विशेष आलेख
– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
हमें किसानी के प्राकृतिक संकट और जवानी में शोषण प्रदूषण और अतिक्रमण के विरुद्ध सदा लड़ना ही पड़ा। हम अद्भुत हैं । सतयुग, त्रेत्रा, द्वापर और आज कलयुग में अपने हालातो में सुधार हेतु, लड़ते रहें है। सतयुग में भी नैतिक सिद्धान्तो के लिए युद्व होता था। त्रेता काल में धोखा शुरू हो गया था। राम-रावण युद्व में लूटने वाले बलशाली, चपल-चालाक, फरैबी धोखा देकर सभी पर कब्जा करने वाले, जीवन में जहर घोलने वाले युवा वैज्ञानिक का नाम ‘रावण’ था। दूसरी तरफ से जंगली जानवरों, जंगलवासियों को जोड़कर प्राकृतिक आस्था से परिपूर्ण राम था, जो निशक्तों, निःसहायों को समता से संघटित करके प्रकृति (सीता) को बचाने हेतु लड़ रहा था। यह समता-सादगी से लड़ने वाला युवा राम प्रकृति (सीता) को बचाने में सफलता और सिद्धी प्राप्त कर सका था। इसीलिए उसी काल में ये सबके प्रिय राम को सभी ने सर्वोपरी आदर्श, सब को प्रेरणा देने वाला भगवान मानना शुरू कर दिया था। इसी काल में जब सूखा आया तब राजा ‘जनक’ ने तो अपनी रानी और प्रजा के साथ मिलकर हल चलाया। यही भौतिक विकास की मार को कम किया। श्रममय जीवन, प्रकृति को समृद्ध बनाता है।
द्वापर काल में कंस था, जो गाँवों का घी-मक्खन सभी कुछ अपनी राजधानी मथुरा में मंगाता था। उसके लालच और भोग पूर्ति हेतू उसी काल में भी सूखा और बाढ़ आने लगे थे। गोपालन करने वाला युवा कृष्ण सभी को बचाना चाहता था। ब्रज के सभी ग्वालों को संगठित करके बाढ़ से बचाने हेतु गोवर्धन पर्वत पर ले जाकर बसा दिया। इसलिए कृष्ण का प्रकृतिमय प्रेम भारतीय आस्था को उभार कर प्रकृति रक्षा सिखा रहा था। बहुत सारी लड़ाई में हार कर भी हार नही मानने वाला कृष्ण भी समाज में सफलता पाता है। अन्त में सभी को हरा कर विजय पताका फहराता है। नर-नारियों का हदय सम्राट, भगवान बन जाता है।
अब क्या कलयुगी आन्दोलन लूटेरे की लूट रोकने में सफलता पा रहे हैं ? लुटेरों की ज्यादा जटिल कार्यविधि है। अजादी से पहले युवा महात्मा गांधी ने मैनचैस्टर कम्पनी की कपड़े की लूट रोकने हेतु चरखा चलवाया। अपने कपडे़ की जरूरत स्वयं पूरी करना सिखाया। अन्त में हमें राजनैतिक आजादी मिली पर समाजिक, नैतिक, स्वाबलम्बी, सांस्कृतिक, अध्यात्मिक आजादी हमें नहीं मिली। धर्म और संस्कृति की लम्बी गुलामी ने हमारी आस्था को बीमार कर दिया। हमारी धार्मिक सांस्कृतिक बीमारी दूर नहीं हुई।
हमारी राजनीति ने जातिगत-विभेद बढ़ा दिये। अब सभी पार्टियाँ जातिगत वोट देखकर टिकट देती है। इसीलिए लुटेरों का बल बढ़ रहा है। ये ही नगर, ग्राम पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद में ज्यादा जा रहे हैं। वही लूट के नियम और कानून कायदे बनाते है। आज के कानून कायदे अपराधियों को पकड़ने वाले नहीं, बचाने वालो को फंसाते हैं। जैसे प्रदूषण नियन्त्रण के नाम पर प्रदूषण को बढ़ाने वाले रास्ते बताते हैं।
आज यह सब देख कर ऐसा लगता है जैसे बड़ी कम्पनियों द्वारा भारत का लोकतन्त्र संचालित है। राजनेता अब कम्पनियां द्वारा खरीदे जाते हैं और बेचे जाते हैं । हमारी राजनैतिक गुलामी ईस्ट इण्डिया कम्पनी से हमें मिल गई। राज तो केवल संवेदन हीन होता है। लेकिन कम्पनियों की लूट और षडयन्त्र तो पाताल से भी गहरा और भयानक लुटेरा होता है।
