– डॉ. राजेंद्र सिंह*
भारत सरकार को अब 2022 में किसान की आय दुगनी करने वाली घोषणा पूरी करनी है तो सैन्द्रीय खेती, सामुदायिक पानी प्रबंधन द्वारा स्वावलंबन की तरफ कदम बढ़ाने होगे। वही भारत को स्वराज कायम रखने का पक्का समाधान है। इसी से जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और उन्मूलन होगा। यही भारत के जवान का स्वस्थ्य शिक्षा-रोजगार के अवसर बढ़ायेगा। जल संकट से वायु संकट बढ़ता है। जल संरक्षण ही वायु संकट बढ़ता है। जल संरक्षण ही वायु संकट बढ़ता है। जल संरक्षण ही वायु संकट समाधान है, जलवायु दोनों एक-दूसरे से जुड़े है। भारतीय भाषाओं में दोनों के योग को ही जलवायु कहा है। मैंने 2009 में पहली बार अपने क्षेत्र में आँखों देखे परिवर्तन के आधार पर ही कहा था ‘‘ जल से जलवायु है, जलवायु में जल ही है’’। मेरे इस वक्तव्य को 2015 नवंबर-दिसम्बर में पेरिस समझौते में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में मान्यता मिली थी। एस.डी.जी.-15 में भी शामिल किया था।
भारतीय पर्यावरण आस्था के आधार पर जल ही जीवन है। जीविका और जमीर है। यही भारत की आत्मनिर्भरता का आधार है। अतः जल से जवानी, स्वस्थ्य और स्वावलंबी बनकर स्वराज कायम रखेगी। यही आज के वैश्विक जल-जवानी संकट का समाधान है।
आज जलवायु परिवर्तन से किसान के जीवन में पानी की अधिकता से बाढ़ और कमी से सूखाड़ के कारण फसलें बर्बाद हो रही हैं। जवान-किसान बेरोजगार होकर किसानी छोड़ने को मजबूर, लाचार, बेकार, बीमार बन गया है। इस संकट के समाधान हेतु जलवायु परिवर्तन अनुकूलन-उन्मूलन कराने वाली शिक्षा चाहिए। इसी से हम भविष्य की चुनौतियों का सामना करने योग्य बन सकते है। यह सब सामुदायिक विकेन्द्रित जल, मिट्टी, प्रबंधन द्वारा नदी पुनर्जीवन एवं जलवायु परिवर्तन अनुकूलन से किसानों को स्थायी रोजगार मिलेगा। यही भारतीय किसानों का सनातन विकास बनेगा। आज लालची विकास के नाम पर केवल विस्थापन, बिगाड़ और विनाश हो रहा है।
धरती को चढ़ते बुखार और मौसम के बिगड़ते मिजाज की दवाई वर्षा जल संरक्षण ही है। मिट्टी में जब नमी होती है, वही वातावरण के कार्बन को हरियाली द्वारा मिट्टी तक पहुँचती है। हरियाली की कमी से कार्बन वातावरण में बढती है । यही बे-मौसम वर्षा आज का अकाल, बाढ़ और प्रकृति का क्रोध है। प्रकृति का क्रोध कैसे बना? प्रकृति में क्रोध कौन पैदा करता है? इसका जवाब धरती पर बढ़ती लाल गर्मी है। मानव निर्मित जहरीली गैसों से भरी हुई गर्मी भी लाल गर्मी होती है। जब प्राकृतिक लाल गर्मी सूरज से निकल कर समुद्र के खारे जल को H2O, नीली गर्मी में बादल बना देती है, तब ही यह प्राकृतिक लाल गर्मी होती है। सूरज से निकली गर्मी को ही लाल गर्मी कहते हैं। जब जलवायु में नमी और प्राणवायु बढ़ती है, तब उसे हरी गर्मी कहते हैं। जब हरी गर्मी के प्रभाव से नीली गर्मी मिलती है, तो वर्षा होती है। यही जल जब मिट्टी को मिलता है तो पीली गर्मी जन्म लेती है।
कभी-कभी लाल गर्मी को हरी गर्मी दबाकर उस जगह को खेती और जैव उत्पादन योग्य बनाती है, वही पीली गर्मी कहलाती है। यह ज्यादातर जंगलों, खेतों और उद्योगों के मिश्रित क्षेत्रों में होती है। जब भी धरती पर लाल गर्मी का प्रभाव बढ़ता है, तो प्रकृति का क्रोध बाढ़ और सुखाड़ के रूप में दिखाई देता है। क्योंकि लाल गर्मी के कारण बादल धरती से ऊपर दूर चले जाते हैं। वायु दबाव की गति से बादल बहकर एक-दूसरे बादलों से टकरा जाते हैं, तो पहाड़ पर बाढ़ आ जाती है। बिना बरसे बादल चले जाते हैं तो सुखाड़ आ जाता है। वैसे सामान्यतः बिना बरसे जाने वाले बादल पहाड़ों की तरफ हरियाली से या नमी से आकर्षित होकर वहाँ फटकर अतिवृष्टि कर देते है, यह भी प्रकृति का क्रोध माना जा सकता है। पुराने जमाने में इसे प्रलय कहते थे।
लाल, नीली, हरी एवं पीली गर्मी क्या होती है?
