जल चिंतन
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
दुनिया में मिट्टी का कटाव, पानी का बहाव और मिट्टी जमाव से सुखाड़-बाढ़ आने लगी है। यह संकट खास कर मध्य एशिया अफ्रीका में है, लेकिन इनके उजाड़ ने अमेरिका-यूरोप की जनसंख्या बढ़ाने शहरीकरण तेज करने का काम किया है। शहरीकरण ने धरती को नंगी, सीमेन्ट कोंकरीट के जंगल से कुरूप बनाया है। इसे बुखार चढ़ने लगा है। मौसम का मिजाज बिगड़ गया है। यह जल संकट दुनिया भर में है। इसने लोगों को मजबूर करके पलायन बढ़ाया है। इसके कारण विकसित कहलाने वाले क्षेत्रों, राष्ट्रों की जनसंख्या का घनत्व बढ़ाया है।
जनसंख्या बढ़ोत्तरी ने तनाव बढ़ाया है। यह विश्व युद्ध के आसार पैदा कर रहा है। इसका मूल कारण बाढ़-सुखाड़ जल संकट है। यही संकट आज की सबसे बड़ी चुनौती है। इसका समाधान राजस्थान और महाराष्ट्र के अनुभव है।
महाराष्ट्र की अग्रणी, महाकाली नदी साथ-साथ अब नये दर्जनों गांव हैं। इसी प्रकार राजस्थान की अरवरी, सरसा, रूपारैल, साबी, भगाणी, जहाजवाली, शैरनी व महेश्वरा के हजारों गांव हैं। इन्हीं अनुभवों के द्वारा हम पानी के लिए संभावित विश्व युद्ध से बच सकते हैं।
सामुदायिक विकेन्द्रित जल, मिट्टी प्रबंधन द्वारा नदी पुनर्जीवन एवं जलवायु परिवर्तन अनुकूलन से किसानों को स्थायी समृद्धि मिलती है
आज का अकाल प्राकृतिक क्रोध तो है लेकिन प्राकृतिक क्रोध यह कैसे बना? प्रकृति में क्रोध कौन पैदा करता है? इसका जबाव धरती पर बढती लाल गर्मी है। लाल गर्मी जहरीली गैसों से भरी हुई शुष्क गर्मी होती है। शुष्क गमी को लाल गर्मी कहते हैं। जब जलवायु में नमी और प्राणवायु बढती है तब उसे हरी गर्मी कहते हैं। और जब हरी गर्मी के प्रभाव से नीली गर्मी मिलती है। वर्षा होती है। यह जल मिट्टी को दबा देती है तो पीली गर्मी जन्म लेती है। कभी-कभी लाल गर्मी को हरी गर्मी दबाकर उस जगह को खेती और जैव उत्पादन योग्य बनाती है वो पीली गर्मी कहलाती है। यह ज्यादातर खेती और उद्योगों के मिश्रित क्षेत्र में होती है। जब भी धरती पर लाल गर्मी का प्रभाव बढता है तो प्रकृति का क्रोध बाढ़ और सुखाढ़ के रूप मे दिखाई देता है। इस गर्मी के कारण बादल धरती से ऊपर दूर चले जाते हैं। वायु दबाव की गति से बादल बहकर एक-दूसरे बादलों से टकरा जाते हैं तो पहाड़ पर बाढ़ आ जाती है और बिना बरसे चले जाते हैं तो सूखाढ़ आ जाता है। वैसे सामान्यतः बिना बरसे जाने वाले बादल पहाड़ों की तरफ हरियाली से या नमी से आकर्षित होकर वहां बादल फटकर अतिवृष्टि कर देना यह भी प्रकृति का क्रोध माना जा सकता है। पुराने जमाने में इसे प्रलय कहते थे।
बाढ़-सुखाढ़ को पहले प्राकृतिक क्रोध से जन्मी प्रलय कहते थे। आज-कल इनको नाम बादल फटना, बादल टूटना एल नीनो और सुनामी जैसे नये नामों से जानते हैं। परंतु यह सब प्राकृतिक सम्मान में आई कमी तथा मानवीय दबाव और दखल बढ़ने से हुआ है। यह दबाव जब तक बढे़गा तभी तक ऐसा ही प्राकृतिक क्रोध बढे़गा। इसे रोकने की अभी बहुत जरूरत है। देश भर में ऐसे प्रयास तो बहुत हुए हैं लेकिन ये क्षेत्र कम और छोटे थे। इसलिए इनका अच्छा प्रभाव कम स्थानों पर ही दिखाई देता है।
राजस्थान में यह अच्छा असर मरुस्थल में इन्द्रा गांधी केनाल की हरियाली और खेती में है। अधो मरुस्थलीय क्षेत्र (अरावली) में पिछले 32 वर्षों में 10853 वर्ग कि.मी. में 11600 निर्माण जल संरचनाओं ने मिट्टी का कटाव रोककर मिट्टी में हरियाली बढाने का काम हुआ है। इसी से पीली गर्मी और हरी गर्मी का प्रभाव बढ़ने से मौसम का मिजाज सुधर गया। धरती का बुखार उतर गया। यही जलवायु परिवर्तन अनुकूलन प्रक्रिया है।
