विस्थापन मुक्ति हेतु विश्व शांति जल यात्रा भाग-1
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
आधुनिक संकट जलवायु परिवर्तन से दुनिया में विस्थापन हो रहा है। जलवायु परिवर्तन ने अब युद्ध जैसा वातावरण निर्माण कर दिया है। यह विस्थापन 20वीं सदी के अंत में पहले धीरे-धीरे, फिर तेजी से हुआ है। 21वीं सदी के पहले दशक में यह बहुत तेजी से बढ़ा। मैं दिसम्बर 1991 में पेरिस सम्मेलन में पहली बार विदेश यात्रा पर गया था। यह सम्मेलन 1992 रियोडी जैनेरियों में आयोजित होने वाले ‘‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन’’ की तैयारी का था। मैंने दोनों सम्मेलनों में तब विस्थापन की चर्चा बहुत दबी हुई सुनी थी। उस समय दुनिया के सामने विस्थापन कोई सवाल नहीं था, जबकि अब तो पूरे यूरोप का प्रत्येक शहर विस्थापन से आतंकित है।
वर्ष 2002 में यही पृथ्वी शिखर सम्मेलन, जोहन्सवर्ग में आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में तो मैंने ही अपने देश के गाँवों से शहर की तरफ पलायन पर भाषण दिया था। यहाँ अफ्रीका और मध्य एशिया के बहुत से देशों से विस्थापन की आवाज जोरों से उठती-सुनी थी।
मैंने राजस्थान के गाँवों का पलायन और विस्थापन मिश्रित देखा था, उसी विषय पर वहाँ भाषण दिया। पलायन तो भारत में पुरानी परम्परा थी, लेकिन भारत के आधुनिक विकास ने विस्थापन शुरु किया था। इसी से भारत के गाँव बे-पानी होकर उज़डने लगे थे। जल शोषण की तकनीक ने धरती का पेट खाली किया है। यही प्राकृतिक क्रोध का भी कारण बन रहा है।
1997 में मोरक्को में होने वाले पहले विश्व जलमंच में जब मैं गया, तो मुझे 1991 के पेरिस पृथ्वी शिखर सम्मेलन की याद आयी, तब दुनिया में विस्थापन का संकट नहीं था। अब इस मंच पर भी विस्थापन संकट के रुप में प्रस्तुत है। मैंने विस्थापन को जानने हेतु कई गाँवों व शहरों में जाकर देखा था। इसी देश में ‘‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन’’ 2016 मोरक्को की राजधानी मारकेश में आयोजित हुआ था, तब मेरा मोरक्को(अफ्रीका) दुबारा जाना हुआ।
मैं मारकेशवासियों से बहुत परिचित था। दुनिया भर से चुने विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों को संबोधित करने हेतु मुझे मुख्यवक्ता के रूप में आमंत्रित किया था। इसलिए मुझे बहुत कुछ अपना ज्ञान बाँटने और दुनिया को जानने का बहुत अच्छा अवसर मिल गया। वहाँ मैंने प्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन से प्रभावितों को विस्थापित होते जो देखा था। उनसे, इसी विषय पर बातें करना मेरे लिए आसान भी था। इसी विषय पर पूरी दुनिया के विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के संबोधन के बाद, उनसे संबंध भी बन गया। फिर पूरे सप्ताह वहाँ रहकर, इनसे बातचीत करके, समझा कि विस्थापन कितनी बड़ी समस्या है। किसी देश में क्यों विस्थापन हो रहा है? जलवायु परिवर्तन का विस्थापन के साथ क्या और कैसा संबंध है?
पूरे सप्ताह पृथ्वी शिखर सम्मेलन के भाषणों को निपटाकर मैं यहाँ के शिक्षकों को लेकर गाँवों में जाता था। अब मेरी बात प्रभावितों से प्रत्यक्ष होने लगी थी। उन्हें देखकर-समझकर उनके लिए कुछ करके बोलने का अधिकार भी अब मुझे प्राप्त हो गया था। इसलिए इस सम्मेलन में हमारा पेरिस में पारित संकल्प – ‘‘जलवायु परिवर्तन जल से है, जल ही जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन है’’। यह हम भारतियों का संकल्प पेरिस के पृथ्वी शिखर सम्मेलन 2015(कोप) में पारित करने के लिए हमारे जैसे दुनिया के साठ हजार लोगों ने पेरिस की सड़कों पर इस नारे को केन्द्र में रखकर मार्च किया था।
कोप-21 में हमारा कहना था कि यदि हमारे प्रस्ताव को स्वीकार नही करोगे तो, हम इस सम्मेलन के निर्णर्यों को दुनिया की जनता को अस्वीकार करने को कहेंगे। अन्त में हमें सफलता मिली। यह सफलता हमारे प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार से मिली थी। क्योंकि बार-बार हमने कहा कि ‘‘विस्थापन का सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है।’’ यह जल के बढ़ते संकट एवं प्राकृतिक क्रोध की देन है।
भारत का जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन का हमारा तब 32 वर्षों का समय सिद्ध अनुभव था। इस अनुभव द्वारा तथा दुनिया के इसी प्रकार के सैकडों अनुभवों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ को समझाना और अपनी बातों को सिद्ध करना, हमारे लिए सरल बन गया था।
सरल-सीधा रास्ता सदैव विजय दिलाता है। हम अपनी 2015 की विजय के अनुसार ही ‘मोरक्को पृथ्वी शिखर सम्मेलन (कोप-22) में कई देशों की राष्ट्रीय कार्ययोजनाओं की रूपरेखा बना रहे थे। मारकेश में दिनभर अपने सत्रों में, व्यस्तता के पहले और बाद में सुबह-शाम पास के गाँवों में जाने का कार्यक्रम उत्साहवर्धक बन गया था। उसमें मुझे मोरक्को और अफ्रीका की बदलती तस्वीर स्पष्टतः दिखाई दे रही थी।
अफ्रीका की इस यात्रा में मेरे साथ प्रो. राजेन्द्र पोद्दार के अलावा जुलिया, ईथन आदि भी पूरे समय मदद करते रहे। 1991 से मैंने जब भी दुनिया में यात्राएँ कीं, उनमें देखा कि अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप, मध्यएशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड आदि में विस्थापन का संकट अब बढ़ रहा है।
ईराक, ईरान, सीरिया, टर्की, इजराईल, पैलिस्तीन, जॉर्डन, केन्या, सोमालिया, इथोपिया, सूडान, साउथ सूडान के परिवार विस्थापित होकर स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस, स्वीट्जरलैंड, स्पेन आदि देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण लाचार, बेकार, बीमार होकर उक्त देशों में प्रवेश कर रहे है। विस्थापित होते लोगों की संख्या यूरोप के शहरों में बढ़ रही है। बढ़ती विस्थापन संख्या कुछ कम हो सकती है; ऐसा मुझे अहसास और आभास हो रहा था। यह बहुत कठिन काम है। असंभव बिल्कुल नही है। मेरे साथी इसे असंभव बता रहे थे और आज भी असंभव ही कह रहे है।
मैंने 1997 मोरक्को (अफ्रीका), 2000 में हैग नीदरलैंड (यूरोप), 2003 में क्वाटो जापान(एशिया), 2006 में मेक्सिको( अफ्रीका) , 2009 में टर्की, 2012 में मार्शे (फ्रांस), 2015 में ज्ञानजू-डेगू दक्षिण कोरिया में आयोजित विश्व जलमंचों में बराबर भाग लेता रहा हूँ। मैंने पानी के निजीकरण-बाजारीकरण का खेल इन मंचों पर ही समझा था। मेरे मन में बहुत ऊहा-पोह थी, दुनिया को इन कम्पनियों का षड्यंत्र कैसे बताएँ? दक्षिण कोरिया में दुनिया के बहुत से लोगों से मिलकर कहा कि “जल की नीजि कम्पनियाँ पानी का व्यापार करके, लाभ कमाने हेतु यह मंच संयुक्त राष्ट्र संघ का अंग बताकर आयोजित कर रही हैं, इस प्रकार दुनिया को धोखा दे रही हैं।”
मैंने सभी जलमंचों में कहा कि जब यह मंच बना था तो दुनिया की जल सुरक्षा करना ही इसका लक्ष्य था। अब इनका लक्ष्य जल का व्यापार करना बन गया है। ये सैनेगल जैसे गरीब देश से भी 40 लाख यूरो फीस लेकर 2021 में भी मंच आयोजित करेंगे। इस विषय पर मैंने वहाँ के राष्ट्र्रपति व जल संसाधन मंत्री से मिलकर इस मंच के विषय में बातचीत करके अपना पक्ष रखा, कहा कि इस सम्मेलन का आयोजन की फीस गरीब देशों के लिए तो संयुक्त राष्ट्रसंघ को ही देनी चाहिए। यदि यह मंच संयुक्तराष्ट्र का अंग है तो फीस नहीं देनी चाहिए। वहाँ की जनता, जन संगठनों, मीडिया आदि से भी बातचीत की। उन्हें प्रत्यक्ष समझाने का प्रयास किया था। यह मंच अपने लिखित लक्ष्य के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा है। बल्कि अपने लाभ के लिए ही कम्पनियाँ सब दिखावा करती रही है।
मैं 2003 से ही जल के निजीकरण नहीं, सामुदायिकरण होने की बातें कर रहा था, किन्तु इन कम्पनियों के षड्यंत्रों को रुकवाने में हमें सफलता नहीं मिली थी। लेकिन हमारा जल सत्याग्रह जारी है। हमारे कुछ साथियों ने इनके गढ़ फ्रांस में ही, जहाँ सबसे पुराना जल का निजीकरण हुआ था, वहीं पर सामुदायिकरण शुरू किया है। ईडिट और उनके पति, इन दोनों ने मिलकर पेरिस में ही यह काम करने में सफलता प्राप्त की है। इसी सफल प्रयास से जल की षड्यंत्रकारी कम्पनियाँ बौखलाई हुई हैं। इनका षड्यंत्र तो जारी है। हमारा प्रयास दुनिया और हमारे लिए आशा की किरण है, हमें भी सफलता मिलेगी। इस दिशा में जल साक्षरता की जरूरत ही इसके समाधान का प्रवेश बिन्दु है।
दुनिया भर के इस जल मंच में आये, स्वैच्छिक जल आंदोलनकारियों ने मुझे कहा कि जो आप कह रहे है, वह आप ही करें, हम आपका साथ देंगे। मैंने उन पर विश्वास करके ‘‘विश्वशांति हेतु न्याय नैतिकता जल साक्षरता यात्रा’’ ज्ञानजू साउथ कोरिया से आरंभ कर दी। पहले तो इसी देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, सरकारी संस्थानों में जाकर उन्हें सुना। सभी की राय जानने की शुरुआत की। यहाँ से इजराईल, पैलिस्तीन, जॉर्डन आदि देशों में जाकर इनकी सिंचाईं पद्धति, प्रदूषण नियंत्रण, जल उपयोग दक्षता-कुशलता-क्षमताओं को जाना। इनका पड़ौसी देशों के साथ कैसा जल व्यवहार है? उसे भी समझा। भारत ने कभी किसी का जल नहीं लूटा है। इजराईल दूसरों के जल पर कब्जा कर रहा है। उसने जॉर्डन नदी के जल पर कब्जा कर लिया है। मैं 2015 में इजराईल गया था। वहाँ देखकर समझ में आया कि इजराईल अपने पड़ोसी देशों के साथ बड़ी जल की लूट और हिंसा कर रहा है, यह गहराई से मुझे समझ में आया। उसने पैलिस्तीन और जॉर्डन की नदी के जल पर इजराईल ने कब्जा करके, इन्हें बहुत सताया है। पैलिस्तीन की घेराबंदी कर दी है। उनकी नदी का पानी उन्हें ही नहीं मिलता है। जॉर्डन नदी के जल पर कब्जा करके जॉर्डन पर दबाव डाल कर उन के साथ बड़ा अन्यायपूर्ण समझौता किया है।
ईजराईल जॉर्डन समझौता 2015 दबाव का जल बँटवारा है। जितना इजराईल ने दिया है, उतना ही स्वीकारना पैलिस्तीनी व जॉर्डन दोनों की मजबूरी है। यह सब देख-समझकर इन दोनों देशों से विस्थापित होते लोग किन-किन देशों में जा रहे हैं? यह सब जानना और समझना शुरु हुआ। यह समझने में साद ,जो पैलिस्तीनी सजीव खेती करने वाला हमारा मित्र है। आईदा सीबली जो पैलिस्तीन से विस्थापित होकर अब पुर्तगाल चली गई है। ये पैलिस्तीनी विस्थापन समस्या को गहराई से समझने में सफल हुए है। ये दोनों विस्थापित होकर विस्थापन पुनर्वास में लगे हैं। अब इनका स्वप्न भी विस्थापन मुक्त दुनिया बनाना है।
गेब्रियल मेयर इजराईल के संगीतज्ञ है व मेरे अच्छे दोस्त है। इन्होंने मेरे साथ टर्की, मोरक्को, भारत आदि कई देशों की यात्राएँ की है। संगीत से प्रेम बाँटते हैं। ये विस्थापन की पीड़ा के मरहम हैं। इन्होंने अपने संगीत द्वारा विस्थापितों की हिंसा और पीड़ा कम करने में सफलता पाई है। मुझे पैलिस्तीनी पीड़ा को सबसे पहले टर्की में मिलकर इन्होंने समझाया था। ये ‘‘वैष्णव जन’’ रामधुन बहुत से भारतीय यह शांतिगीत गाते हैं।
ये मेरे सच्चे विश्वसनीय मित्र हैं। पैलिस्तीनियों को इन पर बहुत विश्वास है; जबकि पैलिस्तीनी इजराईल को खुली गालियाँ भी देते हैं। यह सब की सुनकर हँसते-मुस्कुराते और दुखी होते हैं। यह प्रेम के गीत सुनाते ही रहते हैं। गेब्रियल ने टर्की अक्टूबर 2015 और मोरक्को नवंबर 2016 में मेरे साथ कई दिन रहकर विस्थापन पर अपने गीत सुनाकर मुझे मदद की थी।
यह यात्रा मुझे हजारों विविध विशेषज्ञों से मिलते सहयोग के कारण सफल हो सकी है। मैंने इसमें बहुत सीखा है। मेरा दिल-दिमाग विस्थापितों के साथ जुड़ गया है। मेरा स्वप्न है कि यह दुनिया विस्थापन मुक्त बने । मैं अभी तक अपने गाँवों का पलायन कम करने में आनंदित था। 2015 के बाद से मैंने दुनिया में विस्थापन देखा है; यही अब दुखी कर रहा है। इसे समझने, समझाने और समाधान के रास्ते पर अब काम शुरू हो रहा है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं।
‘जल’ जीवन की कुंजी है। यदि हम आज नहीं चेते तो आने वाले कल में ‘जल’ युद्ध का बड़ा कारण बन सकता है।
इस महत्वपूर्ण विषय पर लेख साझा करने के लिए धन्यवाद।