– डॉ. राजेंद्र सिंह*
तमिलनाडु सरकार ने ‘चैन्नई किसान सम्मेलन’ के बाद कृषि के तीनों कानूनों को नकार दिया है। पंजाब, राजस्थान आदि कुछ राज्य पहले ही नकार चुके हैं। किसान आन्दोलन अब उन सभी राज्यों की राजधानी में शुरू हो रहा है, जिन राज्यों ने अभी तक इन कानूनों ने नकारा नहीं है। हमने ‘किसान स्वराज्य यात्रा’ द्वारा जवानी, बेरोजगारी और जल संकट के समाधान की चेतना के लिए 2 अक्टूबर 2021 से 26 नवंबर 2021 तक देश भर में यात्रा का निर्णय लिया है ।
जलवायु परिवर्तन, बाढ़ व सुखाड़ भी किसानों के जीवन में संकट पैदा कर रहा है। जिसके कारण किसानी में पानी की कमी और अधिकता ने किसानों की बर्बादी को बढ़ा दिया है। जवान-किसान लाचार होकर खेती छोड़ रहे हैं। इससे गांव उजड़ रहे हैं। हम सब चाहते हैं कि, संयुक्त किसान मोर्चा जिन मुद्दों के लिए लड़ रहा है, उन मुद्दों में पानी और जवानी को स्थान देकर जलवायु परिवर्तन संकट समाधान हेतु जल संरक्षण के कामों को भी जरूरी मानना चाहिए। इस हेतु किसानों की हिमालयी और पेनिन्सुलर नदियों की दो परिषदें भी गठित हुई हैं। इन्होंने नदी पुनर्जीवन के काम शुरू कर दिए हैं। सभी को जोड़ने वाला प्रयास जारी रहेगा। यह पानी, पर्यावरण तथा जवानी की बेरोजगारी जैसे संकट से बाहर लाने की दिशा भी है।
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भारत की ‘किसानी’ व्यापार नहीं, बल्कि संस्कृति है। संस्कृति की ट्रेडिंग नहीं हो सकती है। डंकल प्रस्तावों के माध्यम से खेती को विश्व व्यापार संगठन की सूची में सम्मिलित किया गया, यह भयानक अपराध है। खेती हिन्दुस्तान की संस्कृति रही है, व्यापार कभी नहीं थी। अब नए परिदृश्य में विश्व व्यापार संगठन ने व्यापार में खेती को सबसे ऊपर शामिल कर लिया है। इसको रोकने के लिए भारत भर में सर्वोदय समाज, पर्यावरण, सामाजिक, प्रकृति पुनर्जनन के कार्यों में लगे हुए कार्यकर्ताओं व संस्थानों ने 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में खेती को बाजार से बाहर रखने का विचार प्रबल बनाया था।
भारत के सर्वोदय संगठनोंं ने यह भी माँग उठाई थी कि, यूरोप, अमेरिका की खेती भारत जैसी नहीं है। वहाँ की खेती को यहाँ की खेती से अलग तरीके से करके देखा जा सकता है, लेकिन उस काल में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के दबाव ने यह बात स्वीकार नहीं की और खेती को उद्योग के दायरे में स्वीकार कर लिया।
पिछले 9 महीनों से किसान आंदोलन भारत भर में चल रहा है। अन्नदाता दिल्ली के चारों तरफ सड़कों पर पड़ा है। भारत सरकार राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठनों के दबाव में आकर किसानों की बात नहीं सुन रही है। सरकार की इस कमजोरी का फल किसानों को भुगतना पड़ रहा है। भारत सरकार को विश्व व्यापार संगठन को अपनी सच्चाई बताकर, इससे बाहर हो जाना चाहिए था। अभी भी वक्त है, सरकार को इस दिशा में कुछ पहल करना चाहिए।
किसान के अनाज की जमाखोरी छूट कानून, मंडी बंदी कानून, बंधुआ किसान कानून ये तीनों ही खतरनाक है। किसान के लिए इसको रद्द कराके कृषि उत्पादों का कानून के रदद् होने के साथ ही न्यूनतम् लाभकारी समर्थन मूल्य, गारंटी कानून 2020-21 भी बनवाना चाहिए। इस कानून के लिए पिछले तीन दशकों से रस्साकसी जारी है, लेकिन सरकारें किसानों को भ्रमित कर रही हैं।
