उत्तराखंड त्रासदी पर विशेष आलेख
– किशोर उपाध्याय*
हिमालय में लगातार हो रही दुर्घनाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया
ग्लेशियर के टूटने से बर्बाद ये जो रैणी गाँव है, यहीं से चिपको आंदोलन शुरू हुआ था। इस आंदोलन की जन्मभूमि है रैणी। गौरादेवी, जिन्हें चिपको आन्दोलन की जननी माना जाता है, यहीं की थी। मैं भी 2-3 महीने पहले वहां गया था। वहां जो ये डैम पर प्रोजेक्ट चल रहा है वहीं पे हमारा मूवमेंट चल रहा है। उस समय वह के लोगों ने हमें बहुत सारी बाते बताई वहां के प्रोजेक्ट के बारे में।
हम हिमालय को समझ नहीं पा रहे हैं। जो लोग दिल्ली या देहरादून में बैठकर प्रोजेक्ट बनाते हैं उनका यथार्थ से या फिर हिमालय से कोई वास्ता नहीं होता। यही सबसे बड़ी परेशानी है। इतनी सारी त्रासदियां होती जा रही है यहां पर इनसे हम कोई सबक नहीं ले रहे। सर्वव्यापी भ्रष्टाचार की वजह से रिश्वत के ज़ोर पर ठेकेदारों का राज चल रहा है। ना ही कोई पारदर्शिता है। मध्य हिमालय में नया प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए बल्कि उसकी तासीर को समझना चाहिए और उसके लिए एक नीति बननी चाहिए। आज यहाँ कोई नीति है ही नहीं।
मैं प्रदेश का कांग्रेस अध्यक्ष रहा हूँ और कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहा हूँ। जब हमारी पूरी सरकार इस टेहरी बांध के पक्ष में थी तब मैंने उसका विरोध किया था और बोला था कि वह नहीं बननी चाहिए क्योंकि इससे नुकसान होगा। और जब 2013 में हुआ 2014 में जो हरीश रावत जी की सरकार बनी तो हम लोगों ने उसमें कई कदम उठाए। अब सबसे बड़ी परेशानी ये है कि यहां उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी कि सरकार है और केंद्र में भी बीजेपी की सरकार है पर जो वो डॉप्लर सिस्टम हैं वो अब जाके इनस्टॉल कर पाए हैं जिससे कम से कम ये पता चल जाता है कि कहाँ पर किस तरह की स्थिति बन रही है , बादलों में कोई शोर तो नहीं हो रहा है और खराब स्थिति तो नहीं बन रही है। तो मुझे लगता है कि हिमालय के प्रति सरकारों और लोगों का भी एक उपेक्षा का भाव है। कल की त्रासदी एक बार फिर से एक चेतावनी है। आगे भविष्य में इन जैसी घटनाओ की पुनरावृति ना हो उसके लिए सबसे ज़रूरी हैं की मध्य हिमालय के विकास के लिए एक इंक्लूसिव सस्टेनेबल डेवलपमेंट पॉलिसी बने जो अब तक नहीं बनी हैं।
अगर आप देखें तो जम्मू कश्मीर से लेकर कर अरुणाचल तक हिमालय में इतनी दुर्घटनाएं होती ही जा रहीं है। जम्मू कश्मीर में 2-3 साल पहले भूस्खलन और बाढ़ से जान माल की काफी हानि हुई। 2010 में एक इसी तरह की स्थिति उत्तराखंड में हुई और वहां 24 घंटे उसी तरह की बातें होती तो शायद मेरे ख्याल से टेहरी बांध भी नहीं बचता । 2013 में हुआ इतना बड़ा जलजला और केदारनाथ जी के ऊपर बादल फटने और झील टूटने से जो पानी आया उससे भी हमने कोई सबक नहीं लिया।
आप जो आप जो ये मध्य हिमालय के साथ प्रयोग कर रहे हैं , मशीनों से जो वहां पर काम कर रहे हैं उससे बड़ी भारी परेशानी हो रही है। ये नया हिमालय है। हो सकता हैं उसे उससे परेशानियां हो रही है। आपने बांध बना दिया और वहां का सारा मौसम ही बदल गया। यहां हो रहे प्रोजेक्ट पर हाई कोर्ट ने बहुत से सवाल उठाए थे लेकिन तब भी सरकार ने कुछ किया नहीं है।
मुझे लगता हैं की कोई भी सरकार हो, यदि वो हिमालय की भावना की उपेक्षा करती है तो उस के कारण ये सब त्रासदियां होती हैं। इन त्रासदियों से उत्तराखंड के लोगों में असुरक्षा की भावना और बढ़ेगी। सरकार की तरफ से जो पहल किये जा रहे है , वे सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से सही नहीं है। मुझे लगता है कि यह ज़रूरी है कि सरकार को हिमालय कि सुरक्षा को ध्यान में रख कर अपने काम करने के तरीके को बदलना चाहिए, बड़ी मशीनों का उपयोग नहीं करना चाहिए और वहां सुरंगे नहीं बनानी चाहिए। उनको कोई और तरीका निकलना चाहिए।
कल कि घटना में देखिये कितने लोग सुरंग में फंस गए। जब आप इतनी लम्बी सुरंग बना रहे हैं तो उसमे आपको किसी भी दुर्घटना में इनमे फंसे लोगों को निकालने का प्रोविज़न रखना चाहिए। पर आपने ऐसा कोई प्रोविज़न ही नहीं रखा। यदि वहाँ पानी आया तो वहां तक उसे पहुँचने में 5- 10 मिनट तो लगे ही होंगे क्यूंकि ग्लेशियर तो ऊपर फटा था और जब ऊपर से पानी आया तब जो झील थी उसमें जो बांध हैं, वो तो ऊपर है। फिर भी नीचे काम कर रहे लोगों को कोई चेतावनी नहीं मिली। जहां ये लोग नीचे काम कर रहे थे, वहां तक पानी आया और वे फंस गए।
मुझे ऐसा लगता हैं इनका कोई चेतावनी का सिस्टम ही नहीं था। कम से कम चेतावनी का सिस्टम तो होना ही चाहिए था पूरे प्रोजेक्ट क्षेत्र के लिए ताकि किसी भी दुर्घटना कि स्थिति में लोग अपना बचाव कर सके। पहाड़ में 3 किलोमीटर लम्बी सुरंग बहुत बड़ी बात होती हैं अब उस 3 किलोमीटर सुरंग में कितने ही लोग फंस गए ना इसका कोई तुरंत आकलन हो सका और कितने लोग बह गए इसका भी कुछ पता नहीं। यह दर्शाता है कि आप वहां गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम कर रहे थे। जो लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं उनको तो सजा ज़रूर ही मिलनी चाहिए लेकिन जो इस त्रासदी का शिकार हो गए , जो गरीब मज़दूर देश के विभिन्न हिस्सों से मज़बूरी में वहां काम करने आये थे जिनके परिवार जो अनाथ हो गए, उस पर विचार करना चाहिए। ये जो लाख – 2 लाख रुपये का जो मुआवजा सरकार इन्हें देगी क्या उससे इन परिवारों के दुःख के भरपाई हो पायेगी ? उनका इससे काम नहीं चलने वाला। उनके लिए कोई पॉलिसी नहीं है।
*लेखक पर्यावरणविद एवं उत्तराखंड के पूर्व मंत्री तथा पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं।यहाँ प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
प्रस्तुति: संतुष्टि रैना
Very well explained .
We are not learning from our past mistakes.
Nature is giving signals.
Agar ab bhi nahi jage then it will be too late.