विस्थापन मुक्ति हेतु विश्व शांति जल यात्रा भाग-3
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
विस्थापन के विश्वयुद्ध से बचाव हेतु नैतिकता, न्याय, विश्व शांति के लिए जल साक्षरता यात्रा की सीख
यह यात्रा साढ़े पाँच साल चली। मैं अपनी इच्छा और वैचारिक संरचना के अनुकूल यह यात्रा नहीं चला सका, क्योंकि इस पूरी यात्रा के लिए मेरे पास आर्थिक साधन नहीं थे। विस्थापन से विश्व युद्ध को रोकने हेतु जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए काम शुरू करवाना ही मेरा वैचारिक ढाँचा बना था। मैं स्वयं जे.पी.-बापू-विनोबा को मानने वाला सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। उनका रास्ता तो समाज के साधन और स्वयं की साधना वाला रहा है। मैंने भी इस यात्रा हेतु यही रास्ता पकड़ा है।
इस यात्रा के उद्देश्य को एक पत्र में लिखकर मैंने दुनिया भर के अपने मित्रों को भेजा था, तब दुनिया भर से उनकी समय सुविधानुसार बुलावा आया था। उन्होंने ही मेरे टिकट, प्रवास खर्च आदि की सारी जिम्मेदारी लेकर मुझे बुलाया था। मैंने उनके स्थान पर जाकर सबसे पहले भारत में जल संरक्षण द्वारा जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन का अनुभव बाँटकर ही उनके लिए काम किया।
ज्यादातर लोगों ने मेरी यात्रा का उद्देश्य समझकर ही मुझे बुलावा भेजा था। कुछ ही लोग थे, जिन्होंने मेरे उद्देश्य और अपने बुलावे के उद्देश्य को एक ही मान लिया था। एक तिहाई बुलावे ऐसे थे जिनको मैंने हमारी यात्रा के उद्देश्य पूर्ति और अपने कार्यक्रम की विविधता को पूर्ण रूप से जोड़कर एक ही बना लिया था।
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तीसरी प्रकार के निमंत्रण वहाँ की सरकार के थे। जिनमें मैंने उनसे अपने उद्देश्यानुरूप समय बढ़वा लिया था।मैंने संयुक्त राष्ट्रसंघ और मानवाधिकार आयोग तथा विश्वविद्यालयों के भाषण निपटाकर अपनी यात्रा के ही काम किए थे। अंत के आधे से ज्यादा बुलावे केवल हमारी यात्रा हेतु ही थे।
इस पूरी यात्रा में मुझे भारतीय साधन खर्च नहीं करना पड़ा। मुझे तरुण भारत संघ और निजी धन किसी से नहीं माँगना पड़ा। यह उन सभी लोगों का योगदान सिद्ध करता है कि, दुनिया के लोग ‘‘जल साक्षरता’’ को आवश्यक मानते हैं। जल की नैतिकता और न्याय के लिए दुनिया में बहुत लोग अपना जीवन जीते हैं। वे चाहते हैं कि इस दिशा में काम किया जाए।
आज पूरी दुनिया की नदियों में प्रदूषण, जल शोषण, अतिक्रमण, का संकट है लेकिन उनके विरुद्ध संघर्षरत लोगों की संख्या बहुत कम है। आज उन्हें जोड़ने की जरूरत है, इसलिए ऐसे ही सभी लोगों ने इस यात्रा में जुड़ाव किया है। जिनके मन में जल नैतिकता, न्याय के बीज और विचार हैं, उन्हीं के साथ मिलकर भविष्य में भी काम करना है। ये सब मिलकर ही इस यात्रा की सीख को क्रियान्वित करेंगे। यही मेरी सबसे बड़ी सीख और विश्वास है। सीख ही विश्वास में बदलती है और विश्वास से ही क्रियान्वित होती है।
जल का निजीकरण सबसे पहले यूरोप के अधिकतर देशों में शुरू हुआ था। सेनेगल फ्रांस के अधीन था। फ्रांस की कंपनियों को सेनेगल जल के व्यापार का अधिकार उसी काल में फ्रांस सरकार ने दिया था। आजादी के बाद समाप्त हुए अधिकार अब वहीं की कंपनियाँ पुनः वहाँ जल व्यापार शुरू करने हेतु 2021 में विश्व जल मंच करने की तैयारी में जुटीं हुई है। सेनेगल के राष्ट्रपति के साथ उस देश की आजादी से पहले जैसे समझौते ही लागू कराने की तैयारी में पुनः फ्रांस की कम्पनियाँ अब लामबंद्ध हो रही हैं।