लाल गर्मी – यह दो प्रकार की होती है, एक सूरज से निकलने वाली प्रकृति निर्मित व दूसरी मानव निर्मित। जब सूरज से निकलती है तो उसमें गैस नहीं होती। दूसरी जहरीली गैंसों से भरी हुई लाल गर्मी होती है। दोनों को ही लाल गर्मी कहते है। यह जब धरती पर या नंगी धरती पर या सिंमेंट कांक्रीट भवनों पर पड़ती है तो वह मानव शरीर के लिए घातक होती है, लेकिन वही गर्मी जब समुद्र के ऊपर पड़ती है तो समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाकर बादल बनाती है। तब यह मानव और सम्पूर्ण जैव विविधता एवं प्रकृति के लिए प्राणदायी बन जाती है।
नीली गर्मी – बादल की नीली गर्मी में जलतत्त्व (H2O) ज्यादा होता है। यह गुण धरती पर निर्मित होने से पहले हुए महाविस्फोट से हाईड्रोजन और ऑक्सीजन की उत्पत्ति से आया था। वह मानवीय जगत के लिए बहुत लाभदायी होती है। पूरे जलवायु को बनाने, बदलने के कामों में उसकी भूमिका होती है। यह सदैव धरती और हरियाली की तरफ आकर्षित होती है। यही इस ब्रह्माण्ड में जीवन को आरंभ करती है।
हरी गर्मी – हरी गर्मी में प्राणतत्त्व(O2) एवं जलतत्त्व ज्यादा होता है और दूसरी गैसें भी कम मात्रा में होती हैं। यह जब (H2O) नीली गर्मी से मिल जाती है तो वर्षा होती है। वर्षा का पानी जब मिट्टी के साथ मिलता है तो ही नया उत्पादन होता है। यह जल का लैंगिक उत्पादक तत्त्व है।
पीली गर्मी – इसमें CO2CO, नाइट्रोजन आदि गैंसां का पुंज होता है और यही पुंज नया उत्पादन कराता है, अर्थात हमारी सृष्टि केवल चार प्रकार की गर्मी से ही बनी है।
बाढ़-सुखाड़ को पहले प्राकृतिक क्रोध से जन्मी प्रलय कहते थे। आज-कल इसे बादल फटना, बादल टूटना, एल नीनो और सुनामी जैसे नये नामों से जानते हैं। परंतु यह सब प्रकृति के प्रति सम्मान में आई कमी तथा मानवीय दबाव और दखल बढ़ने से हुआ है। यह दबाव जब तक बढ़ेगा तब तक ऐसा ही प्राकृतिक क्रोध बढ़ेगा। इसे रोकने की अभी बहुत जरूरत है। देश भर में ऐसे प्रयास तो बहुत हुए हैं, लेकिन ये क्षेत्र कम और छोटे थे। इसलिए इनका अच्छा प्रभाव कम स्थानों पर ही दिखाई देता है।
मौसम का मिजाज सुधर गया। धरती का बुखार उतर गया
अधो मरुस्थलीय क्षेत्र (अरावली) में पिछले 37 वर्षों में 10843 वर्ग किलोमीटर में 11800 जल संरचनाएं निर्माण करके माटी का कटाव रोककर मिट्टी में हरियाली बढ़ाने का काम हुआ है। पीली गर्मी और हरी गर्मी का प्रभाव बढ़ने से मौसम का मिज़ाज सुधर गया। धरती का बुखार उतर गया। यह जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और उन्मूलन प्रक्रिया है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रकृति के साथ चली है। इसमें खेती या कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध करने का प्रयास नहीं हुआ। इसी से प्राकृतिक क्रोध कम हुआ है।
अब इस क्षेत्र में बाढ़ सुखाड़ की मार वैसी नहीं है। वर्षा ऋतु में उसी क्षेत्र के वर्षा जल संरक्षित कर के ,वहाँ के कुओं का पुनर्भरण कर दिया है। इससे क्षेत्र में खेती और हरियाली बढ़ी है। पिछले 37 वर्षों में मिट्टी में बढ़ती नमी और हरियाली ने यहां धरती का चेहरा बदल दिया है। मौसम में हरी गर्मी बढ़ने से यहाँ तापक्रम अब पहले जितना ऊपर नहीं जाता। इस क्षेत्र में तापक्रम कम रहने लगा है, लेकिन शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में बढ़ गया है।
जिन क्षेत्रों में नमी और हरियाली बढ़ी है, वहाँ तापक्रम का सामान्य होना, एक सामान्य घटना है। यही सामान्य प्रक्रिया जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन कहलाती है। यही अनुकूलन अब राजस्थान के वर्षा चक्र में परिवर्तन कर रहा है। इसी से यहाँ का फसल चक्र बदला है। राजस्थान क्षेत्र का फसल चक्र अभी तो सुख समृद्धि दायक बन रहा है।
राजस्थान के अलवर, जयपुर, दौसा, करौली, सवाई माधोपुर आदि क्षेत्रों में कई नई सब्जी मंड़ियों का बनना क्षेत्रों में नई घटना है। इससे युवाओं को काम-अर्थ मिला है। काम-अर्थ लालच बढ़ाता है, लेकिन इस क्षेत्र में प्राकृतिक सम्मान भी लोगों के मन में बढ़ गया है। तभी यहाँ जलवायु परिवर्तन अनुकूलन संभव हुआ है। यही दुष्काल और बाढ़ मिटाने का रास्ता है। इसी से प्रकृति का क्रोध शांत होगा और दुनिया में समृद्धि और शांति कायम होगी। मानवीय दिमागी अकाल भी इसी रास्ते से समाप्त होगा।
लालची विकास का रास्ता मानवीय भोग और प्राकृतिक क्रोध को बढ़ा देगा। इसी से बाढ़ और सुखाड़ आयेगा। अकालमुक्ति की तैयारी जल साक्षरता-जल संरक्षण का संवाद है। बाढ़ की हर बूंद को सहेज कर धरती के पेट में रखें। पहले धरती के ऊपर इकट्ठा करें, फिर उसे ही वाष्पीकरण से बचाने के लिए भू-जल भंडारों में भर दें। भू-जल भंडार भरने का काम इंजीनियर नहीं जानते, भू-वैज्ञानिक जानते है। ये दोनों मिलकर काम नहीं करते, इसीलिए भू-जल भंडार खाली करने वाला ही काम हो रहा है, भरने वाला काम नहीं हुआ है।
दुनिया में सबसे ज्यादा भू-जल शोषण भारत में हुआ है। इसी कारण ज्यादा वर्षा होने पर भी वर्ष 2019-20 में भयंकर अकाल की मार रही है। आधे से ज्यादा भारत भूमि पर इतिहास में पहली बार अकाल की मार पड़ी है। 17 राज्यों के 365 जिले जलाभाव झेल रहे हैं। अप्रैल 2020 आते ही गाँव उजड़कर शहरों की तरफ आ गए। गाँव, जंगल व जंगली जीव अपने पानी के लिए तरसते रहते हैं। भारत के शहर अपना पानी समुद्र में बहाते रहते हैं। इसी विषय में तो हमारी बुद्धि पर अकाल है। यह अकाल मिटाने हेतु ठेकेदारी द्वारा होने वाला केन्द्रीय जल प्रबंधन को सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन में बदलना होगा। यह विकेन्द्रित जल – प्रबंधन प्रकृति और मानवता दोनों को ही बराबर जल प्रदान करता है। जल का निजीकरण रोककर सामुदायीकरण करना होगा।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं । प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं ।