[the_ad_placement id=”adsense-in-feed”]-डॉ. राजेन्द्र सिंह*
हम जानते है कि विनाश के बाद एक नयी रचना की शुरुआत होती है। जहां हम जन्म देने वाले ब्रह्मा, पालन कराने वाले विष्णु, संहार करने वाले महेश, तीनों की पूजा करते है। ये तीनोें ही महाविस्फोट है, हम जानते है।
13.8 अरब साल पहले ही वस्तुमान, समय और अंतरिक्ष की पहचान हमें हुई थी। इससे पहले क्या था, कोई नही जानता? लेकिन भौतिकी सिद्धांत से इन तीनों का पता चला था।
इस महाविस्फोट के तीन लाख साल बाद भौतिक शास्त्र के सिद्धांत स्थापित होने से वस्तुमान और ऊर्जा के परस्पर संबंधो से अणु निर्माण की प्रक्रिया का पता चला। अणु-परमाणु के सहसंबंधो को समझाने वाला रसायन शास्त्र बना था। अभी तक आरोग्य रक्षण का सिद्धांत, आयुर्वेद और धातुओं से बनने वाले रसायन का संबंध भी उसी प्रक्रिया से बना था। यह वही काल है जिसमें आयुर्वेद का जन्म हुआ। भौतिक सैद्धांतिक तौर पर इस रसायन काल के समान प्राचीन होगा? भारतीय ज्ञान का ठीक ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण की परम्परा नहीं बनी थी।
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भौतिक सिद्धांत पश्चिमी शिक्षा द्वारा स्थापित हुए है। इसलिए इस आयुर्वेद को उसमेें प्रस्तुत नही किया होगा। कहना कठिन है, फिर भी आयुर्वेद स्नातक बनते समय यह गौरव हमारे शिक्षक हम में पैदा करते थे। उसका स्मरण करके लिख रहा हूं। इसलिए आयुर्वेद का ज्ञान शुभ, आरोग्य रक्षको और चिंतको को ही प्राप्त करने का अवसर था। यह भी मेरे शिक्षण काल का स्मरण मात्र है। लोभी लालची लोगों को इस ज्ञान से सोची समझी दूरदृष्टि के कारण अलग रखा जा रहा होगा।
भारतीय ज्ञान तंत्र में स्वैच्छिक ब्रह्मतत्व के अनुसार जीने की कला बहुत ही प्रचलित थी। लोभी- लालची लोगों को इस कला का ज्ञान नही होता था। सबकी शुभ की चिंता करने वाले स्वैच्छिक गरीबी में जीकर , अपने जीवन को चलाने के लिए केवल अपने श्रम से उत्पादन करके जीना जानते थे। उन्हें ब्रह्मतत्व का ज्ञानी कहा जाता है। सामान्य भाषा में उन्हें देवता कहते है। दूसरी तरफ लोभी लालची स्वार्थी लोगों को राक्षस बोला जाता था। राक्षस की बुद्धि बहुत तेज होती थी लेकिन शुभ की चाह रखने वालों की आत्मशक्ति तेज और गहरी होती थी।
राक्षसों से होने वाले प्राकृतिक महाविस्फोट के कारणों का ज्ञान से होने वाले दुष्परिणाम के बारे में उस काल में भारतीय जानते थे। इसलिए भारतीयों ने मानवता को राक्षसों और देवताओं में विभाजित किया था। देवता वह थे, जो सबके शुभ हेतु अपना सर्वस्व देते थे और राक्षस वो थे जो अपने सर्वस्व के लिए सब कुछ लेते थे। इस प्रकार के सामाजिक विभाजन के कारण लाभ और शुभ के आधार पर भारत चलता था।
हम आज इस ज्ञान को और जीवन जीने की पद्धति को अब अपने व्यवहार में नही ला सकते क्योंकि पूरी दुनिया के अपने लिखित संविधान जीवन चलाने के लिए निर्धारित है। हमें अपने लिखित संविधान को मानना और पालन करना ही हमारे जीवन का सर्वाेपरि मूल्य है। वह अब व्यवहार दिखना भी चाहिए। हम अपने सर्वोपरि मूल्य को भूल रहे है और न प्रकृति के संविधान को मान रहे है और न ही लोकतांत्रिक संविधान को मानते है।
जब मनुष्य अपने जीवन के लिए संविधान नही बनाता और सबके लिए लिखित संविधान बना भी लेता है, लेकिन उनकी पालना नहीं करता, तब प्रकृति मानवता को सबक सिखाने के लिए समुद्र में तूफान, बाढ़, सुखाड, ‘सुपरवग्य‘ और आज के कोरोना जैसा रसायनिक महाविस्फोट कर देती है। जब से हम अधिक शिक्षित हुए है, तब से इन महाविस्फोटों की गति भी अधिक तेज हुई है। आज की शिक्षा प्रकृति के विरुद्ध दिखाई देती है।