इस यात्रा से मुझे समझ आया कि यूरोप अधीनस्थ देशों ने दुनिया में जल का निजीकरण किया है। जहाँ भी इनका राज्य था, वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की लूट, पूरी छूट के साथ की है। प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन, खनन करके लूटे हैं। सभी संसाधनों का निजीकरण-व्यावसायीकरण कर दिया है। उन्होंने अपनी कंपनियों को मालिक बनाया था। कंपनियों ने ही व्यापार से अपना राज्य कायम कर लिया था, जैसे भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने राज्य कायम किया।
भारत जल समृद्ध देश था, जल खरीदने की जरूरत यहाँ की कम्पनी पैदा नहीं कर पायी थी। उन्होंने पानी का बाजार बनाने के लिए भारतीय परम्परागत जल संसाधनों को बदनाम तो बहुत किया था, लेकिन तब तक सभी स्थानों पर पेयजल उपलब्ध था। यहाँ की जल आस्था को ये तोड़ नहीं पाये। इसलिए यहाँ के जल का निजीकरण और व्यापारीकरण उनके लिए सम्भव नहीं हुआ।
भारतीय जल सम्मान और जल आस्था के कारण अंग्रेज भारतीय जल का निजीकरण और व्यापारीकरण नहीं कर पाए थे। वे गंगा जी को 1916 में नहर में बदल रहे थे, तभी पंडित मदन मोहन मालवीय ने गंगा आस्था को बचाने के लिए देश के सभी राजाओं, जन प्रतिनिधियों, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक नेताओं को जोड़कर गंगा जी को अविरलता प्रदान कराई थी।
अभी की सरकार ने गंगा जी की अविरलता को नकार दिया था, इसलिए पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे ज्ञानवान प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल ‘‘स्वामी सानंद’’ ने वर्तमान सरकार को उन्हीं की तरह आंदोलनरत होकर अपने प्राण दिये। अंग्रेजों ने भारतीय जल सम्मान एवं गंगा आस्था को मानकर जल और नदियों का निजीकरण नहीं किया था। अब हमारी ही सरकारें जल और नदियों को व्यापारिक केंद्र बना रही हैं। आज नदी और जल दोनों बाजार में खड़े है और खरीददार खरीद रहे है।
अमेरिका में कॉलिफोर्निआ ने अपनी ‘ओन्स नदी’ को ही विस्थापित करके पाइप लाईन में बंद कर दिया है। अब यह लॉस एंजेलिस की पेयजल पूर्ति करने के नाम पर पाईप द्वारा जल बचाने का कारण बताकर, ओन्स नदी और झील सभी कुछ नष्ट कर दी है। इस झील में हजारों तरह के जीव जंतु पलते थे। इसमें वर्ष भर लाखों पक्षियों का आना-जाना होता था। अब यहाँ सभी कुछ सफेद रेत नहीं, बल्कि धूल में बदल गया है। धूल से बीमारियाँ बहुत बढ़ी, तो वहाँ के उच्चतम न्यायालय ने इस धूल को दबाने का आदेश दिया, इसकी पालना हेतु करोड़ों डॉलर खर्च करके झील में रोड़ बनाने व उस पर ट्रक चलाकर जल छिड़कने के काम में , पैट्रोल खर्च करने में सैंकड़ां जल वाहक लगे हैं।
नदी के विस्थापन से यहाँ ओन्स नदी घाटी की ‘‘लाल भारतीय संस्कृति’’ ही समाप्त होने लगी है। इस नदी किनारे पहले 25 हजार रेड इंडियन रहते थे, लेकिन अब वहाँ की जनसंख्या घटकर 4 हजार से भी कम हो गई है। इनको यहाँ से गोरों ने भी खदेड़ा है। इनके जीवन, जीविका, जमीन सब पर ही कब्जा कर लिया। ये लाचार, बेकार, बीमार होकर यहाँ से उजड़ गए। इनका यूँ उजड़ना ही यहाँ की पूरी सभ्यता का उजड़ना बन गया है। नदी विस्थापन सभ्यता का विस्थापन बन जाता है। मैंने यहाँ 5 बार जाकर, यहाँ का बिगाड़ और विनाश प्रत्यक्ष रूप से देखा।
