आयुर्वेद और कोरोना -4
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
ऐतिहासिक प्रमाणों से पूर्व सृष्टि(प्रकृति) को ब्रह्मा के तप संकल्प से निर्मित माना गया है। अनेक आवर्तनों से होते हुए वापस ब्रह्मा में लीन होने वाली प्रकृति निश्चित कालचक्र के अनुसार सर्जन एवं प्रलय का आवर्तन दोहराती रहती है। बार-बार उत्पत्ति एवं विनाश सृष्टि का ही होता है। इसके अतिरिक्त न किसी वस्तु या भाव की उत्पत्ति होती है, और न ही विनाश।
इस प्रकृति-लीला का चित्र प्रत्येक भारतीय मानस पर अंकित था। पुराणों में इस लीला का जो सुव्यवस्थित कालचक्र दिया गया है, इसके अनुसार प्रकृति की लीला अनादि और अनन्त चलने वाली है। इसके अनुसार प्रकृति-लीला के आवर्तनों का मौलिक कालांश ‘चतुर्युग’ है। आरम्भिक काल आनंद का काल है। इस युग में जीव कर्ता से दूर नहीं है, इसलिए इसे ‘कृतयुग’ भी कहा जाता है। इस युग में जीव-जीव में भिन्नता नहीं है। सभी एक हैं। यूँ भी कह सकते हैं कि इस युग में वर्ण की अभी बात ही नहीं उठी थी। सहज, जटिलतारहित तथा मद, मोह, लोभ, अहंकार जैसे भाव तो उत्पन्न ही नहीं हुए थे। काम नहीं था। जीवन की आवश्यकताएँ बहुत सीमित थीं। जीवन चलाने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता था। इस सहज आनंदमय युग में ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए वेद-रचना भी नहीं हुई थी।
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यह आनंदमय युग लम्बे समय तक चला था, लेकिन समय के साथ-साथ प्रकृति में जटिलताएँ बढ़ती चली गई थीं। सहज चलने वाली व्यवस्था विकृत होने लगी थी। धारण करने वाले तत्त्व की हानि होने लगी थी, कर्ता से जीवों की दूरी बढ़ने लगी, कर्ता को विभिन्न अंशावतारों के रूप में जन्म लेना पड़ा। चूँकि धारण करने वाले तत्त्व की पुनः स्थापना करने के लिए बार-बार अंशावतारों को जन्म लेने से जटिलता बढ़ी व जीवन में गिरावट आई। इस प्रकार ‘कृत’ का अंत होता गया और त्रेता का प्रारंभ हुआ।
आयुर्वेद शास्त्र अनादि है। यह सृष्टि के पूर्व था और ब्रह्म भी सृष्टि के पूर्व थे, जैसा कि-‘अनुत्पाद्यैव प्रजाः श्लोकशतसहस्त्रं च कृतवान स्वयम्भूः।’(सु. सू. अ. 1) तथा-‘ब्रह्म स्मृत्वायुषो वेदं प्रजापतिमजीग्रहत्।’ (वाग्भट सू.अ. 1) से स्पष्ट है। अतः सर्वप्रथम आचार्य ब्रह्म ने सृष्टि के प्रवर्तक दक्ष प्रजापति को आयुर्वेद का उपदेश किया। जब स्वर्ग में आधि-व्याधियाँ उत्पन्न होने लगीं तो देवताओं की चिकित्सा के लिए स्वर्ग के वैद्य अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद का अध्ययन दक्षप्रजापति ने कराया। इसके बाद उसकी उपयोगिता को ध्यान में रखकर इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। यद्यपि तपोबल से भरद्वाज आयुर्वेद के प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आचार्य ब्रह्म के पास भी अध्ययनार्थ जा सकते थे, पर नहीं गये। इसका कारण यह था कि इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया था, पर किसी शिष्य को पढ़ाया नहीं था उन्हें पढ़ाने की लालसा थी, क्योंकि ‘यो हि गुरुभ्यः सम्यगादाय विद्यां न प्रयच्छन्त्यन्तेवासिभ्यः सख्ल्वृणी गुरुजनस्य महदेनो विन्दति’ अध्ययन के बाद अध्यापन करना परमावश्यक होता है।