वर्तमान सरकार इसे सत्य बनाने के प्रयास में लगी है। किसानों को सत्य मंडियों में दिख रहा है। अब किसानों को ही इन कानूनों को रद्द कराके नया कानून बनवाने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ, खासकर विश्व व्यापार संघ पर दबाव डालने की जरूरत है।
भारतीय खेती को व्यापार व उद्योग के रूप में बनाना भारतीय संस्कृति, धरती, प्रकृति व मानवता की सेहत के खिलाफ है, इसलिए यदि भारत की सेहत ठीक रखना है, तो हमें खेती को विश्व व्यापार संघ से बाहर करवाना जरूरी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ विकास अधिकार, बाल अधिकार व आदिवासी अधिकार प्रस्ताव, सतत् विकास लक्ष्य 2015 के पेरिस एग्रीमेंट, पृथ्वी शिखर सम्मेलन-21 आदि इसी प्रकार के अन्य प्रस्तावों में यह बात स्वीकार की गई है कि, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण एवं मानवता के विरुद्ध कोई भी ऐसा काम नहीं किया जाए, जिससे जलवायु परिवर्तन का संकट और बढ़े समुद्र का तल ऊपर उठे, बे-मौसम अकाल-बाढ़ व हरियाली घटे तथा तापक्रम बढ़े। ये बिगाड़ आज भी बढ़ रहे हैं। किसान आन्दोलन इस पर भी ध्यान दे।
इन सब घटनाओं से ही लोग बे-पानी, विस्थापित होकर, खेती गाँव व देश छोड़ने को मजबूर हैं। यह सब परिस्थिति खेती के औद्योगीकरण व बाजारीकरण ने बनायी है। इस नई बनती पारिस्थिति को हम संगठित होकर व समझकर रोकें और भारत के पुनर्निर्माण हेतु खेती को संस्कृतिमय प्रतिष्ठा भी दिलाने का काम करें। इस हेतु सभी को एकजुट होकर इस कार्य को समझने और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के दबाव में भारत को घुटने टेकने से बचाना है। हमारे नए चंद उद्योगपतियों को भारत में कंपनी राज होने से रोकने की पहल करने की जरूरत है। यह पहल किसान आंदोलन के नैतिक समर्थन व ऊर्जा से ही संभव होगा, लेकिन इस काम को करने के लिए अब भारत के सभी शैक्षिणिक संस्थानों को एकजुट होकर भारतीय आस्था एवं पर्यावरण की रक्षा के कार्यों में लगने की जरूरत है।
पर्यावरण शिक्षा विषय को शिक्षा में उच्चतम् न्यायालय के आदेश से दिखावटी तौर पर शामिल करने से उक्त कार्य संभव नहीं होगा। यह काम गहराई से समझने, समझाने व संगठित होकर, अहिंसक सत्याग्रह करने से ही संभव होगा। अतः हम सब को समय रहते हुए इस कार्य में तत्काल प्रभाव से जुटना होगा। यदि भारत की खेती को विश्व व्यापार संघ के एजेंडे से बाहर नहीं किया गया तो तेजी से अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण का प्रभाव बढ़ेगा। इससे विनाश तेजी से बढ़ेगा और फिर भारत पुनर्निर्माण संभव नहीं होगा। भारत पुनर्निर्माण की शुरुआत खेती को संस्कृति बनाने से ही संभव है। यह कृषि के तीनों कानून रद्द कराने से ही खेती और संस्कृति बेचगी।
भारत के जल संकट ने जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभाव को बहुत तेज कर दिया है, इसलिए पिछले 5 महिनों में 5 तूफान आए है, इन सबका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव किसानों पर पड़ा है। यह तूफान बाढ़, सूखाड़, समुद्र का उफान या जिस रूप में भी आये, किसान-मजदूर ही तबाह हुए है।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं । प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं ।