– प्रशांत सिन्हा
लॉक डाउन ने एक अनूठा उदाहरण पेश किया था। वाहन, कारखाने, भवन – सड़क निर्माण आदि को बंद कर देने से किस तरह प्रकृति अपने मूल स्वरूप में वापस लौट आई थी। नदियां साफ हो गईं थीं, आसमान नीला हो गया था, कई किलोमीटर दूर से हिमालय भी दिखाई देने लगा था।
पर लॉक डाउन को समाप्त हुए अभी चार महीने ही हुए हैं और अक्टूबर महीना आते ही प्रदूषण फिर से जीवन में जहर घोलने लगा है । वातावरण में नमी से स्मॉग की स्थिति तक कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण पराली जलने के मामलों में कमी नहीं आना भी है। पराली जलने के कारण उसका धुआं दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में पहुंच रहा है।। जिससे हवा में एयर क्वालिटी इंडेक्स (ए क्यू आई) का बढ़ना शुरू हो गया है। जब भी ए क्यू आई 150 से ऊपर पहुंचता है यह इंसान को नुक़सान पहुंचाने लगता है। दिल्ली और आसपास के शहरों का ए क्यू आई इस समय 300 के आसपास है।
वायु की खराब गुणवत्ता का रिश्ता दिल की बीमारी, फेफड़े के कैंसर, दमा और सांस के रोगों से है। वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर बच्चों पर हो रहा है। वायु प्रदूषण के कारण छोटे बच्चों में मधुमेह की बिमारी बढ़ती जा रही है। बच्चों में तो जन्म से पहले गर्भ में ही वायु प्रदूषण जनित मुश्किलें शुरू हो जाती है। साफ है कि प्रदूषण के मामले में केवल चिंता जताने का समय निकल गया है।
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की आबो हवा में सुधार अगर नहीं हो रहा है तो वह सिर्फ इसलिए क्योंकि पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण या केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तो इससे निपटने के लिए केवल योजना बना सकते हैं लेकिन उस पर अमल करना राज्य सरकारों का काम है। सच्चाई यह है कि राजनेता निहित स्वार्थ के चलते सख्त कदम उठाने से कतराते हैं।
कुछ साल से केंद्र सरकार से लेकर सर्वोच्च न्यायलय तक को पराली पर संज्ञान लेना पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में सर्वोच्च न्यायलय की डांट फटकार और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की सख्ती के बाद जो कदम उठाए गए हैं उससे स्थिति में थोड़ा बहुत तो सुधार आया है लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
मर्ज गहरा है, इलाज भी गंभीरता से करना होगा। सभी सरकारी विभागों को समन्वय के साथ मिल जुलकर काम करना होगा। ” यह हमारा काम नहीं है ” यह कहकर पल्ला झाड़ लेने से बात नहीं बनेगी। राज्य और केंद्र सरकार को निगरानी व जवाबदेही दोनों तय करनी होगी। आमजन से लेकर जिम्मेदार अधिकारियों तक की संकट बढ़ने पर तो ज़रूर सांसे फूलती है। प्रदूषण विशेषज्ञ चिंतन करते हैं फिर भी अच्छे परिणाम नहीं आते हैं।
कुछ वर्ष पहले पंजाब के होशियारपुर जिले के एक गांव में पराली से चलने वाला पॉवर प्लांट भी पराली की समस्या से निजात नहीं दिला पाया। इसका कारण यह है कि पराली बेचने से किसानों को कोई खास मुनाफा नहीं हो रहा है। एक एकड़ खेती में 15 – 20 क्विंटल पराली इकट्ठे हो जाती है। जबकि इसके गट्ठे बनाने पर लगभग पंद्रह सौ रुपए का खर्च आता है। पावर प्लांट तक ले जाने में परिवहन का खर्च अलग से। करीब तीन हजार रुपए ही मिल पाते हैं। फिर पराली उठाने की व्यवस्था सरकार के तरफ से नहीं है। किसानों को पराली बेचने की प्रक्रिया में काफी वक़्त लगता है। अगली फसल के लिए खेत भी तैयार करने होते हैं। इसलिए किसान पराली को बेचने के बजाय जला देते हैं।
अगर प्रदूषण को हमेशा के लिए खत्म करना है तो दीर्घकालिक उपायों को गति देने होंगे। निगरानी भी बढ़ानी होगी।
समस्या का समाधान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के कॉप 14 कार्यक्रम के सुझाव भी दिया था कि जिस तरह अफ्रीका में धूल को रोकने के लिए ग्रेट वॉल बनाई गई उसी तरह भारत में भी पर्यावरण अपातकाल से मुक्ति के लिए ग्रीन वॉल ऑफ इंडिया बनाई जाए जो पश्चिमी विक्षोभ के साथ आने वाले धूल भरी हवाओं के दवाब को रोकने के लिए अवरोधक का काम करेगी।
वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए ज़रूरी है कि ग्रीन कवर बढ़ाया जाए। क्षेत्र में पानी का छिड़काव होना चाहिए। मैकेनाइज्ड स्वीपिंग मशीन और स्मॉग गन / टॉवर लगाना जरूरी है। किसानों को पराली प्रबंधन के लिए जागरूक करना होगा। उन्हें बताना होगा कि प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर को जलाने की नादानी नहीं करें।ध्यान रहे कि दिल्ली और आस पास क्षेत्रों में दम घुटने वाला वातावरण का कारण स्मॉग को माना गया है। इससे हेल्थ इमरजेंसी घोषित करनी पड़ी थी। विद्यालयों में अवकाश रहा और लोगों को मास्क पहन कर निकलना पड़ा था। इसका कारण पराली एक मुख्य कारण था। जागरूकता अभियान चलाने के बावजूद किसानों के पराली जलानी बंद नहीं की। हर साल पराली न जलाने की बात कहने के बावजूद पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएं सामने आ रही है। राज्य सरकारें किसानों को जागरूक कराने और पराली जलाने पर प्रतिबंध लगाने पर नाकाम होती दिख रही है।
हालांकि बहुत सारे उपाय है जिससे पराली को जलाने से बचाया जा सके लेकिन उसके लिए ज़रूरत होती है इच्छा शक्ति।
मशरूम पैदा करने के लिए पराली से शेड बनाई जा सकती है। पराली से तैयार ट्रे पर मशरूम उगाई जा सकती है। डेयरी में पशुओं को पराली का चारा के रूप इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे कम्पोस्ट तैयार कर खेतों को उपयोगी उर्वरक दिया जा सकता है।
वायु प्रदूषण जितना दिल्ली को परेशान करता है उतना ही उत्तर भारत के अन्य शहरों को भी करता है लेकिन दिल्ली के प्रदूषण की चर्चा ज्यादा होती है। सर्वोच्च न्यायालय हो या एन जी टी अथवा केंद्र सरकार उनकी ओर से तभी सक्रिय दिखाई जाती है जब दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का प्रदूषण खबरों का हिस्सा बनता है। इस प्रदूषण के कारण साइबेरिया से आने वाले या अन्य प्रवासी पक्षियों में कमी आयी है। अगर यही हाल रहा तो परिंदों की तरह इंसान भी यहां से पलायन शुरू कर देंगे।