– डॉ. राजेंद्र सिंह*
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथाः मागृधः कस्यमिद्ध्नम्।।
‘यह सारी सृष्टि मेरे लिए बनी है, मैं जितना और जिस प्रकार चाहूँ इसके उपयोग का मुझे ही अधिकार है’- यह गलत धारणा ही आज की कई आर्थिक समस्याओं की जड़ में है। वास्तव में सृष्टि मनुष्य के लिए नहीं है, सृष्टि का अपना स्वतंत्र प्रयोजन है। मनुष्य उसका एक अंग है, अतः सृष्टि का आदर करके जीना है। कुल मिलाकर सारी सृष्टि एक है, उसके विभिन्न अंश परस्पर संबंधित ही नहीं परस्पर अवलम्बित हैं। सृष्टि ‘मेरे लिए’ नहीं है। वास्तव में वह ‘किसी के लिए’ नहीं है। सब मिलकर सबके लिए है। इसलिए मनुष्य को प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए जितना उसकी जीवन-चलाने के लिए आवश्यक है। और ‘जो लिया जाए वह भी सेवा करके, त्याग करके, बदले में अपनी ओर से कुछ न कुछ करके अर्थात् यज्ञ करके। जोहड़ बनाना यज्ञ समान है। इसमें युवाओं को शास्त्रायुक्त यज्ञ करके युवाओं को पर्यावरण संतुलन हेतु यज्ञ की जरूरत बतायी। वैसे तो प्राकृतिक संरक्षण के सभी काम यज्ञ समान है। लेकिन जोहड़ बनाकर धरती का पेट भरना व जीव-जंतुओं को जीवन देना सबसे बड़ा ‘‘यज्ञ’’ है।
जितना हम अपने जीवन में जल का उपयोग करें, उतना करें उतना ही हम अपने श्रम से पसीना बहाकर, तालाब बनाकर, प्रकृति के कार्य में सहयोग देवें। जितना लें उतना ही, वैसा ही प्रकृति को तालाब बनाकर हम लौटाते हैं। इसलिए तालाबों की परम्परा समय सिद्ध और आज भी खरी है। जहाँ समाज लगता है। तालाब बनाकर अपने को पानीदार बना लेता है। तोड़ने वालों का सामना करके भी तालाब अपनें को बचा लेता है।
हमारे तालाब दुनिया के सबसे बड़े बाँध से सैंकड़ों गुणा ज्यादा पानी रोकते हैं। लेकिन इसके टूटने से कोई बेघर नहीं होता है। जबकि कोसी जैसी छोटी नदी के बाँध टूटने से 32 लाख लोग बेघर होते है। हजारों तालाब बेघरों को घर-बार, पेड़-पौधे, रोटी-पानी देकर आबाद बनाते हैं, बाढ़-सुखाड़ रोकते हैं, मौसम का मिजाज सुधारते हैं, ब्रह्मांड का ताप संतुलित बनाते हैं। तालाब तोड़ता नहीं, प्रकृति से जोड़ता है।
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भारतीय जल बचाना और जल का अनुशासित और बहुउद्देशीय उपयोग जानते हैं। ये जल बचाना कुदरत की हिफाजत का कार्य और जल बचाने वाले को पैगम्बर का फरिश्ता तक मानने वाले हैं। वतन परस्त भारत का समाज धरती को ही अपना धर्म मानकर इससे जुड़ा रहता है। इसलिए आजादी के वक्त भारत पर आया बुरा वक्त भी भारत को अपनी धरती से नहीं हटा सका। व्यापारी और भिखारी दोनों धरती को प्यार नहीं करते।
भारतीय किसान तो धरती को प्यार करता है, इसलिए हिन्दुस्तान बनाता रहा है। यह अपने ऊपर आए संकट से बचना जानता है। इसलिए अब इनके लूट करने वाला बाजार इन्हें नहीं लूटेगा। भारतीय ये अपनी खेती और पानी अपने पसीने से बचाकर अपने को समृद्ध और सुखी-शांतिमय बनाकर भारत को पानीदार भी बना लेंगे।
विकासशील देशों में शहरी जनसंख्या का दबाव इतना अधिक है कि शहरों की धारण शक्ति चरमरा रही है। चीन के बीजिंग, शंघाई तथा भारत के मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और मद्रास जैसे घनी जनसंख्या वाले शहरों में अनियंत्रित नगरीकरण के चलते स्थानीय प्राकृतिक संसाधन को इन शहरों में सुरक्षित नहीं किया जा रहा है। यही हाल हमारे देश के सभी शहरों का है।
विकासशील दुनिया के इन महानगरों के पास जल्दी ही जल जैसा आवश्यक संसाधन खत्म होता दिखता है। दूसरी ओर विकसित देशों के पास अभी बहुत से प्राकृतिक संसाधनों सुरक्षित हैं, जिनका प्रयोग जल के लिए कर सकते हैं। उदाहरण के लिए न्यूयॉर्क 150 कि.मी. दूर स्थित कैटस्किल के जंगलों से जल प्राप्त करता है। लेकिन भारत के पास ऐसे कई विकल्प हैं।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।