शास्राणा-मध्ययंन तपः ‘ब्रह्मचर्य’ (ब्रह्मणे मोक्षाय चर्ये ब्रह्मचर्यम्) उपस्थ आदि इंन्द्रियों का निग्रह। ‘व्रत’ अपने मनोनुकूल सिद्धि प्राप्त करने के लिए नियमों का आचरण, और पूर्ण आयु प्राप्ति में विघ्न उत्पन्न करने वाले रोग जब अर्थात् कृतयुग के अंत में उत्पन्न हुए, तब दया के वशीभूत होकर महर्षिगण ने जनता के उनके स्वरूप रोगों की शांति के उपाय पर विचार करने के लिए, हिमालय के एक सुन्दर स्थान पर सभा बुलायी। रोगों की उत्पत्ति एवं शांति पर विचार करने की यह सभा सर्वप्रथम कृतयुग के अंत में हुई थी, यह बात-‘भ्रश्यति तु कृतयुगे केषाश्चिदत्यादानात्’ इत्यादि (वि.स्था.अ.3) से सिद्ध है। यहाँ रोगों का प्रादुर्भाव लिखा है। पूर्वसिद्ध वस्तु का ही प्रादुर्भाव होता है, इससे यह भी सिद्ध होता है कि, कृतयुग के पूर्व भी रोग थे- अर्थात् जैसे युग अनादि है, आयुर्वेद अनादि है वैसे ही रोगों का संबंध भी अनादि है, पर रोगों की उत्पत्ति पूर्वजन्मार्जित पापों का फल है और कर्मविपाक का विषय है। प्राणिमात्र पर दया की भावना से ही यह सभा हुई थी, इसका तात्पर्य यह है कि जो अधिक तपोनिष्ठ महर्षिगण थे वे अपने यह नियम आदि के बल से स्वयं रोगरहित थे। प्रधानतया उन लोगों की सभा प्राणिमात्र के उपकार के लिए ही हुई थी।
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुउत्त्तमम्।
रोगास्तस्या पहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च।।
प्रादूर्भूतो मनुष्याणामन्तरायो महानयम्।
कः स्यात्तेषां शमोपाय इत्युक्त्वा ध्यानमास्थिताः।।
अथ ते शरणं शकं दध्शुर्ध्यानचतुषा।
स वचयति शमोपायं यथापद्मरप्रभुः।।
रोग का धर्मादि प्राप्ति में बाधकत्व-आरोग्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थ का उत्तम(प्रधान) मूल है। रोग उसी कल्याणकारी और मूलस्वरूप आरोग्य (जीवन) को नष्ट करने वाला है। यह रोग मानव जगत में बहुत बड़ा विघ्नस्वरूप उत्पन्न हुआ है। इस रोग की शांति का उपाय क्या होगा, ऐसा कहकर महर्षिगण इस रोग की शांति का मार्ग निकालने के लिए ध्यानस्थ हो गए। जब महर्षिगण ध्यानवस्था में ही वे दिव्यदृष्टि से यह देखें कि शक(इन्द्र) ही हम लोगों के लिए शरण है अर्थात यदि उनके शरण में हम लोगों के लिए शरण है अर्थात् यदि उनके शरण में हम लोग जायेंगे तो वह अमरप्रभु(देवताओं के स्वामी) यथावत् उचित रूप में रोगों की शांति का उपाय बतायेंगे।
आयुर्वेद का उपदेश देने के लिये, सर्वप्रथम दीर्घजीवितीय नामक अध्याय का प्रारंभ किया क्योंकि आगे बतलाया जायेगा कि, मनुष्य के जीवन काल में 3 एषणायें(इच्छायें) होती है। 1- प्राण-एषणा, 2 धन-एषणा, 3-परलोक-एषणा इन तीनों में सर्वप्रथम प्राण-एषणा ही आती है क्योंकि प्राण के अभाव में सभी इच्छाओं का अभाव हो जाता है इसलिये दीर्घ जीवन प्राप्त करने के लिये ऋषियों ने आयुर्वेद का उपदेश सुनना चाहा और भगवान आश्रेय ने उसी का प्रथम उपदेश किया। यहाँ आयु शब्द का अर्थ युग के अनुसार होने वाले आयु-प्रमाण का बोधक है, क्योंकि जीवित और आयु यह दोनों एकार्थवाचक हैं, यह शरीर, इन्दियाँ, मन और आत्मा का संयोग स्वरूप है अर्थात् इन्द्रियादि-संपन्न शरीर और आत्मा के संयोग विशिष्ट काल का ही नाम आयु है। इस आयु का प्रमाण यद्यपि ‘शतायुवैं पुरुषः’ तथा ‘शतं जीवेम शरद’ आदि युक्तियों से 100 वर्ष की ही मनुष्य की आयु मानी जाती है, ऐसा कुछ लोगों का कथन है। पर यह उचित नहीं मालूम पड़ता क्योंकि वि. स्था. के दूसरे अध्याय में सतयुग में मनुष्यों की आयु 400 वर्ष, त्रेता में 300 वर्ष, द्वापर म त्रें 200 वर्ष और कलियुग में 100 वर्ष की बतलायी गयी है। उसके अनुसार तथा भगवान व्यास ने भी ‘पुरुषाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुवर्ध शतायुषः कृते’ से कृतयुग में 400 वर्ष आयु मानी है।
अतः शतम् पद सर्वनाम शत-वाचक है, अर्थात् सैंकड़ों वर्ष जीने की कामना करता है या सैकड़ों वर्ष मनुष्यों की आयु होती है, यह अर्थ किया जाता है, इसलिए यहाँ अधिक दिन जीने की इच्छा का तात्पर्य युगानुसार पूर्ण आयु को प्राप्त करना है, क्योंकि पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इस पुरुषार्थ-चतुष्टय प्राप्ति के लिये ही भिन्न-भिन्न युगों में अवतरित है।
त्रेता युग एक राजा व एक वेद से आरंभ होता है। इसमें मद, मोह, लोभ, अहंकार जैसे मनोविकारों की उत्पत्ति होने लगी। प्राथमिक अवस्था के कारण मानवीय मर्यादाओं से इन पर नियंत्रण हुआ। सीमित आवश्यकताओं के इस युग में मानव कुछ कलाकौशल व तकनीक सीखने लगा। इससे जीवन की जटिलता तेजी से बढ़नी आरंभ हो गई। जीव-जीव में विभिन्नताएँ तो बढ़ी लेकिन आपसी सम्पर्क एवं संवाद में कोई व्यवधान अभी तक नहीं आया था। तभी तो इस युग के अंशावतार थे राम। राजा होते हुए भी भोगवादी संस्कृति को रोकने हेतु उन्होंने वानरों, भालुओं, पशु-पक्षियों को इकट्ठा करके प्राकृतिक विजेता बनने एवं ‘रावण’ को समाप्त करने की योजना बनाई थी। तकनीकी ज्ञान में निपुण, भोगवादी रावण, अपने तकनीकी तंत्र के बल पर प्रकृति के अंग वर्षा, हवा, सूरज, आकाश और धरती पर अपना नियंत्रण कर बैठा था। प्रकृति के अधिकतर हिस्से( देवता रूपी हवा, इन्द्र, वरूण आदि) उसकी जेल में बंद थे। उसने आज की तरह सभी सत्ताओं का केन्द्रीकरण करके स्वयं को उसका नियन्ता बनाना चाहा था। उसने अपने नैसर्गिक सुख के लिए एक अशोक वाटिका आज के वन्य जीव अभ्यारण्यों की तरह से बनाकर रखी थी, जिसमें वह स्वयं या उसके अपने अभिजात वर्ग के लोगों का ही प्रवेश संभव था। सीता को इस वाटिका में रखना भी हमें ऐसे ही संकेत देता है। हनुमान द्वारा लंका में प्रवेश करके इसे उजाड़ना भी आज के जंगलों में रहने वालों का जंगल के प्रति असंतोष एवं प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जंगल ही उजाड़ने जैसी घटना थी।
यहाँ हनुमान द्वारा सोने की लंका को जलाकर लंका की भोगवादी संस्कृति को समाप्त करने की प्रक्रिया आरंभ हुई दिखती है। वैसे यह प्रक्रिया तो राम की दूरदर्शी सौतेली माँ कैकेयी द्वारा ही आरंभ कर दी गई थी। कैकेयी जानती थी कि राम ही ऐसी नैतिक शक्ति है, जो भौतिकवादी ताकत रावण को समाप्त कर सकती है।
लंका में उस समय भी आज जैसी प्रलोभन, लूटमार, भय और धोखा सब कुछ था। सीता को सोने का हिरण दिखाकर अपहरण करने की घटना इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। भोगवादी ताकतों के विरुद्ध नैतिक ताकत खड़ी करने वाली कैकेयी को उस समय इस स्थिति में यह संभव नहीं था कि, आज की तरह जीवन को सुख देने वाली वस्तु का त्याग करके मूल्यों की स्थापना कराने व करने वालों को प्रतिष्ठित कर सके; बल्कि ऐसे लोगों को निंदा व मौत का शिकार होना पड़ा था।