कलयुग के आन्दोलन में मीडिया की भूमिका सबसे बड़ी बनती है। आज के जन आन्दोलनकारी नेता तो पांच तरह के हैं। कुछ तो केवल अपनी हैसियत बनाने मे जुटे हैं। जिनकी इच्छा केवल राज्य शक्तियॉँ पाने की है। इनको सफलता मिली तो ये भी ऐसे ही विकास की गुहार करके विनाश की राह पर चलेंगे। दूसरे आन्दोलनकारियों को साध्य की स्पष्टता तो है। लेकिन साधना शक्ति और साधन इनके पास नहीं है। इसलिए प्रभावी जन आन्दोलन नही बना पा रहे हैं। लेकिन इनका सांचा ठीक है। परन्तु पगडण्डी पर चलने वाले आन्दोलनकारी, आज की हवाई उड़ान और आठ लाईन वाली सड़कों के हाइवे पर ये नही चल सकते हैं । आज का समाज जो आन्दोलन करता है। वे तो हवाई जहाज और एक्सप्रेस में उड़ने वाला नेता ढूंढ रहे हैं।
तीसरे जन आन्दोलनकारी प्राकृतिक संसाधनो को ही जीवन, जीविका और जमीर सभी कुछ मानते हैं। ये शोषण, प्रदूषण, अतिक्रमण रोकने हेतु संघर्षरत रहते हैं। जहाँ-तहाँ सफलता मिल रही है क्योंकि ये आन्दोलनकारी और जिनके लिए आन्दोलन हैं उनमें समता सादगी है। आन्दोलन कारी संयमी, शक्तिशाली और संगठनकारी है। इसीलिए ये असरकारी है।
जिन आन्दोलनकारियों की जीवन पद्वति में कहने और करने में समता है वे ही सफल हुए है। देश की किसानी, जवानी, पानी संकट अहिंसक सत्याग्रह से हल होगा। किसानी, पानी, जवानी गहराई से जुड़े है। इसलिए इनको मिलाकर आज काम करने की जरूरत है।
भारत की किसानी, जवानी, पानी का समृद्ध इतिहास है। चम्पारण में नील किसानों को संगठित करके रामकुमार शुक्ला ने महात्मागांधी के नेतृत्व में पहला किसान सत्याग्रह किया था। सर छोटू राम जी ने भी किसानों को संगठित करके, किसानों के उत्पादन के दाम, किसान ही तय करें। यह आवाज उठाई थी। इनसे पहले और बाद में भी भारत में समय-समय पर बहुत बड़े किसान आन्दोलन हुए। कोई भी बड़ी घटना में सभी कुछ एक जैसा और एक रूपता में चलाने की कल्पना करना असंभव है।
2016 में पलवल से दिल्ली, 2018 में नासिक से मुम्बई इसी प्रकार नंदुरबार से मुम्बई, हरिद्वार से दिल्ली किसानों द्वारा संसद घेराव की घोषणा आदि ऐसे बहुत से आंदोलन समय-समय पर किसानों ने किए है। किसान आंदोलन का इतिहास भारत में बहुत समृद्ध है। मार्च 2018 भारत में एक बार फिर किसानों के आंदोलनों का उत्कर्ष काल शुरू हुआ, ऐसा लगता है। महाराष्ट्र में नासिक से मुम्बई तक किसानों की अनुशासित मार्च एवं दिल्ली में सभी किसान संगठनों के मोर्चे तथा अन्ना का सात दिन का आमरण अनशन एक बार फिर किसानों को उनकी अपनी ताकत का एहसास करा सका।
किसान इस समय चारों तरफ से कर्ज में डूबा हुआ, बाजार की लूट से घिरा हुआ और सरकारों के भ्रामक तरीकों से डरा हुआ है। फिर भी पिछले कुछ सालों में किसानों की संघर्ष समिति और सभी राजनैतिक पार्टियों के नेताओं की किसानी के संकट पर हुई चर्चाओं ने किसानों को आगे लाकर अपनी फसलों के उचित मूल्य पाने के लिए तैयारी कराई है।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं । प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं ।