– डॉ. राजेद्र सिंह*
तरुण भारत संघ ने 38 वर्षों में छोटे-बड़े 11800 से अधिक तालाब, जोहड़-छोटे बांध देशभर में बनाए या उनकी मरम्मत कराई है। इनमें लगभग कुल 35 करोड़ रूपये ही लगा है, लेकिन इनके लाभ देखे जाएँ, तो हमें स्वयं को आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए गोपालपुरा गांव को लें, जहाँ 1986 में सिंचाई तथा पीने के पानी वाले कुएँ सूख गए थे। गांव के जवान लोग मजदूरी के लिए दिल्ली और अहमदाबाद चले गए थे। जमीन में कुछ पैदा नहीं हो रहा था। तभी इस गांव में तालाबों के निर्माण का कार्य शुरू किया गया और सन् 1987 के जून तक गोपालपुरा गांव में तीन बड़े तालाब बनाए गए। गांव वाले इन्हें बांध कहते हैं। इनके निर्माण कार्य में दस हजार रुपए की कीमत का गेहूं दिया गया था। जुलाई 1987 में इस इलाके में कुल 13 सेंटीमीटर वर्षा हुई। यह सारी वर्षा एक साथ ही 48 घंटे के अंदर हो चुकी थी। इसके पानी से जमीन ‘रिचार्ज’ यानी पुनः सजल हुई और गांव के आस-पास के 20 कुओं का जलस्तर बढ़कर ऊपर आ गया। इस वर्ष 2022 में 52 सेंटीमीटर वर्षा हुई है।
वर्षा का पानी जो तालाबों में इकट्ठा हुआ था, वह अपने साथ जंगल व पहाड़ियों से पत्ते, गोबर आदि भी बहाकर ले आया था, जो तालाबों की तली में बैठ गया। बड़े तालाब खेतों की जमीन पर बने हुए थे। इसलिए नवंबर तक पहुँचते-पहुँचते तालाबों का पानी तो नीचे की जमीन की सिंचाई करने के काम में ले लिया गया और तालाबों के पेटे की जमीन में गेहूं की फसल बो दी गई। केवल गोपालपुरा में मेवालों के तालाब की जमीन से एक फसल में ही तीन सौ क्विंटल अनाज पैदा हुआ, जिसकी चारा सहित बाजार भाव में कीमत साढ़े 6 लाख रुपए होती है। इसके अलावा तालाब में पूरे वर्ष भर पानी भरा रहा। इसे पशुओं के पीने के पानी के लिए बनाया गया था। इस प्रकार गांव के पशुओं को पूरे वर्ष पीने का पानी सहज उपलब्ध होता रहा। गांव का पीने के पानी वाला कुआँ जो तब सूख गया था, वह अब भरा रहता है। कुओं का जल स्तर अब 90 फीट नीचे से उठकर 20 फीट तक पहुँच गया है।
तालाबों के चारों तरफ हरी घास उगने लगी है। पेड़ हरे-भरे होकर तेजी से बढ़ने लगे हैं। तालाबों का पानी जंगली पशुओं तथा पक्षियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है, जिससे एक उजड़े हुए गांव का वातावरण सुहावना बन गया है। पक्षियों द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े खाए जाने से तथा पक्षियों की बीट से जमीन के पानी के उपयोग की व्यवस्था की सामुदायिक भावना और परस्पर सहयोग का वातावरण फिर से बन चुका है। पहले पीने का पानी लेने के लिए दूर जाना पड़ता था, जिसमें गांव की महिलाओं की बहुत सी समय शक्ति नष्ट होती थी, वह परेशानी खत्म हुई है। इस तरह हर वर्ष गांव से मजदूरी करने लोगों को बाहर जाना पड़ता था, पर अब इन्हें अपने ही गांव में काम मिलने लगा। नीमी जैसे कई गांव जिनके लोग पहले मजदूरी करने जयपुर जाते थे, अब वे जयपुर की सेठों को रोजगार देने वाले बन गए हैं। आज सेठों के ट्रक इन गांवों की सब्जियां शहरों में ढोने का काम करते हैं। इस प्रकार तालाबों के कारण अनेक लाभ हुए हैं।
यह क्षेत्र पहाड़ की तलहटी में और ढालू है। इसके कारण तेज वर्षा का पानी जमीन को काटकर बहा ले जाता था। इससे जमीन की उपजाऊपन वर्षा के पानी के साथ बह जाता था, इसलिए जमीन में नमी की कमी रहती थी तथा फसल का बीज ही क्या, घास तक नहीं उगती थी। वहां वर्षा कम होती है, और जो होती भी है, वह भी एक साथ और तेज होती है, फिर पूरा साल सूखा रहता है। इसलिए इस क्षेत्र में तालाब अत्यंत आवश्यक तो हैं ही, वे खास तौर से उपयोगी हैं। वहाँ पर इन तालाबों में भूमि का कटाव रुक गया है।
इसी प्रकार जाटमालियर गांव में एक ‘‘जोहड़’’ बना है, जिसे बड़ा तालाब कह सकते हैं। यह भी जुलाई 1997 में पूरा तैयार हो चुका था। इसके निर्माण में कुल लागत पचास हजार रुपए आई, जिसमें आधी लागत ग्राम के श्रमदान से जुटाई गई। इस तालाब के भराव क्षेत्र में ही उस वर्ष 250 क्विंटल अनाज पैदा हुआ। इस वर्ष 2022 में पहली बार सरसों की खेती हुई। यह तालाब एक ऐसी तेज धारा को रोकता है, जिसने गत वर्षो में एक सौ एकड़ से अधिक भूमि को बंजर (खेती के अयोग्य) बना दिया था। जमीन में बड़े-बड़े नाले व खड्ढे हो गए थे। आज वह जमीन स्वतः ही समतल होने लगी है। अब वह खेती योग्य हो गई है। इस बार भराव और जल ग्रहण क्षेत्र में 400 क्विंटल सरसों होने का अनुमान है। कहा जा सकता है कि, इस तालाब ने पूरी एक सौ बीघा जमीन खेती के योग्य बना दी है। कुओं का जलस्तर ऊपर आ गया है। इस तालाब में रुकने वाला पानी जो पहले नीचे जाता और जो सैंकड़ों बीघा भूमि को बिगाड़ता था, वह बिगाड़ा भी अब रुक गया है।
गांवों में जो नौजवान अराजक कार्यों में संलिप्त थे, जब उन्होंने बंदूक छोड़कर फावडें हाथ में लेकर तालाब बनाने शुरू किए, तो उनके काम से करौली जिले की सपोटरा तहसील के गांवों के जीवन में सुख-समृद्धि-शांति आ गई। वे लोग भाई और देवता बन गए। उनके काम का परिणाम यह हुआ कि, महेश्वर नदी शुद्ध सदानीरा होकर बहने लगी। आज खिजुरा गांव बहुतों को दूध-अनाज देने वाला बन गया है। इन्होंने हजारों लोगों को अपने घर गांव में बुलाकर तालाब का काम आगे बढ़ाने का आयोजन किया। बेपानी से पानीदार बन गए।
अब तक 10600 वर्ग किमी क्षेत्रफल में 1200 से अधिक गांवों ने अपने हाथों से 11800 से से ज्यादा तालाब बनाकर देश भर की 12 छोटी-छोटी नदियांं- सरसा, रूपारेल, भगाणी, जहाजवाली, अरवरी, सैरनी, जहाज वाली, साबी और महेश्वरा राजस्थान में, अग्रणी व महाकाली को महाराष्ट्र में तथा ईचनहल्ला नदी कर्नाटक में पुनर्जीवित की हैं। अब भू-जल का स्तर ऊपर आकर नदियों को सदानीरा बना रहा है। बढ़ते ताप और बिगड़ते मौसम के मिजाज को भी तालाबों की नमी हरियाली बनाकर ठीक कर रही है। वातावरण के कार्बन को पेड़ अपने पत्तों, तनों और जड़ों में जमा कर लेते हैं। अतः तालाब जैसा छोटा स्थानीय काम वैश्विक समस्या बिगड़ते मौसम के मिजाज और धधकते ब्रह्मांड को संतुलित करने का उपचार साबित हो रहा है।
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मेवात में न्याणा, बाजोट, ईस्माइलपुर (किशनगढ़) हसनपुर, मिर्जापुर, जाटमालियर, बाघोर, आदिपुर-सादिपुर, सरेटा(तिजारा) सेवल, तेसिंग(भरतपुर) डीलमकी, नीलमकी(तावडु), डौला(बागपत) के बहुत ही गांवों ने अपनी बर्षा की बूँदों को सहेजकर पानीदार बना लिया है। मेवात का समाज मेहनत करने का जब भी खड़ा हुआ है, तभी अभी उसने विजय हासिल की है। यह सच है। अब यदि ये पानी बचानें में जुट जाएँ तो ये भी पानीदार बन जाएँगे।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।