राम-रावण युद्ध नैतिक प्रकृति-प्रेमियों व अनैतिक भोगवादी ताकतों के बीच का युद्ध था। इस बात के स्पष्ट प्रमाण युद्ध के आरंभ से लेकर अंत तक हमें मिलते रहे। राम के साथ पशु-पक्षी सब मिलकर युद्ध की तैयारी करते हैं। समुद्र पर पुल बनाना आपसी सहयोग का अद्भुत प्रमाण है। इस तरह से युद्ध में कोई प्रलोभन या धोखा नहीं दिया गया जबकि रावण ने राम-लक्ष्मण को धोखे से उठवा दिया था। उसने परमाणु अस्त्रों का प्रयोग भी किया था। उसके पास बहुत शक्तिशाली अस्त्र थे, लेकिन ये सब भी लंका को बचा नहीं पाये और लंका लगभग समाप्त हो गई। तभी यहाँ की संस्कृति का अंत हुआ। इसके बाद यहाँ के एकमात्र प्रकृति-प्रेमी व नैतिक शक्ति के पोषक विभीषण को वहाँ की सत्ता सौंप दी गई। उसने यहाँ एक नई संस्कृति को पैदा किया।
इस प्रकार संस्कृतियों के आवर्तन-प्रत्यावर्तन होते रहे, जिससे मानव एवं जीवों की सरलता समाप्त होती गई और सभी जीवों तथा भावों में विभिन्नता आने लगी। फलस्वरूप विभिन्न विद्याओं की उत्पत्ति हुई। इनमें भी विभाजन होकर इनसे भी अनेक शास्त्र निर्मित होते रहे। भारतीय इसे द्वापर युग कहते हैं। उक्त घटनाचक्र रामायण महाकाव्य का आधार है। ऐसा भाव यदि वाल्मिक-तुलसीदास जैसे व्यक्ति के मन में आया और उसे करोड़ों लोगों ने स्वीकार किया है, तो मैं इसे तथा कथित प्रमाणों के आधार पर लिखे गये इतिहास से अधिक प्रामाणिक मानता हूँ। द्वापर युग की जानकारी देने वाली रामायण भले ही बाद में रचित हुई हो लेकिन यह भारतीय समाज के लिए किसी भी ऐतिहासिक ग्रंथ से बड़ी है।
वैसे भारतीय दृष्टि से जिसे हम इतिहास कहते हैं, उसका आरंभ द्वापर से ही हुआ दिखता है। इस युग में ही सृष्टि (प्रकृति) अपनी सहजता से बहुत दूर निकल गई थी। सभी जीवों और भावों में विभिन्नता आने लगी थी। इसके कारण विभिन्न विधाओें तथा विद्याओं की उत्पत्ति हुई। इनमें विभाजन होकर इनके अनेक शास्त्र बन गये। जीवनयापन के लिए कलाओं एवं तकनीक की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार सृष्टि की जटिलता बढ़ती गई। खेती भी सरल नहीं रही, अपितु अनाज पैदा करने के लिए प्रयत्न करने पड़े। ‘‘यथा कथा च विधवा अन्नम् बहुकूनीर्त’’- इन विविध शिल्पों और कलाओं के वहन के लिए ही अब एक नया ‘शुद्र वर्ण’ भी निर्मित हो गया। इस काल में ही ईर्ष्या, लोभ, कटुता के कारण पृथ्वी विष्णु से प्रार्थना करती है कि, अब इतना बोझ हो गया है। मेरे लिए सहन करना मुश्किल हो गया है। बिल्कुल आज जैसा भयंकर पर्यावरण संकट उस समय उत्पन्न हो गया था।
इस संकट से बचाने हेतु कृष्ण-बलराम जैसे पर्यावरण संरक्षक (अंशावतार) पैदा हुए। तब भौतिक व नैतिक शक्तियों में युद्ध हुआ। इस युद्ध में भी नैतिक शक्तियों की विजय हुई। इस युद्ध को महाभारत के नाम से जाना जाता है। यह युद्ध भी दो विचारधाराओं का युद्ध था। एक प़क्ष पूरी भूमि व प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करना चाहता था। इसके पास तकनीकी ज्ञान, आर्थिक सत्ता तथा अन्य सभी प्रकार की शक्तियाँ थीं। दूसरे पक्ष के पास पशुपालकों का नेता कृष्ण था, जिसने अपना बचपन गोपालन में बिताया था तथा जंगलों मे रहता था। युधीष्ठिर जैसा प्रकृति-प्रेमी, अर्जुन जैसा भावुक वीर, भीम जैसा मर्यादाओं में रहने वाला बलशाली, नकुल-सहदेव जैसे प्राकृतिक गीत को समझने वाली नैतिक ताकते थीं। ये प्रकृति के चक्र को समझने तथा बचाने की कोशिश करते रहे। इनके नेता कृष्ण प्रकृति चक्र के विषय में गीता में कहते है-
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।
आलस्य या लालच के कारण हम श्रम को टालते हैं और प्रकृति के चक्र को तोड़ते हैं। लोभ में आकर जरूरत से ज्यादा लेने की हमारी कोशिश प्राकृतिक के नियमों को तोड़ती है। प्रकृति की विविधता एक-दूसरे की पूरक है। प्रकृति में सब प्राणियां की आवश्यकता पूर्ति की पूरी सामग्री मौजूद है, लेकिन हम बिना त्याग के भोग करते हैं, तो यह प्रकृति की चोरी है। वास्तव में त्याग और भोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज हम भोग तो करना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी मेहनत नहीं करते हैं। ऐसा करने वाले चोर है-
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भुड्क्ते स्तेन एव सः।।
तुम्हारे यज्ञ अर्थात् श्रम से प्रसन्न होकर ‘देवता’ तुम्हारे लिए इष्ट भोग की वस्तुएं तुम्हें देंगे। इस प्रकार प्रकृति का ऋण चुकाये बिना यानी आवश्यक श्रम किये बिना जो खाता है, वह निश्चय ही चोर है। ईशावास्य उपनिषद् में त्याग और भोग की जो जोड़ी थी ‘‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ (त्याग करके भोग करें) यह भाष्य प्रकृति का चक्र नहीं टूटती है।
इसके कुछ काल बाद ही फिर पर्यावरण विरोधी कलियुग का आना रुकता नहीं तथा महाभारत के कुछ ही वर्षों बाद प्रकृति-प्रेमी श्रीकृष्ण और उनके वंशज यादवों का अंत हो गया और पर्यावरण विनाश की लीला पुनः चालू हो गई।
पाश्चात्य इतिहासकारों की दृष्टि से सिंधु घाटी की सभ्यता वैदिक काल से पूर्व की सभ्यता मानी जाती है। यह सभ्यता 3000 ई.पू. से 1500 ई.र्पू.की अत्यंत उन्नत शहरी सभ्यता मानी जाती है। इस सभ्यता में प्रकृति के प्रतीक पीपल को ही जीवनदाता माना जाता था।
सिन्धु घाटी की सभ्यता से संबंधित मुद्राओं में, बर्तनों (पोटरी) पर मिले पीपल के वृक्ष इस बात के साक्षी हैं। इस काल में पीपल का प्राणदाता, जीवनदाता माना गया है। इस काल में देवता पीपल की टहनियों के मुकुट धारण किये हुए हैं। अपने मुकुट बनाने के लिए ये पीपल के वृक्ष की रक्षा करने के लिए असुरों से लड़ाई करते हैं। उस युद्ध में प्रायः देवता ही जीतते रहे हैं। एक बार असुर जीतकर पीपल की कुछ शाखाओं पर अपना नियंत्रण कर लेते हैं लेकिन शीघ्र ही देवता असुरों को मार देते है। इस प्रकार वृक्षों को भगवान मानकर उनकी पूजा करने का काम इस सभ्यता में जोरों से होता रहा है।
देवताओं, राजाओं व योद्धाओं का सारा ताना-बाना इस वृक्ष के चारों तरफ ही होता रहा है। वृक्ष इस सभ्यता के केन्द्र में इस वृक्ष की रक्षक दिव्य आत्मायें होती थीं। इनका मुख तो मनुष्य जैसा होता था, शेष शरीर कई पशुओं के अंग-प्रत्यंग से मिलकर बना हुआ था। इस प्रकार मुँह को ज्ञान का गुण तथा शेष शरीर को मेढे की तरह तीव्रता, बाघ की तरह कुरूपता व आक्रामक तथा नागराज की तरह जहरीले मृत्युजनक काटने वाले मिश्रित गुणों वाला माना जाता है। कुछ रक्षकों में मुख तथा शरीर एक माने जाते है।
एक मुद्रा पर पीपल के वृक्ष की रक्षा सांड कर रहा है। असुर पीपल की तरफ झपट रहे है, नंदी उनसे पीपल को बचा रहा है। अकेसिया के पेड़ की रक्षा हेतु भी नंदी असुरों से सतर्क अवस्था में खड़ा है। कुछ मुद्राओं में नागराज भी वृक्षों की सुरक्षा के लिए अपना फन उठाये हुए है।
