पृथ्वी दिवस की स्वर्ण जयंती पर विशेष
-ज्ञानेंद्र रावत*
अब यह जगजाहिर है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख साधनों की चाहत में बढ़ोत्तरी के
चलते अंधाधुंध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान के लिए कोई और प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियां हीं जिम्मेवार हैं। यह सब जानते समझते हुए भी मानवीय लोभ के चलते धरती के संसाधनों का क्षय और क्षरण अनवरत जारी है। उस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है। पिछले 250 साल के दौरान हुई इंसानी कारगुजारियां इस बरबादी के लिए 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। अन्यथा जीवन मुश्किल हो जायेगा। गौरतलब है कि पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है।
सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। इस तरह धीरे धीरे धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी और जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर बदलाव के संकेत विनाश के प्रमाण हैं। इससे जहां समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है वहीं दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी एवं ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार में बढ़ोतरी से 21वीं सदी में ग्लेशियरों का आकार और छोटा हो जायेगा। वैज्ञानिको ने अपने शोध में इस बात को साबित किया है कि इसकी प्रबल संभावना है कि किसी भी तरह के असंतुलन से वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह पर बदलाव जरूर होगा।
यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर के उपर गर्म हवाओं की वजह से वाष्पीकरण तेज होने से
वायुमंडल में नमी बढ़ गई है। इसका प्रभाव धरती के अलग अलग हिस्सों में तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के रूप में आये दिन देखने को मिल रहा है। आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पति में भी जमीन आसमान का अंतर आ गया है। वहां हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियां का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है। टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच के इस इलाके में तापमान में बदलाव की यह तो बानगी भर है। ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुंचा ही रही है, वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है।
भारत में तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। तापमान में बढ़ोतरी का दुष्परिणाम समुद्र के पानी के लगातार तेजाबी होते जाने से पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री पानी में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं वह इतिहास में अप्रत्याशित है। इस नुकसान की भरपायी में हजारों लाखों साल लग जायेंगे। ऐसे हालात में दिनोंदिन धरती पर खतरा बढ़ता ही जायेगा इसमें दो राय नहीं।
असलियत में इस्तेमाल में आने वाली हर चीज के लिए भले वह पानी, जमीन, जंगल या नदी, कोयला, बिजली या लोहा आदि कुछ भी होए पृथ्वी का दोहन करने में हम कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे हैं। असल में प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन से जैवविविधता पर संकट मंडराने लगा है। प्रदूषण की अधिकता के कारण देश की अधिकांश नदियां अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। उनके आसपास स्वस्थ जीवन की कल्पना बेमानी है। कोयलाजनित बिजली से न केवल प्रदूषण यानी पारे का ही उत्सर्जन नहीं होता बल्कि हरे भरे समृद्ध वनों का भी विनाश होता है। फिर उर्जा के दूसरे स्रोत और सिंचाई के सबसे बड़े साधन, बांध, समूचे नदी बेसिन को ही खत्म करने पर तुले हैं। रियल एस्टेट का बढ़ता कारोबार इसका जीता जागता सबूत है कि वह किस बेदर्दी से अपने संसाधनों का बेतहाशा इस्तेमाल कर रहा है।
सच तो यह है कि आज तथाकथित विकास के दुष्परिणाम के चलते हुए बदलावों के कारण पृथ्वी पर दिनबदिन बोझ बढ़ता जा रहा है। सही मायनो में यह तथाकथित विकास वास्तव में विनाश का मार्ग है जिसके पीछे इंसान आज अंधाधुंध भागे चला जा रहा है। इसे जानने बूझने और सतत प्रयासों से पृथ्वी के इस बोझ को कम करने की बेहद जरूरत है। इसमें जलवायु परिवर्तन ने अहम् भूमिका निबाही है। यह समूची दुनिया के लिए भीषण खतरा है। इसलिए इसे केवल रस्म अदायगी के रूप में नहीं देखना चाहिए और न आज के बाद अपने कर्तव्यों की इतिश्री जान घर बैठने का वक्त है।
सही मायने में आज का दिन आत्मचिंतन का दिन है। इसलिए आज हम सबका दायित्व बनता है कि पृथ्वी के उपर आए इस भीषण संकट के बारे में सोचें और इससे निजात पाने के उपायों पर अमल करने का संकल्प लें। चूंकि हम पृथ्वी को हर पल भोगते हैं, इसलिए पृथ्वी के प्रति अपने दायित्व को हमेंशा ध्यान में रख हर दिन निर्वहन भी करना होगा। यह भी सच है कि यह सब विकास के ढांचे में बदलाव लाये बिना असंभव है।
*वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]
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