सीरिया में युफ्रेटस नदी को बड़े-बांधों से बांध कर इसकी हत्या कर दी है। इसके किनारे पहले प्राचीन सभ्यता मेसोपोटामिया थी। यह इसी नदी के उद्योगों-बाजारू खेती के कारण 5000 साल पहले भी संकट में आयी थी। अब बीसवीं सदी के अंत और 21वीं सदी के आरंभ में पुनः यहाँ के लोग उजड़े है। पड़ोसियों ने आकर इनके खाली घरों पर कब्जा कर लिया। कुछ लोगों को उनके घरों में घुसकर, डरा धमकाकर निकाल दिया गया। यह लोग लेबनान, ग्रीस, टर्की आदि देशों में होते हुए जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस आदि देशों में पहुँचे। यहाँ इन्हें जलवायु शरणार्थी मानकर अपमानित किया जा रहा है। यूरोप के शहर इनसे बहुत डरे हुए हैं।
वियाना में पूरे यूरोप के शहरों के मेयरों का सम्मेलन था जिसमें विस्थापन के भावी संकट के समाधान हेतु मुझे बुलाया था। वहाँ मैंने कहा कि जलवायु और दुनिया एक ही है। इसमें रहने वाले भी एक ही है। हम तो ‘‘जय जगत और वसुधैव कुटुंबकम्’’ को मानने वाले हैं, इसलिए जो जिसको बुरे वक्त में सहारा दे सकता है, उसे सहारा देना चाहिए। यह सहारा जहाँ से उजड़ कर आ रहे है, वहाँ देना अच्छा होगा। वहीं उनके मूल स्थान पर ही जलवायु अनुकूलन, उन्मूलन हेतु प्रकृति संरक्षण करके जल, मिट्टी, हरियाली संवर्धन एवं प्रदूषण नियंत्रण के कामों में इन्हें लगाना अच्छा होगा।
मैंने वहीं के लोगों से सीखकर, विश्वास और आस्था पैदा करके, उन्हें जोड़कर बहुत छोटा-सा काम आरंभ करना था, वही हमने किया। ईराक और सीरिया में हम कुछ भी नहीं कर पाए, वहाँ केवल युफ्रेटस नदी की यात्रा करके, उसे देखकर, उससे सीख लेकर लौटे। सीरिया में जो युद्ध हुआ उसको ‘धर्म-युद्ध’ बोला जाता है, लेकिन जब मैंने वहाँ गहराई से जाकर देखा, तब पता चला यह धर्म-युद्ध नहीं बल्कि ‘जल युद्ध’ है। युफ्रेटस नदी बड़े बांधों से सूखी तो वहाँ का समाज भी सूख गया। खेती, उद्योगों हेतु जल ही नहीं बचा तो वे लाचार बेकार, बीमार होकर उजड़ने लगे। इसी उजाड़ को दूसरी भाषा में बढ़ता मरुस्थलीकरण कहते हैं।
मुझे टर्की की राजधानी अंकारा में संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुनिया के जल संसाधन मंत्रियों को संबोधित करने हेतु बुलाया था। मैंने वहाँ जाकर अपना राजस्थान का अनुभव बाँटा। हमारे राजस्थान के अनुभव में जलवायु अनुकूलन और उन्मूलन से विस्थापन रुका था। पलायन उल्टा हुआ है। शहर से युवा गाँव में आकर अपनी खेती-पानी का काम करके स्वावलंबी बन गए।
पूरी दुनिया में बड़ी परियोजनाएँ विस्थापन से आरंभ होती हैं। इनके पूर्ण होने तक विस्थापन प्रक्रिया चलती ही रहती है। यह तब तक चलती रहती हैं, जब तक उनका प्रदूषण, बिगाड़, शोषण, अतिक्रमण सभी कुछ विस्थापन नहीं कर देता। क्योंकि जल और वायु प्रदूषित होकर वातावरण में बिगाड़ कर रहे हैं, धरती पर गर्मी बढ़ती है, जल का शोषण सुखाड़ और अतिवृष्टि बाढ़ लाती रहती है। बाढ़ – सुखाड़ ही तो जलवायु परिवर्तन कर रहे हैं और यही विस्थापन कराते हैं। इनकी आवृत्ति तो दुनिया के बड़े-बड़े बांधों, उद्योगों और प्रदूषणकारी परियोजनाओं ने ही बढ़ाई है।
बड़ी परियोजनाओं के दुष्परिणामों पर मेरे विचारों को सुनने हेतु स्विट्जरलैंड, जिनेवा में मानवाधिकार आयोग ने मुझे बुलाया था। मैंने वहाँ जाकर उन्हें समझाया था कि बड़े बांधों का विकल्प, छोटे सामुदायिक बांध जो स्थायी विकास और पुनर्जनन करने में मददगार हैं। यह बाढ़ -सुखाड़ को भी रोकते हैं, इसलिए विकास को विस्थापन, विकृति और विनाश मुक्त बनना चाहिए। इस दिशा में जो भी कार्य होंगे, वे जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन करने वाले ही हैं। इसी बात को सिद्ध करने वाला राजस्थान का समयसिद्ध अनुभव मैंने उन्हें सुनाया था।