ऐसी भी बहुत सी मुद्राएँ हैं, जिनमें अकेसिया व पीपल के वृक्ष की रक्षा हेतु रेलिंग बनी हुई है। कुछ के चारों तरफ चबूतरा बना हुआ है। कुछ मुद्राओं में वृक्ष की पूजा करती बहुत सी मुद्राओं में वृक्ष अकेला है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि, वृक्ष की पूजा पुरातन काल से ही होती आयी है। इसी कारण इसे यहाँ की प्रजा ने पूर्णरूपेण धारण कर लिया था ।
इस काल में पेड़ -पाठ तो अधिक नहीं करता था, लेकिन किसी प्राकृतिक घटना जैसे पशु, वृक्ष आदि से संबंधित इसका गणचिन्ह होता था। यह आदिकाल के शिकारी-कबीलों के भौतिक जीवन को भी प्रतिबिंबित करता है, जिसमें लोग एक-दूसरे के किसी गोत्र से संबंधित थे। आज विद्यमान ‘धराड़ी’ परम्परा भी गुण चिन्हवाद के अति विस्तृत सामाजिक-प्राकृतिक संबंधों को परिलक्षित करती है। उक्त सिद्धांत प्रकृति-महत्व का प्रकटीकरण है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि सांख्य काल में भी प्रकृति में पूर्ण आस्था थी।
प्रत्येक कबीलें कुलों में विभक्त थे। ये कुलों की अलग पहचान के लिए अपने चिन्ह या झंडे का नाम जानवरों, पौधों, चिड़ियों या प्रकृतिमय वस्तुओं पर ही रखते है। भौतिक जीवन की परिस्थितियाँ आदिकालीन मनुष्यों को उनके चारों ओर के पशुओं या पौधों की दुनिया से बांधे रखती थी। क्योंकि इनका विश्वास था कि पशुओं, पक्षियों या पौधों से उनका रक्त संबंध है। वे अपने गण चिन्ह को अपनी जाति का वंशज एवं पूर्वज मानते थे।
नव पाषाण युग के लोग शिकार की अपेक्षा फसलों की सुरक्षा के विषय में अधिक चिन्तित होने लगे थे। इस परिवर्तन ने उनके मानसिक क्रियाकलापों को भी प्रभावित किया। खेत को जोतते, बोते और फसल काटते समय तथा वर्षा के लिए भी अब जादुई अनुष्ठानों का सहारा लिया जाने लगा। बर्नाल महाशय के अनुसार ‘‘खेती-बाड़ी, फल-फूलों तथा वृक्षों आदि का प्रभाव, जो शिकारी संस्कृति के काल में पशु जीवन पर उसके प्रभाव से परोक्ष रूप में ही समझा जाता था, वह अब जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। वर्षा हेतु अनुष्ठानात्मक जादुई कर्मकाण्ड का एक दूसरा लक्ष्य बन गया है। बसंत और कटाई के उत्सव नियमित रूप से मनाये जाने लगे।’’ ये सब अनुष्ठान लोगों के व्यावहारिक कार्यकलापों से संबंधित थे। इस युग का मुख्य ध्येय फसल बढ़ाना था। इनका विश्वास था कि बच्चे पैदा करने वाली स्त्री तथा फसल पैदा करने वाली धरती में अदृश्य संबंध है। इसलिए फसलों के प्रोत्साहन के लिए स्त्री-पुरुष संभोग अनुष्ठान करते थे।
यह युग भी प्रकृतिमय था, जीवन का प्रत्येक पहलू प्रकृति से प्रभावित था। प्रकृति से अलग जीवन अस्तित्व संभव ही नहीं था। यह पूरा काल जंगली जीवों एवं पेड़-पौधों से चारों तरफ से घिरा हुआ रहा, लेकिन मानसिक विकास के साथ-साथ सुख-सुरक्षा का भान भी जन्मा, जिसके कारण बर्बरता का विकास होने लगा। यह आर्य काल समझा जाने लगा। ये आर्य ऋषि और मुनियों की तरह ‘‘परम ब्रह्म’’ के चिंतन में इतने लीन नहीं थे, जितने कि अपने रहन-सहन की परिस्थितियों को सुधारने वाले साधनों की खोज में लीन हुए दिखाई देते थे।
