राइल की होशियारी देखिए कि, जहाँ पराए पानी को हथियाने के मामले में वह दादागिरी से काम ले रहा है, वहीं अपने पानी के उपयोग के मामले में बेहद समझदारी से।
इज़राइल ने खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया है। हालांकि यह बेहद महंगी तकनीक है; फिर भी इजराइल ने इसे अपनाया है तो इसके पीछे एक कारण है। इज़राइल जानता है कि उसके पास पानी का अपना एकमात्र बड़ा जलस्रोत, गलिली सागर (अन्य नामः किनरेट लेक) है। उसके पास कोई अन्य स्थानीय विकल्प नहीं है। इज़राइल की एक-तिहाई जलापूर्ति, गलिली सागर से ही होती है। खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक के मामले में इज़राइली संयंत्रों की खूबी यह है कि वे इतनी उम्दा ऊर्जा क्षमता व दक्षता के साथ संचालित किये जाते हैं कि खारे पानी को मीठा बनाने की इज़राइली लागत, दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में कम पड़ती है।
गौर करने की बात है कि इज़राइल में घरेलू जरूरत के पानी की माँग में से 60 प्रतिशत की पूर्ति, इस प्रक्रिया से मिले मीठे पानी से ही हो जाती है। जॉर्डन नदी पर रोके पानी को वह पूरी तरह पेयजल की माँग पूरी करने के लिये सुरक्षित कर लेता है। फिलिस्तीन के पश्चिमी घाट के जलस्रोतों का इस्तेमाल वह कर ही रहा है।
इज़राइल ने अपने देश में एक बार उपयोग किये जा चुके, कुल पानी में से 80 प्रतिशत को पुनः शुद्ध करने तथा पुनरूपयोग की क्षमता हासिल कर ली है।इज़राइल अपने समस्त सीवेज वाटर का उपचार करता है। वह ऐसे कुल उपचारित सीवेज जल में से 85 प्रतिशत का उपयोग खेती-बागवानी में करता है; 10 प्रतिशत का इस्तेमाल नदी प्रवाह को बनाए रखने व जंगलों की आग बुझाने के लिये करता है और 05 प्रतिशत पानी को समुद्र में छोड़ देता है।
इज़राइल में उपचारित जल का कृषि में उपयोग इसलिये भी व्यावहारिक हो पाया है, क्योंकि इज़राइल में 270 किबुत्ज हैं। सामूहिक खेती आधारित बसावटों को इजराइल में ’किबुत्ज’ कहते हैं। सामूहिक खेती आधारित बसावटों का यह चलन, इज़राइल में अनोखा है। यह चलन, पुनर्चक्रित जल की आपूर्ति को व्यावहारिक बनाने में मददगार साबित हुआ है।
इज़राइल ने सिंचाई तकनीक के क्षेत्र में जो इनोवेशन किये हैं, उनकी खूबी सिर्फ यह नहीं है कि वे पानी की बर्बादी रोकते हैं अथवा कम पानी में फसल तैयार कर देते हैं; उनकी खूबी यह है कि वे फसल के उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। उनके ये नवाचार, ऐसे बीजों से भी सम्बन्ध रखते हैं, जो कि कम ताजे पानी में भी बेहतर उत्पाद दे पाते हैं।इज़राइल ऐसे बीजों को तैयार करने वाला दुनिया का अग्रणी देश है।
इज़राइल का जलापूर्ति प्रबन्धन सीखने लायक है।इज़राइल ने पानी पाइपलाइनों की लीकेज रोकने के बेहतरीन प्रबन्ध किये हैं। इज़राइल ने पानी को प्रबन्धन की दृष्टि से तीन श्रेणियों में बाँटा है – ए, बी और सी। वर्षा जल और नदियों के बहते जल को ‘ए’ श्रेणी में रखा है। नगरों को आपूर्ति किये जा रहे ताजे जल यानी नदी जल की पाइप अलग हैं और इनका रंग भी अलग। ये नीले रंग की हैं। खेती में उपयोग के लिये भेजे जा रहे पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग भूरा है। उद्योग के पुनर्चक्रित पानी को उपयोग के लिये उद्योगों को ही भेजा जाता है। उद्योग को जाने वाले पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग, लाल रखा गया है।
कह सकते हैं कि इज़राइल दुनिया का ऐसा देश है, जिसने पानी के लिये अपना प्रबन्धन कौशल, इंजीनियरिंग, संसाधन तथा सामरिक व सांस्कृतिक शक्ति सब कुछ समर्पित भाव से झोंक दिया है।
उसके इस समर्पण का ही परिणाम है कि कुल इज़राइली भूगोल में से 60 प्रतिशत भू-भाग के मरुभूमि होने तथा 1948 की तुलना में आज 10 गुना आबादी हो जाने के बावजूद, इज़राइल के पास आज उसकी जरूरत से इतना ज्यादा पानी है कि वह अपने पड़ोसियों को पानी बेचता है। निःसन्देह, इसमें दादागिरी से हासिल दूसरे के पानी का भी योगदान है, किन्तु इज़राइली पानी प्रबन्धन का योगदान भी कम नहीं है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि पानी की तकनीक बेचने का इज़राइली व्यापार भी आज करीब 2.2 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का है।
मैं कहूँगा कि इज़राइल ऐसा कर पा रहा है क्योंकि मलिन जल को उपचारित करते हुए वह शुद्धता के उच्चतम मानकों की अनदेखी नहीं करता है। इस बारे में वहाँ अनुशासन है। पानी प्रबन्धन के ज्ञान को जमीन पर उतारने की इज़राइली प्रक्रिया और तंत्र… जितना मैंने जाना है, भ्रष्टाचार में डूबे हुए नहीं हैं; वरना पानी प्रबन्धन का भारतीय ज्ञानतंत्र, कम अनूठा नहीं है। भारत की कई कम्पनियों ने इज़राइल के पानी प्रबन्धन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
इज़राइल जल संरक्षण तकनीकों के बारे में अपने नागरिकों को लगातार शिक्षित करता रहता है। विविध भूगोल तथा विविध आर्थिक परिस्थितियों के कारण भारत जैसे देश के लिये यह भले ही अनुचित हो, लेकिन इज़राइल ने पानी के केन्द्रित और वास्तविक मूल्य आधारित प्रबन्धन को अपनाया है। इज़राइल सरकार ने वहाँ जल नियंत्रकों की नियुक्ति की है।
यदि भारत अपने पानी की नीति और नीयत दोनों को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की ठान ले, तो भारत का पानी प्रबन्धन, दुनिया को राह दिखाने वाला बन सकता है। यह प्यासे को पानी पिलाने का ही काम नहीं, दुनिया में अमन और शान्ति बहाल करने का भी काम होगा। भारत की सरकार और समाज को इस बारे में संजीदगी से सोचना चाहिए।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।