मानवाधिकार आयोग जिनेवा ने मेरी अनुभूति को जानकर कहा कि छोटे काम सरल, सस्ते, सुंदर और टिकाऊ हैं, ज्यादा लाभदायी हैं और सभी के लिए शुभ है। इसी वक्त मैंने कहा कि जलवायु जल ही है, जल से ही जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन संभव है। इसे मैंने अपनी प्रस्तुति द्वारा सिद्ध करके दिखाया। अनुभव की स्पष्टता से भाषाओं की सीमा पार करके दूसरों को समझाना आसान है।
अनुभव से कहीं सभी बात सुनी भी जाती है, आंकड़ों के बजाय अनुभव सुनना लोगों को ज्यादा पसंद है। इसे वे बहुत मनोयोग एवं धीरज से सुनते हैं और मानते भी हैं। मैंने अपनी यात्रा में कहीं भी आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए, फिर भी ज्यादातर देशों के लोगों ने बात सुनी और उनके प्रकाश में काम भी शुरू कर दिया। मेक्सिको, फ्रांस, केन्या, इथोपिया, सोमालिया के साथियों ने तो यात्रा के दौरान ही काम शुरू कर दिया था। ये लोग मुझसे परिचित थे, इसीलिए उनके विश्वास से काम शुरू हुआ था। आमने-सामने आपस में जानने वाले लोग जल्दी दूसरों को भी जोड़ते हैं। मिलकर एक दूसरे को सुनते और समझते भी हैं। बराबरी से संवाद करने पर बातों का असर अधिक होता है।
मैं इस पूरी यात्रा में शिक्षक नहीं, बल्कि सीखने-सिखाने वाला और बराबरी का व्यवहार करने वाला रहा। लोगों ने मुझसे खुलकर खूब जल संरक्षण, प्रबंधन आदि विषयों पर बातचीत की। मैंने भी सभी को सफल, अच्छे जवाब का वातावरण बनाकर, काम किया। वह भी प्रभावी रहा है।
विविध सीख देने वाली इस यात्रा में मोटे तौर पर यह स्पष्ट हुआ कि जो बड़ी परियोजनाएँ विकास के नाम पर विनाश कर रही हैं, उनसे ही धरती का बुखार और मौसम का मिजाज बिगड़ा है। बे-मौसम वर्षा और बाढ़ – सुखाड़ से जलवायु परिवर्तन होकर विस्थापन बढ़ा है। उसे इस यात्रा में कम करने के प्रयास सफल हुए। हम आशावान है, इसलिए सफल भी हुए।
इस यात्रा में सदैव मेरा उत्साह वर्धन ही बना रहा, कभी हम थके नहीं। दिन भर संवाद, शिक्षण व रात भर सफ़र (एक देश से दूसरे देश ), कभी-कभी तो पूरी रात हवाई अड्डे पर गुजारनी पड़ी। ऐसा मेरे साथ अंकारा, टर्की, लॉस एंजिल्स अमेरिका एवं अफ्रीका के कई हवाई अड्डों पर हुआ, जहाँ रात गुजारनी पड़ी। आबू धाबी में आते-जाते दर्जनों बार, वियाना आदि तथा अब बहुत सी रात भर की प्रतिक्षा याद नहीं। इसके बाद कभी भी हमें आलस नहीं हुआ और थकान भी नहीं हुई। क्योंकि इस यात्रा से बड़ा लक्ष्य प्राप्त करने का मैंने सपना देखा है।
साध्य मेरा स्पष्ट रहा है। साधन मिलते रहे हैं। साधना को सिद्धि से धीरज और ऊर्जा मिलती रही है। फिर थकान कहाँ? कई बार तो भोजन भी नहीं मिला तो अपने घर के सामान से हमारा काम विदेश में भी चला। नमक, हल्की अजवाइन और मसाला साथ फिर भूख कहाँ? इस पूरी साढ़े पाँच साल की यात्रा में मैंने भोजन पर अपनी जेब से कुछ भी खर्च नहीं किया और टिकट आदि पर भी खर्चा नहीं हुआ। सीख देने और सीख लेने वाली व विस्थापन मुक्त दुनिया में सनातन शांति संभव करने वाली यात्रा का प्रथम चरण अब संपन्न हुआ है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं।
A very informative narrative of experience of a dedicated person An inspiration for younger generation to realize the importance of water for mankind and also nature. Hats of to Rajendra Singh jee,the Jal Purush.