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रविवार पर विशेष
-रमेश चंद शर्मा*
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
पंजाब प्रदेश का वह हिस्सा जो अब हरियाणा प्रदेश कहलाता है के जिला महेन्द्रगढ़, तहसील नारनौल, ब्लाक चौधरी नांगल के गांव मंढाणा में अपना बचपन पला पोसा। गांव दो हिस्सों में बंटा हुआ था, बड़ा मंढाणा और छोटा मंढाणा। दोनों के मध्य ज्यादा दूरी नहीं थी, केवल कुछ गीने चुनें खेत ही बीच में थे। आज तो समय के साथ वो दूरी भी खत्म हो गई। फैलते गांव ने दोनों को जोड़ दिया, कुछ घर, दुकान, कुआं, विद्यालय के निर्माण ने यह दूरी दूर कर दी। नारनौल से बहरोड़ को जोड़ने वाली सड़क अब छोटे बड़े दोनों गांव के मध्य में है। यह भी गांव तक दो तरफ से जुड़ती है एक वाया गांव कोजिंदा होकर तो दूसरी वाया गांव सेका होकर। पहले भी नारनौल जाने के यही दो रास्ते थे। सड़क बनने पर थोड़ा परिवर्तन अवश्य हुआ सुविधा के नाम से। पुराने रास्ते थोड़े छोटे पड़ते थे। अब घुमाव, मोड़, बदलाव के कारण कुछ अंतर पड़ना तो स्वाभाविक ही है। पहले गांव के मध्य से राह बनी थी तो सड़क ने बाहर से आने जाने का रास्ता साफ कर दिया।
बचपन में रास्ते की दूरी कम करने के लिए खेतों के मध्य से पगडंडी भी बना ली जाती थी। कभी कभी इन पगडंडियों को लेकर किसानों और राहगीरों में कहा सुनी, गाली गलौज भी हो जाती थी, मगर पगडंडियों का बनना रुकता नहीं था। व्यक्ति, समाज में शार्टकट्स मारने की कुछ आदतें पहले से ही विद्यमान है। कहीं कम कहीं ज्यादा। रास्ता जब दोनों ओर से डोले (मिट्टी से बांध नुमा दीवार जैसी खेत,बाग की सुरक्षा हेतु) बनें होते उसे शेर कहा जाता। जिसमें चलने पर दूर तक केवल राह ही नजर आती। ऐसे रास्ते कुछ ही स्थान पर थे। शेष कच्चे रास्ते दूर दूर तक खुले थे, खेत जंगल से होते हुए।
गर्मियों में इन रास्तों पर प्याऊ का इंतजाम होता था। अक्षय तृतीया से लेकर चौमासा (वर्षा, बारिश) आने तक मटके, झाल (मिट्टी के बने बहुत बड़े मटके,बर्त्तन) पानी से भरकर रखे जाते। ज्यों ज्यों, जैसे जैसे लू गर्म हवा तेज होती जाती मटके, झाल का पानी और अधिक ठंडा होने लगता। मटके झाल का पानी ठंडा रखने के लिए इन पर कपड़ा, टाट पट्टी लपेट कर रखते और बीच-बीच में उन पर पानी डाला जाता। पानी पीलाने के लिए व्यक्ति तय, मौजूद रहता। फूस, सरकंडे आदि से बनी झौपड़ी, किसी पेड़ की गहरी छाया में पथिक को अपनी प्यास ठंडे पानी से बुझाने के साथ-साथ सुस्ताने, थकान मिटाने, आराम, बातचीत के अवसर प्रदान करती। पानी पीलाने वाला भी प्रेम आग्रह पूर्वक पथिक को बैठने को कहता।
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कभी कभी यह बातचीत संगोष्ठी का रूप ले लेती। आने जाने वाले इसमें शामिल हो जाते वक्ता गीने चुने ही होते, मगर श्रोता, सुनने वाले अधिक। कभी कहानी किस्से, कथा, मुहावरे, लोकोक्तियां, पहेलियां, चुटकुले, सवाल-जवाब, टिप्पणी, समाचार, प्रसंग, आपबीती, रागिनी, गीत, दोहे, कविता, चटपटी अटपटी बातें, गपशप, उड़ती फिरती बातें, धार्मिक चर्चा, इतिहास, गणित के सवाल, रामायण महाभारत गीता आदि की गूढ बातें, हंसी मजाक, चंडूखाने की बातें, देश दुनिया, ब्रह्मण्ड की विविधता भरी बातों का सिलसिला जारी रहता। यह सब समय, व्यक्तियों पर आधारित होता कि बातचीत किस ओर जाएगी।
