[the_ad_placement id=”adsense-in-feed”]
रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
मेरी प्राथमिक शिक्षा अपने ही गांव में पूरी हुई। छठी कक्षा में दाखिला नारनौल के प्रतिष्ठित भूपेंद्रा हाई स्कूल में लिया, जो पांच कोश दूर कहा जाता था। हमारी कक्षाओं का समय दोपहर के बाद हो गया। गांव से मैं अकेला ही इस विद्यालय में जाता था। मेरे साथ पढ़ने वाले अधिकतर साथी पटीकरा हाई स्कूल में पढ़ने जाते थे। यह विद्यालय नारनौल रेलवे स्टेशन के पास बसे गांव में था।
[the_ad_placement id=”content-placement-after-3rd-paragraph”]
घरवालों को चिंता बनी कि गर्मी में भरी दोपहरी में तथा ठंड में शाम को अकेले आना जाना कैसे संभव होगा। उनकी इस चिंता का हल खोजा जाने लगा। सुझाव आया कि सबके साथ पटीकरा में नाम लिखवा दिया जाए। अपन को किसी भी मूल्य पर यह स्वीकार नहीं था। तय हुआ कि पिताजी के पास दिल्ली जाकर पढ़ाई की जाए। इसमें परिवार की चिंता शुरू हुई कि अकेले वहां कैसे रहेगा। ऐसी सब चिंताओं से मुक्त हो कर आखिर तय हो गया कि दिल्ली ही में पढ़ाई-लिखाई होगी। अपना नाम दिल्ली में लिखा गया। पुरानी दिल्ली अपना डेरा बनी।
यह भी पढ़ें : ग्रामीण बचपन: विविधता का सम्मान
सबको लगता था कि अकेलेपन, गांव, परिवार से दूर, दिल्ली शहर के माहौल में इसका मन नहीं लगेगा। कुछ समय में ही यह हारकर लौट आएगा। इसके लिए अपन ने संकल्प लिया कि एक साल तक मैं गांव ही नहीं आऊंगा। अपने संकल्प को मैंने पूरा पूरा निभाया ही नहीं बल्कि दो साल बाद ही गांव लौटा। यह मेरे साथियों, परिवार, आस-पड़ोस, मौहल्ले वालों के लिए बड़ी चौंकाने वाली बात रही।
मैंने अपने को दिल्ली में वहां की स्थिति के अनुसार ढालने तथा अपनी रुचि के अनुसार कुछ चीजें तलाश कर अपने मन की राह बनाई। जमुना, कम्पनी बाग, कुदसिया बाग, मोरी गेट के मैदानों ने इसमें बड़ा सहयोग दिया। साथ ही दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी (पुस्तकालय), कई सार्वजनिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, गांधी को मानने वाले, स्वैच्छिक संगठनों, स्वतंत्रता सेनानी, व्यक्तियों से संपर्क, संवाद बना। और इन्हीं के माध्यम से अनेक राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय महापुरुषों से मिलने, उनके कार्यक्रमों में शामिल होने का सुनहरा अवसर मिला। अपना समय व्यतीत होता, सीखने समझने-बूझने नया नया जानने का सहज मौका मिलने लगा। अनेक वैचारिक लोगों से मिलने पर विविधता की उपस्थिति मन में कहीं दर्ज हुई। विविधता प्रकृति का सहज स्वभाव है। विविधता जीवन के लिए आवश्यक है।
दिल्ली में ही शिक्षा दीक्षा पूरी की। दिल्ली क्या आया, जीवन भर का यही ठीकाना बन गया। जैसे उड़ी जहाज को पंक्षी पुनः जहाज पर आवे। इधर उधर गया मगर लौटकर फिर दिल्ली आ गया।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]
श्री दीपक भाई, सादर जय जगत। आभार धन्यवाद शुक्रिया। आप सभी स्वस्थ निरोग प्रसन्न होंगे। शुभकामनाएं
रमेश चंद शर्मा