आज हम चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को भूल गए है, इसलिए प्रकुति के अनुकूलन करने वाले जीवों को चयन करने का चिंतन आज की शिक्षा में दिखता नही है। आज की शिक्षा ने यह मान लिया है कि इंसान अपनी बुद्धि के बल से सब पर कब्जा कर लेगा और इंसान के विरुद्ध प्रकृति जब भी हमला करेगी तो प्रकुति से लड़कर उसका उपचार ढूंढ लेगा। यह हमारी आधुनिक शिक्षा की मूल रचना और तंत्र है। जब आधुनिक शिक्षा का सिद्धांत केवल प्रकृति पर जीत हासिल करना ही हो तब प्रकृति महाविस्फोट करती है। पहले ये महाविस्फोट भौतिक होते थे। ये कोरोना वायरस रासायनिक महाविस्फोट है जैसे- गोला बारुद, युद्ध के मुकाबले परमाणु व रासायनिक युद्ध मानवीय विस्फोट होता है। वैसे ही उससे मिलता जुलता प्राकृतिक महाविस्फोट भी होता है। इसलिए मेरे जैसे अल्प ज्ञानी को यह अंदाज नही हो रहा है कि कोरोना वायरस प्राकृतिक है या मानव निर्मित महाविस्फोट है। इसने पूरी दुनिया के राज और समाज, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा दुनिया की सभी राष्ट्रीय सरकारो को भयभीत कर दिया है। दुनिया में चारों तरफ महाविस्फोट की चिंता और चिंतन दोनों चल रहे है। इससे बचने के रास्ते खोजने पर भी पूरी दुनिया लगी हुई है। लेकिन अब केवल कोरोना से बचना चुनौति नही है, बल्कि आगे और इससे भी ज्यादा खतरनाक महाविस्फोट न रहे, इस हेतु हमें प्राकृतिक महाविस्फोट के इतिहास को जानना और समझना, भारतीय ज्ञान तंत्र में पंचमहाभूतों को भगवान मानकर, भक्ति भाव से उनका रक्षण, संरक्षण करने का कौशल हमें समझना पडे़गा। भारतीयों को ऐसे प्रलय (कोरोना वायरस) का ज्ञान था, इसलिए उससे बचने हेतु अपनी जीवन पद्धति में भगवान को सर्वोपरि शक्ति, प्रकृति के रुप में स्वीकार कर लिया था। इसलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता के इतिहास में प्रकृति से विजय पाने वाला, भारतीय शास्त्रों और इतिहास में प्रकृति से लडने वाले युद्ध का कोई प्रमाण नही है, जबकि भारतीयों ने इस प्रकृति और धरती को मां कहा है। भारतीयों ने अपने लिए सीमाएं बनाई थी। मां पर विजय नही पा सकते उसके साथ सम्मान करके ही जीना है। ‘भारत‘ बोलने में पुर्लिंग शब्द है लेकिन हम भारतीय भारत को माता कहकर पुकारते है और मां युद्ध नही सिखाती, वह अतिक्रमण, शोषण, प्रदूषण नही पढ़ाती है। मां स्वंय अपने बच्चों को पढ़ाती और पोषण ही करती है। इसलिए इस दुनिया में प्रकृति व धरती को मां कहने वाला एक मात्र देष भारत है। पुर्लिंग का व्यवहार, कब्जा करना, प्रदूषण करना और षोषण करना होता है। इसलिए भारतीयों ने प्रकृति को मां मानकर उक्त नही करके पोषण किया था। पोषण करने वाले को पंचतत्वों को भगवान मानकर सम्मान करता था।
आज कल भारतीयों में भी प्रकृति से प्यार और सम्मान मिटता जा रहा है। नही तो कोरोना जैसी बिमारी भारत में आ ही नहीं सकती थी । यह बिमारी तो प्रकृति का शोषण करने वाले समाज और देश में जन्मी है। वहां से हमारे देश में आकर आंतक मचाया है। इस बिमारी के आंतक से आतंकित होने की जरुरत नही है, बल्कि अपने आहार-विहार, आचार-विचार को प्रकृति का अनुकूलन करने की आवश्यक्ता है। यही रास्ता है इस बुरे वक्त में स्वंय संकट से बचने और दुनिया की मदद करने का। हम अपने आरोग्य रक्षण सिद्धांत की पालना करके कोरोना से बचे। वह हार जायेगा और आप जीत जाऐगें। यह दुनिया भारतीय ज्ञानतंत्र के अनुरुप जीनें लगे और प्रकृति के अनुकूलन में अपने आप को जोड़ ले तो फिर कोरोना जैसे रासायनिक महाविस्फोट दस वर्षो में या सौ वर्षो, हजार वर्षो में नही बल्कि लाखों, करोड़ों, अरबों, खरबों वर्ष में ही पहले की तरह ऐसे महाविस्फोट होगें, जैसे पहले होते थे।
क्या कोरोना को हराकर एक बार फिर भारत विश्वगुरु बनेगा? हां बन सकता है। अपने पुराने प्राकृतिक रिश्तों को फिर से निर्मित करने की जरुरत है। हमारा प्रकृतिमय आचरण और व्यवहार ही हमें विश्वगुरु बनाकर रखे था। वही हमारी विरासत है। उसी से पुनः विश्वगुरु बनने हेतु कोरोना पर विजय प्राप्त करें।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात और मैग्सेसे तथा स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित पर्यावरणविद हैं।
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