खेत-खलिहान -1
पानी-जवानी-किसानी के भविष्य की चिंता हर काल में रही है। घाघ कवि ने खेती को सर्वोत्तम कहा था, यही भारत की संस्कृति थी। सही में तो सुख-आनंद तो गाँव की किसानी में ही था। स्वतंत्रता आंदोलन में ग्राम स्वराज की बात भी खेती से ही शुरू होती थी। भारत की राजनैतिक स्वराज में ग्राम स्वराज की बात होती थी। भारतीय ज्ञानतंत्र में भविष्य सुरक्षित रखने का चिंतन था। आधुनिक शिक्षा की अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी ने संवेदनशील विज्ञान से रिश्ते तोड़ दिये। परिणामस्वरूप लालची विकास द्वारा ज्ञान का विस्थापन और बिगाड़ से हमारा देश विनाश के रास्ते पर चल पड़ा।
भारतीय किसान सदैव बाढ़-सुखाड़ बादल का फटना, अतिवृष्टि, ओले-पाले की मार झेल कर संयम धीरज और गम्भीरता से विचार कर समाधान खोजकर, अपने जीवन को जागृत रहकर जीता है। पर पानी के संकट बढ़ते ने जवानों को गाँवों से उजाड़ कर शहरों की तरफ जाने हेतु मजबूर किया।गाँव में पानी हो इसके लिए मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के नाम पर कई योजनाओं की घोषणाएँ हुई। लेकिन कहीं भी गाँव में काम होते हुए नहीं दिखे। इसलिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड, कर्नाटक के धारवाड़, रायचूर, मेढ़क, आंध्रप्रदेश के रायलसीमा, तेलंगना के नलगोड़ा क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन हुआ । इस तरह से जवान खेती और गांव छोड़कर शहरों की तरफ लाचार, बेकार, बीमार होकर गए । वे ना सिर्फ वहाँ की जनसंख्या पर दबाव बढ़ाये बल्कि ग्रामीण और शहरी आबादी में बहुत तेजी से फैलते तनाव का कारण भी बने। । इस तनाव को रोकने की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।
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आज किसानों को कोविड महामारी का दोहरा मार भी झेलना पड़ रहा है।आज जब कोविड़-19 जैसी महामारी ने ने आक्रमण किया है तो काम के अभाव के कारण उन्हें फिर गाँव वापस आना पड़ा है। वर्तमान में भारत के 254 से अधिक जिले सूखे से प्रभावित हैं। देश में नदियों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। लाखों गाँवों में पानी का संकट है, देश के कई छोटे बड़े शहरों में 2 दिनों में बमुश्किल से एक बार पानी मिल पा रहा है। किसानी बिना पानी के चौपट हो रही है। जिसके कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नदियों का पानी किसान की जगह उद्योग पतियों को खुलेआम बेचा जा रहा है। छत्तीसगढ़ में महानदी इसका एक जीता जागता उदाहरण है। आदिवासियों और वनवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया है । भूमि अधिकार कानून को लगातार कमजोर किया गया है। विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण के लिए वनवासी और आदिवासियों को बेदखल किया गया है \। दलित और शोषित वर्ग के अधिकारों को कमजोर बनाया गया है । किसानी में बढ़त़ी लागत और उचित बाजार के अभाव में हजारों की संख्या में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। किसान खेती छोड़कर मजदूर बन रहा है। वह त्रस्त है और अंधकार में जी रहे हैं।
आज का जवान मन से खेती करना चाहता भी है तो उसे खेती के लिए पानी और स्वास्थ्य के लिए पेयजल गाँव में उपलब्ध नहीं है। इसलिए वह गाँव छोड़कर लाचारी, बेकारी और बीमारी से बचने हेतु शहर की तरफ जाता है। गाँव में खेती और पीने के लिए पानी होता तो गाय, भैंस, बकरी पालकर, और सब्जियाँ उगाकर पैदा करता। भूमि हीन भी किसानों की जमीन पर खेती करके संतोष से अपना जीवन जी लेता। लेकिन आज उनके गाँव में जीवन के जो भी सहारे थे, वह नहीं दिखते हैं। ‘मनरेगा’ जैसे काम भी सहारा नही हैं। इसलिए गांव में लाचारी की मजदूरी भी नहीं है।
गांव का पानी, किसानी, और जवानी को जीवन देता है। पानी, किसानी और जवानी की तरफ आज किसी भी सरकार का ध्यान नहीं है। प्रकृति और मानवता के संबंधों में बहुत तेजी से गैर बराबरी बढ़ी है। भारत का व्यक्ति अपने को पंचमहाभूतों से निर्मित मानकर इस प्रकृति के एक अंग की तरह मानता था; लेकिन आज वह प्रकृति शोषण की सारी शिक्षाएँ प्राप्त कर रहा है। वह प्रकृति को केवल अपने भोग की वस्तु मानकर इसका जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक उपयोग करके विकास करने का लालच हमें दे रहा है। और हम भी अपने जंगलों को बेरहमी से काट के उसमें अब खनन और जो भी धरती माता के पेट में सोना, चांदी, हीरा, कोयला, पत्थर यूरेनियम मिट्टी, पानी सब कुछ निकालने की कोशिश में लग रहे है।अब पाँच हैक्टेयर तक वन भूमि पर खनन या उद्योग करने की इजाजत अपने जिले के जिलाधीश से मिलने लगी है। यह जिलाधीश उद्योगपतियों के दबाव में आकर हरे-भरे जंगल को भी उद्योगों के लिए दे देता है, जिससे हरियाली नष्ट होती जा रही है और वातावरण में जहरीली गैसें बढ़कर जलवायु का संतुलन बिगाड़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन ने हमारे वर्षा के मौसम को बदल दिया है। अब बे मौसम बारिश होती है। फसल चक्र और वर्षाचक्र का संबंध टूट गया है। यह सब भी हमारे पानी-किसानी और जवानी के संकट को बढ़ा रही है। इन पर एक तरफ जलवायु परिवर्तन की मार, दुष्काल, बाढ़ और प्रकृति का क्रोध एवं दूसरी तरफ सरकारों की बेरूखी है। आज देश में पानी, किसानी, जवानी के नाम पर भ्रामक संकट है। हमारे जन संगठन, संस्थाएं और किसान संगठन सबके बीच में भी भ्रम है। हम अपनी जवानी, पानी और किसानी तीनों को लाचार, बेकार और बीमार होकर अपनी मूल जगह को छोड़कर विस्थापित कर रहे हैं। खेती संस्कृति का भारत देश, इनके विस्थापन से उजड़ा-उजड़ा नजर आने लगा है। किसान, मजदूरों के इस उजाड़ की स्थिति का धरती प्रकृति के ऊपर प्रतिकूल असर हो रहा है।
इस परिस्थिति को बदलने के लिए गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। आने वाला समय भ्रामक ना रहे। उसकी स्पष्टता बनाना हम सबकी अब जिम्मेदारी हकदारी है। किसान संवाद से हमारा आपसी अहसास-विश्वास एवं सुन्दर भविष्य का आभास बनेगा।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।