आर्येतर लोग अधिक उन्नत सभ्यता वाले लोग थे, उन्हें पराजित करना और उनसे लड़ना कोई आसान काम नहीं थे अतः उनके विरुद्ध युद्धों में विजय के लिए आर्यों ने अपने देवताओं से सहायता की प्रार्थना की। तभी से युद्ध शुरू होने से पूर्व इन्द्र की प्रार्थना की जाती है।
‘‘ हे इन्द्र! निश्चल और निर्भीक! तुम शत्रुओं के खिलाफ बिजली की चमक और बादलों की गरज की तरह अपनी तेज तलवार इस्तेमाल करने की शक्ति दो; जिससे आकाश के कोने काँप उठें।
अम्बर को तुमने ही दो खंड़ो में विभाजित कर दिया। इन्द्र की इन शक्तियों के वर्णन के साथ प्रायः उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की भी प्रार्थना की जाती थी।
देवताओं की सेना के एक-दूसरे सेनानायक वरुण भी बलवान और शक्तिशाली थे। इन्होंने ही आकाश को इतना ऊँचा उठाकर पृथ्वी और स्वर्ग को एक-दूसरे से अलग कर दिया था। नदियाँ समुद्र में मिल जाती थीं, किन्तु समुद्र कभी उफनता नहीं था। इससे भी वरुण की शक्ति प्रकट होती थी। ऋग्वेद में वरुण का चित्रण इस संसार के भविष्य का निर्देशन और नियंत्रण करने वाले देवता के रूप में किया गया है।
‘‘वनेषु व्यन्तरिक्ष ततान वाजर्मत्सु पय उस्रियासु।
हृत्यु क्रंतु वरुणों अप्स्वग्निं दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ।।
अर्थात् वरुण ने वनों का सौन्दर्य बिछाया है, मकानों को मजबूत किया है और क्षीर पात्र में क्षीर भर दिया है। वरुण ने ही हृदयों में अच्छे भाव, जल में अग्नि, आकाश में सूर्य और पर्वतों पर ‘सोम’ दिया है। इसी प्रकार आर्यों के महत्त्वपूर्ण देवता थे, अग्निः
ओ जाज्वल्यमान्! तुमने ही अक्षय सूर्य को
आकाश की यात्रा के लिए उद्यत किया।
मानव को प्रकाश प्रदान किया।(ऋग्वेद 10, 130-5)
हे अग्नि देव! तुम शरीर के रक्षक हो रक्षा करो।
तुम ही दीर्घायु देने वाले हो, मुझे दीर्घायु दो।
तुम ही मस्तिष्क को प्रतिभा देने वाले हो,
मेरे मस्तिष्क को प्रतिभा दो।
‘‘हे देव! मेरे शरीर में जो भी कमी है, उसकी पूर्ति करो।’
’‘ एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः।
एकैवोषाः सर्वमिदं विभात्येकं वा इंद विबूभूव सर्वम्’’(ऋग्वेद, 8.58.2)
अर्थात एक अग्नि है, जो अनेक स्थानों पर जलती है, एक सूर्य है, जो सर्वत्र प्रकाशित है। एक उषा है जो इस सबको प्रकाशमान करती है। वह जो परमेश्वर है, उसमें यह सब है।
‘‘अग्नि भी वहीं है, आदित्य भी वहीं,
वायु भी वहीं है, चन्द्रमा भी वहीं,
प्रकाश भी वहीं है, ब्रह्म भी वहीं,
जल भी वहीं है, प्रजापति भी वहीं।(यजुर्वेद, 32.1)
अग्नि, सूर्य और ‘यम जैसे विभिन्न देवता अब एक ही और उसी ईश्वर के रूप में माने जाने लगे :
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपणों गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यंम मातारिश्वानमाहुः।(ऋग्वेद, 1.164.46)
अर्थात् वे उसे इन्द्र, मित्र वरुण, अग्नि कहते हैं और इतने पर भी वह दिव्यता देने वाला गरुड़(सूर्य) है। एक ही गायक को अनेक नाम देते हैं, उसे अग्नि कहो, यम कहो, मातरिश्वन् कहो( एक ही बात है)।
इस प्रकार वेदों में प्रकृति के प्रत्येक अंगों की भगवान-देवता(देने वाले) के रूप में पूजा की गई है।