मुझे अनेकों प्रसंग याद आते हैं। नमूने के लिए एक गणित का सवाल जिसमें कई दिनों तक उलझे रहना पड़ता। सौ मन का एक लकड़, जिस पर बैठा मकड़, रत्ति-रत्ति रोज खाए, कितने दिन में लकड़ खत्म हो जाए। बैठे बैठे करते रहो सवाल हल। रत्ति मासा, तोला, छंटाक, सेर, मन बनाते रहो। मजेदार बात यह है कि ऐसे सवाल पूछने वाला आज के हिसाब से देखें तो उसके पास कोई शैक्षणिक योग्यता का प्रमाणपत्र भी नहीं होता था। इनमें से ही अनेक उदाहरण जो जीवन में सबक, सीख सिखाने वाले बन गए। जब तक जवाब नहीं मिलता तब तक सवाल पूछने वाले से नजर बचाकर निकलते, मिलना हो जाता तो बहाने ढूंढते या बगलें झांकते।
ऐसे अवसर आजकल की नई पीढ़ी को सहज क्या, ढूंढने पर भी उपलब्ध नहीं होते हैं। हम लोगों को ऐसे अवसर घर द्वार, आस-पड़ोस, गली-गलियारों, मौहल्लों, खेतों-खलिहानों, रास्तों-चौपालों, किसानों-मजदूरों, ग्वालों, पूर-अलावों (सर्दी में आग जलाकर सेंकना), प्याऊ-तिबारों, बैठे ठालों, खेल मैदान से सहजता, सरलता से उपलब्ध हो जाते थे। हमारे पास कम वक्त भी नहीं था। पढ़ाई-लिखाई, कुछ बनने बनाने का भी दबाव ज्यादा नहीं था। खेलने-कूदने, घूमने-फिरने, मौज-मस्ती, कहानी किस्सों के लिए बहुत समय रहता था।
ज्यादातर लोग दबाव, झुकाव के बजाय बहाव, लहरों में जीते थे। सहज सुलभ सरल साफ सुथरे भोले स्वभाव का व्यक्ति, समाज था। आज की तरह अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए भाग-दौड़, मार-धाड़, छीना-झपटी, लूट-खसोट, झूठ, जुमले या किसी भी कीमत पर कुछ भी करने को तैयार होने वाला व्यक्ति, समाज नहीं था। मर्यादा, मूल्यों का पालन-पोषण करने की चाह मन में रहती। परिवार, कुनबा, समाज, गांव की ओर झुकाव, और उनका दबाव भी मन पर प्रभावी नियंत्रण रेखा रखता। गांव समाज का खुला विरोध करने की हिम्मत बहुत ही कम, कभी कभार ही सामने आती। कोई भी व्यक्तिगत मनमानी करने से घबराता था। गांव समाज में रहने के लिए कुछ कायदे पालन करने ही है, चाहे वह जैसे भी अच्छे-बुरे हो। कायदा जो अलिखित होते हुए भी लगभग पूरे गांव समाज के लिए सर्वमान्य होता था।
पंच बोले परमेश्वर की बात कहीं गहरे मन में पैठी रहती। मेरा गांव मेरा देश है। बाहर दूर से गांव की ओर लौटते समय कहते कि अपने देश जा रहा हूं। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का भाव इस देश के लिए ही लिखा गया होगा। जहां पैदा हुए वह क्षेत्र, जहां हमारी-आपकी नाल गडी हुई है। बच्चे के जन्म पर नाल काटकर घर के आंगन में दबाई जाती थी। इसी से किसी स्थान पर हक जताने पर पूछा जाता था कि यहां क्या तुम्हारी/ तेरी नाल गडी हुई है। जहां नाल गडी हुई है, वही तो जन्म स्थान है। अब तो अस्पताल में पैदा हुए और नाल काटकर कहां फेंक दी जाती है, मालूम ही नहीं पड़ता। लोगों का अपने जन्म स्थान से अटूट विश्वास वाला संबंध, सरोकार रहता था। उसकी याद टीस उठी कि आदमी बेचैनी महसूस करने लगता। “अ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पर जां कुर्बान” इस गीत में कहीं वह दर्द झलकता है। जब इंसान दुःख, कष्ट, संकट, हारी-बीमारी, भय, भेद, खतरे में पड़ता है तो उसे अपने घर गांव की याद बहुत सताती है। सोचता है मैं उड़कर जल्दी से जल्दी तुरंत किसी भी तरह अपने घर गांव पहुंच जाऊं। जिनकी नाल कहीं गडी हुई ही नहीं है, उनकी बात नहीं की जा रही है। वे इस तड़प, दर्द भाव को कितना समझ सकते हैं, कुछ कहना कठिन है। जो इस भाव, अपनेपन को समझ सकते हैं, संवेदनशील है, भावना शील है, वे अवश्य इसकी तीव्रता का अहसास कर सकते हैं।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]
आभार धन्यवाद शुक्रिया।