इसी से प्राकृतिक क्रोध कम हुआ है। अब इस क्षेत्र में बाढ़-सुखाढ़ की मार वैसी नही है। वर्षा ऋतु उसी क्षेत्र मे संरक्षित होकर वहां के कुओं का पुनर्भरण कर दिया है। इससे इस क्षेत्र में खेती और हरियाली बढ़ी है। पिछले 32 वर्षों में मिट्टी में बढ़ती नमी और हरियाली ने यहां धरती का चेहरा बदल दिया। मौसम में हरी गर्मी बढ़ने से यहां तापक्रम अब पहले जितना ऊपर नहीं जाता। उससे 3 डिग्री कम रहने लगा। लेकिन शहरी और औद्यौगिक क्षेत्रों में बढ़ गया है।
जिन क्षेत्रों में नमी और हरियाली बढ़ी है वहां तापक्रम सामान्य से कम होना सामान्य घटना है। यही सामान्य प्रक्रिया जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कहलाता है। यही अनुकूलन अब राजस्थान के वर्षा चक्र में परिवर्तन कर रहा है। इसी से यहां का फसल चक्र बदला है। थानागाजी क्षेत्र का फसल चक्र अभी तो सुख-समृधिदायक बन रहा है।
नई सब्जी मण्डी का बनना इस क्षेत्र में नई घटना है। इससे युवाओं को काम-अर्थ मिला है। काम-अर्थ लालच बढ़ाता है। लेकिन इस क्षेत्र में प्राकृतिक सम्मान भी लोगों के मन में बढ़ गया है तभी यहां जलवायु परिवर्तन अनुकूलन संभव हुआ है। यही दुष्काल और बाढ़ मिटाने का रास्ता है। इसी से प्रकृति का क्रोध शांत होगा। दुनिया में समृधि और शांति कायम होगी। मानवीय दिमागी अकाल भी इसी रास्ते से समाप्त होगा।
लालची विकास का रास्ता मानवीय भोग और प्राकृतिक क्रोध को बढ़ा देगा। इसी से बाढ़ और सूखाढ़ आयेगा। अकालमुक्ति की तैयारी जल साक्षरता जल संरक्षण का संवाद है। वर्षा की हर बूंद को सहेज कर धरती के पेट मे रखें। पहले धरती के ऊपर इकट्टा करें फिर उसे ही वाष्पीकरण से बचाने के लिए भू-जल भंडारो में भर दें। भू-जल भंडार भरने का काम इंजीनियर नहीं जानते भू-वैज्ञानिक जानते हैं। ये दोनों मिलकर काम नही करते इसलिए भू-जल भण्डार खाली करने वाला ही काम हो रहा है, भरने वाला काम नहीं हुआ है।
दुनिया में सबसे ज्यादा भू-जल शोषण भारत में हुआ है। इसी कारण आधे से ज्यादा वर्षा होने पर भी वर्ष 2017-18 भयंकर अकाल की मार झेल रहा है। आधे से ज्यादा भारत भूमि पर इतिहास में पहली बार अकाल की मार पड़ी है 13 राज्य 327 जिले अकालग्रस्त होकर भी आज 1 जुलाई 2017 आते ही अकाल को भूल गये। पहले की तरह ही मुम्बई का वर्षा जल बहकर आज समुद्र मे मिल गया है। मुम्बई को तो जंगलों, गांवों का जल मिल जाता है। गांव, जंगल व जंगली जीव अपने पानी के लिए तरसते रहते हैं। मुम्बई अपना पानी समुद्र में बहाता रहता है। जुलाई की वर्षा मुम्बई को 4 महीना पानी पिला सकती थी, ज्यादा भी। लेकिन इसी विषय में तो हमारी बुद्धि पर अकाल है। यह अकाल मिटाने हेतु ही हमे ठेकेदारी द्वारा होने वाला केन्द्रीय जल-प्रबंधन को विकेन्द्रित जल-प्रबंधन मे बदलना होगा। यह विकेन्द्रित जल-प्रबंधन प्रकृति और मानवता दोनों को ही बराबरी प्रदान करती है।
केन्द्रीय जल-प्रबंधन बडे़ बांध केवल मानवीय जरूरत पूरी करने पर ही ध्यान देते हैं और प्रकृति पर बोझ बनकर बाढ़-सुखाढ़ पैदा कर देता है। इस तरह के जल-प्रबंधन में विस्थापन और विकृति बहुत जन्मती है जबकि सामुदायिक जल-प्रबंधन इस प्रकार के दोषो से मुक्त होता है। इसमें हरियाली और मानवता किसी का भी विस्थापन नहीं होता है। सभी को समान रूप से शुभ एवं लाभकारी होता है। इस प्रकार का प्रबंधन एक छोटा समूह स्वयं कर सकता है उसके अन्दर मालिकाना भाव काम के साथ-साथ जग जाता है। उसी में सांझे भविष्य को सुधारने का काम और अनुशासित भाव जन्मता है। यही हमारे वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को रोककर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन की ओर ले जाता है। यह अनुभव तरुण भारत संघ के पिछले 33 वर्षों से राजस्थान में हुए कार्यों का परिणाम और अनुभव हम सबका उत्साहवर्धन करता है। इस तरह का काम पूरी दुनिया में इस 21वीं शताब्दी मे करने की जरूरत है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।