विरासत स्वराज यात्रा
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
हम भारत के लोग जल को निर्माता मानते है, हम जल में अपना जीवन देखते है और गरिमामय जीवन तलाशते है। इस पद्धति से जीवन जीने वाले लोग भारत के अलावा और कहीं नही है। इसलिए हमारे शास्त्रों में जल को ब्रह्मा कहा गया है। इसका अर्थ है, जल कहता है कि “मैं ही ब्रह्मा हूँ और ब्रह्मांड का निर्माता हूं”।
13.7 अरब साल पहले ब्रह्मांड आग का गोला था, लम्बे समय बाद, वस्तुमान और अंतरिक्ष का पता चला था। 4.3 लाख साल पहले हाईड्रोजन और ऑक्सीजन नामक दो अणु आपस में मिल गए, जिससे जल, धरती, नदी बनी व इस जल से जीवन बना। अतः ब्रह्मांड जलमय होने लगा।
ब्रह्मांड जल ही जल था, जल ने ही सबका निर्माण किया है। जल ही ब्रह्मा है, ब्रह्मा ही सब कुछ है। ब्रह्मा से प्रजापति और प्रजापति से देवता निर्मित है। देवताओं ने चिंतन आरंभ किया था।
तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते ।
अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ॥
चिंतन से ब्रह्म का विस्तार होता है, वही अन्न का उत्पादन करता है। अन्न से जीवन, (उससे) मन (उससे) यथार्थ पंचभूत से संस्कार से अमरतत्व (आत्मा) प्राप्त होता है।
आत्मा से प्रकाश और प्रकृति निर्मित हुई है। प्रकृति से ही मनुष्य उत्पन्न हुआ है। यही मूर्त रूप से ब्रह्मा है, वायु और वायुमंडल है, ब्रह्मा प्रकृति से अलग कुछ नही है, वही प्रकृति और वायुमंडल है।
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तब भारतीयों ने जल को ही ब्रह्मा मान लिया था। सौर-मंडल, ब्रह्मांड, अंतरिक्ष में भी गंगा बहती है, ऐसी मान्यता उभरने लगी थी। अंत में भारतीयों के समग्र दर्शन की मान्यता ने ही ‘वसुदेव-कुटुम्बकम्’ का भाव बना दिया था। जल एक है, तो ब्रह्मा भी एक ही होगा, इस सिद्धांत के चलते हम जलमेव ब्रह्मांड कहने वाले बन गए। यह सत्य है!
मंडुकोपनिषद का प्रकाश जीवन के अंधविश्वास को समाप्त करके सदाचार को ही व्यवहार बना देता है। *मोक्ष* अंतिम आनंद तक की व्यवहारिक यात्रा भी करा देता है, जीवन से मृत्यु का डर निकाल देता है। भगवान का अंश ही हमारा इंसानी व्यवहार है। इस ज्ञान की गहराई में जिस की पैठ है वही कर्मकांड, आरती-उत्सव से मुक्ति पा जाता है। अपने आप को ही परम ब्रह्म का अंश मानकर जीवन जीने लगता है। पूजा पाठ के अंधेरे गहरे कूप से बाहर आ जाता है, ईश्वरमय बन जाता है।
गुरु के ज्ञान के घेरे से बाहर आकर सत्कर्म करते हुए अपने अच्छे कर्मों के फल की ऊर्जा पाने वाला ही अपने मन मंदिर में वास करके भयमुक्त बनकर सतकर्म करता रहता है। भगवान का डर और लोभ लालच समाप्त हो जाता है। आस्था भगति का भयमुक्त परमानंद पा जाता है। गुरु ज्ञान की लालसा, शास्त्रों की विद्वत्ता पाने की लालसा मिट जाती है। जागने की जिज्ञासा जरूर बनी रहती है। यह कर्मशील ऊर्जादाय जीवन बनाती है।
ईशावास्योपनिषद का आदेश तथा मुंडोकोयनिषद का प्रकाश ज्ञान की अनुभूति करता है। जीवन को भगवान के भय से मुक्ति दिलाता है। ये धर्मोपदेश नही है, धारण करने की ऊर्जा ही है। यही हमारी आत्मा है।
व्यक्ति, पंचमहाभूत से निर्मित शरीर में, आत्मचिंतन के प्रकाश से अपना मन, मस्तिष्क और बौद्धिक अभ्यास से जो विचारता है, वही करता है । वही उसकी दुनिया और ब्रह्मांड? उसे मालूम सत्य नहीं क्या है?
मुझे मालूम नहीं, फिर भी मैं अपनी दुनिया बनाने वाले स्वप्न देखता हूँ। जीवन में सत्य को भगवान मानकर जीवन, जीविका और जमीर के लिए कर्मकांड करता हूँ । वही मेरी दुनिया है? जल ने ही दुनियां को एक बनाया है। मेरी दुनिया पूरा ब्रह्मांड मेरा हैं। यहां मेरा जीवन, जीविका और जमीर ही मेरी विरासत है।
**लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।