जल है तो कल है
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि दुनिया में विस्थापन से तीसरे विश्व युद्ध की दस्तक दिखाई दे रही है। विस्थापन की गूंज अब भारत में भी दिखने लगी है, लेकिन एक अच्छी बात यह है कि भारत के विस्थापितों को अभी जलवायु परिवर्तन शरणार्थी का आरोप नहीं है। इन्हें अभी केवल आर्थिक शरणार्थी कहकर छोड़ दिया जाता है। लेकिन अब भारत का परिदृश्य भी बहुत ही डरावना हो रहा है। खेती में रोजगार के अवसर खत्म हो रहे है, क्योंकि भू-जल के भंडार 72 प्रतिशत तक अतिशोषित हो चुके है। ऐसी परिस्थिति में खेती की बुआई का स्तर घटता ही जा रहा है। बहुत से परिवार अपनी खेती छोड़कर, गाँव से शहरों की तरफ पलायन करके गए थे, कोविड़-19 ने ऐसे लोगों को फिर, उनके काम और आवास से उजाड़कर, लाचार-बेकार व बीमार बनाकर शहरों से गाँव की तरफ मोड़ दिया है। यह पहले ही गाँव से उजड़कर शहर गए थे, अब शहर से उजड़कर गाँव आए तो, न इनका घर था और खेत की जमीन अनुत्पादक थी। ऐसे में शहर से विस्थापित हुआ गांववासी कैसे अपने को अपनी पुरानी जगह पर खड़ा कर पाता?
भारत के गाँव गुलामी के दिनों में अपनी खेती करके स्वावलम्बी थे। गाँवों का गणराज्य ‘भारत’ का संचालक गाँव ही अब लाचार-बेकार-बीमार होकर गाँव में दर-दर की ठोकर खा रहे है। क्योंकि भारत में आजादी के बाद अपने ग्रामीण विकेन्द्रीत गाँवों को तोड़कर, एक उद्योग और बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था बनाई। इस औद्योगिक बाजारू व्यवस्था ने भारत की रीढ़ ( ग्रामीण आर्थिकी) को बहुत कमजोर कर दिया। न केवल कमजोर किया बल्कि, यहाँ भी जलवायु परिवर्तन का संकट पैदा हो गया।
भारत भूमि पर भूखा मरता किसान आत्महत्या करने लगा है। बाढ़-सूखाड़ के अकाल का प्रभाव पड़ा, जिससे किसानों की आत्महत्या और अकाल मृत्यु का दौर बढ़ गया है। इन आत्महत्याओं से अकाल मृत्यु ने भारत को सभी तरह के संकटों से घिरा है। भारत के घिरने का बड़ा कारण, यहाँ की ‘विनाशकाले विकास नीति ’ एवं शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण को बढ़ाने वाली शिक्षा इसका मुख्य कारण रही है।
भारत को जलवायु परिवर्तन के विस्थापन को रोकने हेतु अपनी प्राकृतिक आस्था को पुनर्जीवित करना होगा। वह आस्था ही भारत को अपने पैरों पर खड़े होकर, काम करने की आजादी, चेतना और उत्साह पैदा करेगी। भारत में हर वर्ष लाखों लोग पलायन करके विदेशों में जाते है। यह वहाँ डॉक्टर, इंजीनियर, कम्प्यूटर सेवा आदि का काम करते है। इन्हें अपने देश में प्रकृति के साथ प्यार के लेने-देने के रिश्तों को पुनर्जीवित किए बिना भारत की आर्थिकी को जलवायु परिवर्तन के संकट से बचाना संभव नहीं है। अभी तक भारत में जो पलायन हो रहा है, वह अब विस्थापन की स्थिति में पहुँचेगा।
भारत का विस्थापन दुनिया के लिए भारी होगा। हमें उस विस्थापन की स्थिति को समझकर, समाधान ढूँढने की आवश्यकता है। इसलिए हमनें भारत भर में जल साक्षरता यात्राएँ की। मेरा भारत के राजस्थान में पिछले 41 वर्षों का अनुभव से यह सिखाने में सफल हुआ कि, जब गाँव के लोग अपने गाँव में आकर, खासकर प्रकृति-जल मिट्टी का संरक्षण करने लगते है और अपनी खेती व जीवन पद्धति को प्राकृतिक अनुकूलन में ढालकर, सेवा कार्य करते है, तभी तो प्रकृति प्रत्येक मानव जीव-जंतु व वनस्पति की जरूरत को पूरा करके, प्राकृतिक पोषण में सक्षम हो जाती है। प्रकृति का यह स्वरूप मुझे 41 वर्ष पहले मालूम नहीं था, लेकिन अब 2021 में आते-आते पूर्णतः प्रकृति व सनातन विकास का रास्ता मिल गया है; जैसे मुझे मिला, वैसे ही पूरी दुनिया को मिल सकता है। भारत सरकार और सम्पूर्ण समाज को भी मिल सकता है।
मैंने भारत में ही अपनी तरुणाई, जवानी और प्रौढ़ता के काल में सब ही कुछ प्रकृति से ही सीखा। प्रकृति ने मुझे सतही जल-संरक्षण से लेकर भू-जल संरक्षण का विज्ञान व धरती पर हरियाली बढ़ने से वातावरण की जहरीली गैसों का शोषण हरियाली करके प्राण वायु प्रदान कर देती है। जब मिट्टी में नमी आती है, तो उसकी हरियाली, धरती के बुखार को कम करके मौसम के मिजाज को सुधार देती है। मुझे काम करते-करते यह भी समझ आया कि, सूरज से निकलने वाली लाल गर्मी, जब नंगी धरती पर पड़ती है, तो धरती को बुखार चढ़ जाता है। सूरज की लाल गर्मी, जब हरिभरी धरती पर पड़ती है, तो बुखार ठीक हो जाता है। यही लाल गर्मी समुद्र के खारे-कड़वे, नमकीन जल को नमक रहित मीठे जल में बदलकर भ्2व् गैस रूप में बड़े-बड़े बादल बनकर हरे-सूक्ष्म बादलों की तरफ मुड़ जाते है। हरियाली के सूक्ष्म बादल समुद्र के बड़े बादलों को अपनी तरफ आकर्षित करके मिलकर बरसने लगते है।
