बिहार चुनाव परिणाम 2020
– प्रशांत सिन्हा
इस बार का बिहार का चुनाव बहुत ही दिलचस्प रहा। चुनाव परिणाम के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच कांटे का मुक़ाबला देखने को मिला। शुरुआती रुझान में जहां महागठबंधन को बढ़त मिलती नजर आ रही थी वहीं देर रात पूरा मामला पलट गया और सत्ता विरोधी लहर और विपक्ष की कड़ी चुनौती को पार करते हुए नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स (एनडीए) ने बिहार में जादुई आंकड़ा हासिल कर लिया।
इस बार बिहार विधान सभा चुनाव की कई विशेषता रही जैसे करोना काल में 55 फीसदी के करीब मतों का प्रयोग, चुनाव पूर्व ओपिनियन पोल में एन डी ए को पूर्ण बहुमत मिलता दिखलाना, फिर चुनाव के बाद नामी गिरामी एजेंसियों द्वारा एग्जिट पोल में महागठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलता दिखलाना फिर नतीजे वाले दिन रुझानों का ऊपर नीचे होना, नौकरी का मुद्दा केंद्र में होना इत्यादि। बिहार की जागरूक जनता ने सकारात्मक सोच और विकास के एजेंडा को आगे ले जाने के लिए जनादेश दिया जिसका सम्मान पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को करना होगा।
बिहार हमेशा से पूरे देश को दिशा देता रहा है। बिहार ने दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया है। बिहार से शुरू हुआ हर देश व्यापी आंदोलन सफल हुए हैं। लेकिन आज़ादी के पूर्व से लेकर आजतक के सभी वायदे को पूरा कर पाने में बिहार फंसता ही नजर आता है। कल का बिहार और आज के बिहार की सोच में काफी बदला हुआ है पर विकास की गति राजनीतिक शतरंज की तरह ही है। बिहार की जनता ने सभी राजनीतिक दलों को सरकार चलाने और प्रदेश का विकास करने का अवसर दिया है। लेकिन प्रदेश का विकास कछुए की चाल की तरह ही चली। हालांकि नीतीश सरकार जो काम किया लेकिन वह जनता की नज़र में नाकाफी था।
लोकतंत्र में मुद्दे एक जैसे ही रहते हैं जैसे गरीबी, बिजली, सड़क, पानी, अशिक्षा, वर्तमान सरकार की असफलताएं , जातिभेद, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप इत्यादि। लेकिन इस बार बिहार का चुनाव ” अतीत का भय और भविष्य की आशा ” के बीच लड़ा गया। जनता को तय करना था या तो भविष्य की सुनहरे सपने देखे या अतीत की कड़वाहट को भुला दे। इन्हीं दो मुद्दों के बीच चुनाव संपन्न हुआ।
एनडीए द्वारा बार बार राष्ट्रीय जनता दाल के पंद्रह साल के ‘जंगल राज’ को याद दिलाने की कोशिश की गई। वहीं महागठबंधन द्वारा दस लाख नौकरी, कमाई, महंगाई, दवाओं को मुद्दा बनाया गया। इस बार का चुनाव पुराने समीकरण को चुनौती दे रहा था। पहले जाति धर्म पर केंद्र तक का परिचालन किया। इस चुनाव के समीकरण थे नौकरी, विकास और शिक्षा। इन्हीं मुद्दों पर चुनाव लड़ा गया। जनता ने विकास के लिए अपना निर्णायक फैसला सुनाया है। बिहार के मतदाताओं ने बता दिया कि वे आकांक्षी है और उनकी प्राथमिकता सिर्फ और सिर्फ विकास है। विकास का अर्थ बिजली, सड़क, और पानी से ऊपर उठकर उद्योग, रोज़गार का सृजन और बुनियादी ढांचा का विकास करने से है। बिहार के युवाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि ये नया दशक बिहार का होगा।
इस चुनाव में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के प्रति एक तबके की नाराजगी साफ साफ़ दिख रही थी । उनके पांच मंत्रियों का हारना यही बयां करता है। लेकिन सीटों को देखते हुए यह माना जा सकता है कि नाराजगी इतनी भी नहीं थी कि लोग महागठबंधन को विकल्प मान लें। नीतीश कुमार को केंद्र सरकार से भी मदद मिली। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की कुछ कल्याणकारी योजनाओं ने भारतीय जनता पार्टी को बिहार में अच्छे परिणाम दिलवाए।
तेजस्वी यादव ने जिस प्रकार चुनाव लड़ा वह तारीफ के काबिल है। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दाल को बिहार का सबसे बड़ा दल बनाया। अगर हम राजद के तेजस्वी यादव के साथ ही चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन न करने वाली पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान को देखे तो इस चुनाव ने बिहार को अगली पीढ़ी के राजनीतिज्ञ दे दिए हैं। यह चुनाव बुजुर्ग बनाम युवा के मुद्दे पर भी लड़ा गया था। इसमें एक तरफ राजनीति का खासा अनुभव रखने वाले नीतीश कुमार थे तो दूसरी तरफ युवा चेहरा तेजस्वी यादव । युवा चेहरे के रूप में चिराग पासवान भी थे जिन्होंने नितीश के जनता दल यूनाइटेड को नुकसान पहुँचाया।
युवा तेजस्वी यादव महागठबंधन की तरफ से मुख्य मंत्री का चेहरा थे और चुनावी रैलियों में उन्होंने इसका एहसास भी कराया।दस लाख नौकरी देने का वायदा करके उन्होंने उसे चुनावी मुद्दा बना दिया। तेजस्वी यादव ने चुनाव प्रचार में अपना एजेंडा लालू यादव से अलग बताया था और वायदा किया था कि सामाजिक न्याय की जगह वह आर्थिक न्याय की वकालत करेंगे। इससे युवा उनसे आकर्षित हुए। लेकिन परिणाम को देखकर ऐसा लग रहा है कि युवाओं के लिए यह ऐसा मुद्दा नहीं बन सका कि सभी एन डी ए को छोड़कर महागठबंधन को वोट डाले। अगर ऐसा हुआ होता तो महागठबंधन आराम से बहुमत पा लेता क्योंकि राज्य मे करीब आधे मतदाता युवा है।
लेफ्ट और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने उम्मीद से ज्यादा सीट पाया लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इतनी बड़ी और पुरानी पार्टी एक क्षेत्रीय दल द्वारा सहारा मिलने के बावजूद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। कांग्रेस को इस पर मंथन करने की आवश्यकता है।
बिहार का विकास, बेरोजगारी या यूं कहें आर्थिक उत्थान सभी दलों के चुनाव प्रचार अभियान के केंद्र में था। बिहार में दृढ़ राजनीतिक इच्छशक्ति के बिना आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। राजनीतिक इच्छा शक्ति का संबंध सत्तारूढ़ दल और उसके नेता की ताकत और प्रतिबद्धता से होता है। नई सरकार को मौजूदा आर्थिक स्थिति से निपटने के लिए पूरा जोर उन उद्योगोंको लगाने या उबारने के इर्द गिर्द केन्द्रित होना चाहिए जो बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन करते हैं। इनमे कृषि, भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यटन, मत्स्य पालन जैसे तमाम अन्य क्षेत्र शामिल हैं।