संस्मरण
– डॉ. राजेंद्र सिंह
विस्थापन से मुक्ति से ही दुनिया में सनातन शांति संभव बना सकती है
तीसरा विश्व युद्ध दो शक्तियों का युद्ध नहीं होकर, मानवता और प्रकृति रक्षण हेतु राक्षसों और देवताओं(शोषक-शोषित) के बीच है। भारतीय ऐसे युद्धों को अहिंसामय तरीके जीतना जानता है। यहाँ राम-रावण और कृष्ण-कंस का युद्ध दो शक्तियों का युद्ध नहीं था, वह तो दो संस्कृतियों के बीच युद्ध था। रावण तकनीक से बादल, धरती, आकाश, सूरज, हवा सभी( भूमि-गगन-वायु-अग्नि-नीर) भगवान पर ही नियंत्रण करना चाहता था। कंस भी गाँवों के सभी संसाधनों का शोषण करता था। उन्हें रोकने का कार्य राम ने जंगली-जानवरों को संगठित करके तथा कृष्ण ने गोपालकों को जोड़कर जीता था। महाभारत में भी शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण के विरूद्ध कृष्ण ने पाँच पाण्डवों को रास्ता दिखाकर, सत्य की अहिंसामय रास्ते से विजय दिलाई थी। अब तीसरा विश्व युद्ध भी मानवता और प्रकृति को बचाने के सत्य हेतु अहिंसामय तरीके से ही जीता जायेगा। इसकी शुरुआत प्राकृतिक साक्षरता द्वारा हुई है। यह विस्थापन रोकने के रास्ते सुझा रही है।
विस्थापन के विश्वयुद्ध से बचाव हेतु अध्ययन, नैतिकता, न्याय, विश्व शांति के लिए भारत से जल साक्षरता और मानवता चेतना यात्रा शुरू हई है। वर्तमान में बहुत देश जलवायु परिवर्तन के संकट को झेल नहीं पा रहे हैं। वहाँ के लोग जलवायु परिवर्तन शरणार्थी बनकर यूरोप के देशोंं में तेजी से जाने लगें है। यूरोप के शहरी समाज को, अपने शहरों की भू-संरचना पर बढ़ते जन दबाव को देखकर, इन शरणार्थियों व उन देशों के प्रति घृणा बढ़ रही है; फिर भी शरणार्थियों की संख्या तो यूरोप के शहरों में बढ़ ही रही है। इसके समाधान के हेतु दुनिया के 163 देशोंं के वैज्ञानिकों व जल कार्यकर्ताओं ने मेरे विचार के अनुरूप ‘‘जल ही जलवायु है, जलवायु ही जल है‘‘ इसकी साक्षरता बढ़ाने हेतु अप्रैल 2015 में मुझे आग्रह किया था। यह बात मैंने 2015 में ही पेरिस समझौते में शामिल कराई थी। फिर वहीं से जल साक्षरता का काम विश्व स्तर पर विस्तार पाया था।
17 अप्रैल, 2015 को दुनिया के लोगों ने मिलकर मेरी अगुवाई में विश्व जल साक्षरता मंच में कोरिया की राजधानी ज्ञानजू में आयोजित विश्व जल मंच से ही जल साक्षरता मार्च निकाला। तदुपरान्त साउथ कोरिया के कई शहरों में भी यह मार्च निकला गया। वहीं पूरी दुनिया के जल संकट से ग्रस्त देशोंं में जल साक्षरता द्वारा, जल संकट समाधान की दिशा में काम करना तय हुआ। पहले यह यात्रा ईजराइल, फिलिस्तीन जॉर्ड़न गई, फिर इथोपिया, सोमालिया सेनेगल आदि देशोंं में पहुँची। अक्टूबर माह में यह महत्त्वपूर्ण यात्रा टर्की, सीरिया, ईराक में भी पहुँची। इस यात्रा से पता लगा था कि, विश्व जल युद्ध तो शुरू है, परन्तु युद्ध का कारण मूल मुद्दों से हटाकर, दूसरे मुद्दों को बताया जा रहा है। इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ भी युद्धकर्ताओं के साथ ही खड़ा दिखाई दे रहा है। यह विश्व युद्ध पहले से भिन्न दिखाई दे रहा है। पहले शक्तियाँ आमने-सामने लड़ती थी। इस बार जल को शोषित और शोषणकर्ता ही लडे़ंगे।
इस यात्रा में यह सब देख-समझकर कुछ और तथ्य भी उजागर हुए हैं। यूरोपीय शासित देशोंं ने ज्यादातर भू-जल का मालिकाना हक अपनी बड़ी कम्पनियों को दिया है; जिसे वे मनमाने दामों पर बेचती हैं। जल सभी का समान अधिकार नहीं है। गरीबतम् को भी जल निःशुल्क मुफ्त में उपलब्ध नहीं है। तो वह खेती और उद्योग भी नहीं कर सकता है। जीवन जीना सम्भव नहीं है। जीने की चाह में पूरे परिवार के साथ देश छोड़कर बाहर निकलना आरम्भ हो जाता है। लाचार, बेकार व बीमार इन्सान अपना देश छोड़कर चल देता है। ‘‘मरता सब कुछ करता’’। ये स्थितियाँ प्रत्यक्ष इस यात्रा में देखने को मिली। यात्रा सतत् चलकर 60 देशोंं में गईं, 20 अफ्रीका, 20 एशिया व 20 यूरोप के देशोंं को लक्ष्य बनाकर शुरू हुई। लेकिन बाद में लक्ष्य से अधिक देशों से जाना पड़ा। लक्ष्य से बाहर अमेरिका, कनाड़ा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया जाना भी जरूरी समझा गया तो वहाँ भी गये।
अफ्रीका, मध्य एशिया एवं पश्चिम एशिया के जलवायु शरणार्थी यूरोप के उन्हीं देशोंं में जा रहे हैं, जिन्होंने अपना जल को जमीन के अंदर और जमीन के ऊपर अच्छे से बचाकर रखा है। जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन तथा यूरोप के 20 देशोंं में ही ज्यादा शरणार्थी जा रहे हैं, वहाँ जल संचित है। जिनकी आँखों में जल बचा होता है, उनमें पानी को सम्मान से देखने के साथ-साथ ‘‘जीओ और जीने दो’’ का भाव भी बना रहता है। यूरोप के देशों ने तो जलवायु परिवर्तन के संकट से ग्रस्त शरणार्थियों को शरण दी, परन्तु अमेरिका ने नहीं दी। डोनाल्ड ट्रंप की आँखों में पानी नहीं है। इसीलिए वह जलवायु परिवर्तन को संकट नहीं मानता। जलवायु परिवर्तन को संकट मानने वालों ने उसे हटा दिया है। वह आज का रावण है।
हमें समय और साधनों का अभाव सामने आया। अमेरिका ने यात्रा दल को रोका नहीं, बल्कि वहाँ की जनता ने यात्रा का स्वागत किया। सबसे ज्यादा यूरोप ने स्वागत किया। वे इस यात्रा को अपने देशोंं में बुलाते रहे हैं। गरीब और बेपानी होकर उजड़ते देशों में जाकर काम करने के लिए साधन नहीं देते थे। इसलिए अफ्रीका, एशिया के देशोंं में, जहाँ इस यात्रा की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उन लोगों को उनकी अपनी जगह पर ही रुकने की चेतना, अहसास और आभास कराना था। लेकिन साधनों की तैयारी उन्हीं देशोंं के समाज को करनी थी, इस कारण वह यात्रा दल कार्यों को पूर्ण कराने में बहुत अधिक समय लगाता रहा है। किसी देश का समाज जब स्वयं तैयार होकर बुलाता है, तभी वहांँ जाना पड़ता है। अमेरिकी समाज ने अपने मरु क्षेत्र कोलफोर्निया, ओन्सवैली में यात्रा करने के लिए, मोनोलेक से लोस ऐन्जलिस के नीचे समुद्र तक यात्रा करने हेतु बार-बार बुलाया। मैं तीन बार 20-20 दिन के लिए वहाँ गया, वहाँ की टीम को जलसाक्षर बनाया। सबसे ज्यादा बार-ज्यादा समय अमेरिका को ही दिया है।
यूरोप ने भी मुझे बार-बार बुलाया। यू.के., स्वीड़न, फ्रांस, नीदरलैंड, जर्मनी ने बहुत बार बुलाया। वहाँ बार-बार जाकर मैं अफ्रीका-मध्य व पश्चिम एशिया के जलवायु शरणार्थियों से मिला। यूरोप के देश मुझ से मिलना चाहते थे; इसलिए उनसे मिलकर, शरणार्थियों को भी जल साक्षरता करा सका। वहाँ भाषा का कोई संकट नहीं रहा, लोगों ने भी बहुत सहयोग किया।
वहाँ के समाज और सरकार के सहयोग से यात्रा दल इन उजड़े हुए शरणार्थियों से जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, यू.के., ब्रसल्स, बेल्जियम, स्पेन, नीदरलैण्ड आदि देशोंं में भी जाकर मिला। यूरोपवासी चाहते हैं, शरणार्थी वापस अपने देशोंं में चले जायें, वहीं हम मदद करेंगे। यह मुझसे कहते रहे लेकिन किया नहीं।
यात्रा में शरणार्थी व शरणदात्री दोनों से साथ-साथ मिला, फिर भी समाधान अभी तक नहीं मिला है, पर यात्रा जारी है। इस यात्रा का नाम बदलता रहा है। शुरू में ‘विश्व जल साक्षरता यात्रा‘, ‘विश्व शान्ति जल यात्रा‘, ‘विश्व जल नैतिकता न्याय यात्रा‘ और ‘जलाधिकार यात्रा‘। ये नाम बुलाने वाले देशोंं की अनुकूलता के लिए रखे गये। सभी जगह जल साक्षरता ही हुई। मेरी यह यात्रा मरे आग्रह से मुक्त बनी रही।
शान्ति के लिए जल तो सभी देश चाहते हैं। वामपन्थी जलाधिकार को केन्द्रित करते थे। दक्षिण पन्थी नैतिकता, न्याय व शान्ति की बातें करते रहे। इस प्रकार सभी विचार धाराओं का सम्मान करते हुए उन्हीं की अनुकूलतानुसार यात्रा का नामकरण बीच-बीच में बदलता रहा है। लक्ष्य है, ‘विश्वशान्ति’, रास्ता और विधि है, संवाद, साक्षरता और अहिंसामय व्यवहार । विश्व (ब्रह्मांड) और जल एक ही है, यही ‘सत्य’ है। इसे पाने हेतु अहिंसामय रास्ता ही एक मात्र सर्वोत्तम मार्ग है।
अभी जलवायु परिवर्तन के कारण शरणार्थियों के जीवन में बहुत कष्ट है। इसी कारण भी जीवन हिंसामय बन रहा है। हिंसा ही युद्ध का कारण बन रही है। इस जीवन का सत्य तो अहिंसामय है। यह लक्ष्य तभी पूर्ण होगा, जब जीने के लिए सभी को अपनी-अपनी जगह पर ही ‘‘पोषक भोजन, स्वास्थ्य जलवायु, जीने की आजादी, स्वाभिमान (जल) मिलेगा।’’ यही चेतना उत्पन्न करना इस यात्रा का मुख्य लक्ष्य है।
इस कार्य के अध्ययन लक्ष्य क्षेत्र में पहला चक्र निम्नलिखित महाद्वीपों में चला :-
एशिया, अफ्रीका ,यूरोप, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया
इस दौरान हमने इन देशों में यात्रा निकाली:
सीरिया, ईराक, ईजराइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन, ईरान, अफगानिस्तान, थाईलैंड, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, पाकिस्तान, भारत, चीन, इजिप्ट, ब्राजील, साउथ कोरिया, सिंगापुर, होंग-कोंग, संयुक्त अरब अमीरात, उज्बेकिस्तान, मंगोलिया साउथ अफ्रीका, यूगांडा, मोरक्को, नामीबिया, जिम्बाब्वे, नाइजीरिया, इथोपिया, साउथ सूडान, बोस्तवाना,, इथोपिया, सोमालिया, सैनेगल, केन्या, इरीट्रिया, रवांडा, जिम्बाबे, केमरुन, अंगोला, अमन-ओमान रूस, टर्की, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड, बेल्जियम, फिनलैंड, ग्रीस, हंगरी, स्लोवाकिया, बेल्जियम, स्वीडन, यू.के., स्पेन, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड, इटली, हंगरी, नोर्वे, डेनमार्क, पोर्चुगल, वेटिकन सिटी कनाडा, मेक्सिको, ब्राजील, विलोविया, कनाड़ा, यू.एस.ए, न्यूजीलैंड़।
संदर्भ देश- कनाड़ा, न्यूजीलैंण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका। मुझे इन देशों में भी ज्यादा सीखने, सिखाने के अवसर मिले। यहाँ के लोगों ने ही मुझे बहुत बार बुलाया। यहाँ जल संकट को तुलनात्मक रूप से समझने का अवसर भी मिला। समाधान भी मैंने यहीं ढूँढ़ने का प्रयास किया। उक्त चारों देशोंं से भी मैं शरणार्थियों के विषय में बहुत जान सका। यहाँ के लोगों के साथ मिलकर शरणार्थियों के लिए काम किया है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।