बस यही वर्षा का बदलता चक्र राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्र में भी वर्षा का चक्र बदल देती है। राजस्थान में भी बादल बरसने लगते है। यह भारत के सूरज की लाल गर्मी, धरती की हरियाली की हरि गर्मी, समुद्र की नीली गर्मी से मिलकर वर्षा जल धरती की मिट्टी में जाकर नई हरियाली को जन्म देता है। यह प्राकृतिक पुनर्जनन जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन का भारत का अनुभव, दुनिया की जलवायु परिवर्तन की नीति में ‘‘ जल ही जलवायु परिवर्तन है, जलवायु परिवर्तन में जल ही है।’’ इस बात को सिद्ध कराने में सफलता पा सका। मेरी छः वर्ष की विश्व यात्रा में मैंने इस तरह का प्रयोग क्षेत्र, दुनिया के 6 महाद्वीपों की यात्रा करने पर ढूँढ नहीं पाया। मेरा बहुत मन था कि, इस तरह के प्रयोग क्षेत्र को देखकर मैं संयुक्त राष्ट्र संघ को जल ही जलवायु परिवर्तन है और जलवायु परिवर्तन से ही जल है। इस बात को सिद्ध करने में सहायता पाता।
मैंने अपनी दुनिया की यात्रा में बहुत बड़े पर्यावरणीय प्रौद्योगिकी एवं तकनीक से निर्मित बहुत से सरकारी उपक्रम, स्वीडन, जर्मनी, नीदरलैंड, ईजराइल आदि देशों में देखे, पर वर्षा के प्राकृतिक रक्षण, संरक्षण के सामुदायिक सातत्य का काम कहीं नहीं देख पाया। इसलिए मुझे अपने देश के समाज व सामुदायों के भारतीय आस्था व पर्यावरण रक्षण के कार्यों पर विश्वास बढ़ा। इस कार्य ने मुझे भारत की पर्यावरण रक्षण हेतु आस्था का व्यवहार व संस्कार की भिन्नता का आभास भी हुआ। मेरे इस भारतीय अहसास व आभास ने मुझे जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे है, विस्थापन से विश्व युद्ध की आशंकाओं को गहराई से समझने का मौका भी दिया।
कोविड-19 ने विश्व में एक एकता का भाव पैदा किया है। कोरोना से बचाने के टीके की खोज में दुनिया एक हो गयी है जो पहले कभी नहीं हुई थी। कई प्रकार की शांति वार्ता भी आपस में आरंभ है। लेकिन जल तो जीवन का संकट है; यही आधारभूत है। ज़रुरत है जल को बचाने के लिए भी इसी प्रकार की एकजुटता दिखाने की। ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है। लगता है कोरोना पर विजय के बाद यह एकजुटता भी टूट जाएगी और फिर से जल की ही वजह से तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडराने लगेगा। जल की समस्या दीर्घकालिक है और इससे सदैव नहीं बचा जा सकता है। इसी के कारण जलवायु परिवर्तन का भी संकट बना ही रहेगा। इसका समाधान तो प्राकृतिक अनुकूलन ही है। यही दुनिया को बचा सकेगा। इस दिशा में दुनिया चलाने का प्रयास नहीं कर रही है। इसलिए यह जलवायु परिवर्तन का विस्थापन और विश्व युद्ध का संकट बना ही रहेगा। इससे मुक्ति के लिए भारत को ही पहल करनी होगी, क्योंकि भारत की पर्यावरण आस्था ही समय सिद्ध-सफलता का रास्ता दिखाती है।पर इसके लिए भारत को खुद अपनी वर्तमान परिस्थिति से शीघ्र उबरना पड़ेगा।
दुनिया का जलवायु परिवर्तन संकट आधुनिक व वैश्विक है, जो दुनिया को विस्थापित करके आपस में दो वर्गों में प्राकृतिक शोषित व प्राकृतिक शोषितकर्ताओं में बाँटकर वैश्विक युद्ध की पारिस्थितियाँ पैदा कर रहा है। इन परिस्थितियों को बदलने में भारत का अनुभव बहुत कारगर हो सकता है। मुझे यह भी विश्वास हो रहा है कि, जलवायु परिवर्तन के आधुनिक संकट का एक मात्र समाधान सामुदायिक विकेन्द्रीत जल एवं प्राकृतिक संरक्षण ही है।
जल संरक्षण नदी पुनर्जीवन के साथ-साथ प्रकृति व संस्कृति को भी पुनर्जीवित करता है। इसलिए अब हमें शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण सिखाने वाली शिक्षा को छोड़कर, प्रकृति के रक्षण, संरक्षण और पोषण करने वाले शिक्षण को बढ़ावा देना चाहिए।
अब दुनिया के सामने भारत के राजस्थान के अपने काम का एक समयसिद्ध सफल अनुभव है। इस अनुभव का दर्शन पूरी दुनिया में लागू हो सकता है। हम दुनिया में विस्थापन से होने वाले विश्व युद्ध से रोकने के लिए विश्व युद्ध ‘‘मुक्ति से सनातन शांति संभव है’’ नामक यह पुस्तक कारगर व उपयोगी हो सकती है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।