वेद काल समाप्त होते-होते ब्रह्माण्ड़ की एकता की कल्पना कर ली गयी थी। परमेश्वर की धारणा पूर्णतः उदय हो चुकी थी और पहले के तमाम देवता उसकी इच्छा का पालन करने वाले मान लिये गये थे। वास्तव में अब अधिकांश वैदिक देवताओं की उपेक्षा की गयी। कुछ तो पूरी तरह भुला दिये गये और कुछ की नाम मात्र की मान्यता रह गयी, यद्यपि उन्हें सभी दैविक शक्तियों से वंचित कर दिया गया था। उदाहरण के लिए इन्द्र विद्युत् और मेघगर्जन के देवता मानते जाते थे, नगरों को नष्ट करने वाले (पुरन्दर) माने जाते थे, वह वर्षा करते थे, अच्छी फसलें देते थे और पशुओं का संरक्षण करते थे। किन्तु अब, अवधारणाओं में परिवर्तन के साथ , वह युद्ध करने वालों अर्थात् क्षत्रियों के देवता रह गये। राजा लोग इन्द्र के वंशज माने जाते थे। अन्ततः इन्द्र को परमपिता परमात्मा के मात्र एक ‘‘दिक्पाल’’ के स्तर पर उतार दिया गया।
हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने प्रकृति के रहस्यों के समझने, मनुष्य और प्रकृति के बीच के संबंधों की गुत्थी सुलझाने के लिए जो अनवरत प्रयत्न किये, वेद उनके साक्षी हैं। वेदों के अंतिम अंग, जिन्हें आरण्यक और उपनिषद् कहते हैं, आरण्यक अथवा वन लेख, ब्राह्मणों के परिशिष्ट के समान थे। ये सामान्यतः वेदों की एक श्रृंखला थे। इनमें भी यज्ञ कराने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। उदाहरण के लिए मुंडकोपनिषद् में देखें-
‘‘तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।
अन्नात्प्राणों मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्।। (मुंडक प्रथम भाग)
अर्थात् चिंतन से ब्रह्मा का विस्तार होता है। उससे अन्न का उत्पादन होता है। अन्न से जीवन,(उससे) मन (उससे) यथार्थ (पंचभूत) उससे(संस्कार) उससे कर्मकाण्ड और कर्मकाण्ड़ से अमरतत्व प्राप्त होता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् ब्रह्माण्ड़ के विषय में लिखता है-
‘‘आप ऐवदमग्न आसुरता आप सत्यसृजन्त सत्य ब्रहावहा प्रजापति
प्रजापति देवास्ते देवाः सत्य मेवायाससे………….’’ पांच, एक।।
अर्थात् आरंभ में ब्रह्माण्ड़ जल ही जल था। उस जल ने सबका निर्माण किया, ब्रह्म ही सब है। ब्रह्म ने प्रजापति की सृष्टि की और प्रजापति ने देवताओं की। इन देवताओं ने सबका चिन्तन आरंभ किया। इसी को तैत्तिरीयोपनिषद में इस प्रकार कहा गया है-
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोराग्निः।
अग्नेरापः। अद्भ्यःपृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरुषः।
अर्थात् आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ। इससे प्रकृति तथा आत्मा से मनुष्य उत्पन्न हुआ है। इसके उत्पन्न होने के बाद जीवित रखने वाला मूर्त ब्रह्म अर्थात् वायु एवं वायुमण्ड़ल ही है। यह बात बृहदारण्यक उपनिषद् में के (2-3-1) में कही गई है। इसी उपनिषद् में यह बात भी कही गई है कि, ब्रह्म प्रकृति से परे कुछ नहीं है। वह स्वयं प्रकृति अर्थात् ब्रह्माण्ड़ ही है।
उपनिषद् काल के बाद ब्राह्मणकाल में कर्मकांड जिस रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर गया, उसमें ज्ञान का, संवेदनाओं का ह्रास हुआ। प्रकृति की समझ भी कम होती चली गई। इसी कारण बर्बरता हिंसा-पीड़ा दुख-दर्द बढ़ते चले गये।
सिन्धु घाटी की प्राचीन सभ्यता धीरे-धीरे विकास करते-करते प्रकृति के नियमानुसार समाप्त हो गई है। उसके साथ व बाद में वैदिक सभ्यता का प्रभाव, फिर वेदांत काल, फिर ब्राह्मणकाल से गुजरते-गुजरते यहाँ बर्बरता पनप गई। हिंसा, दुखः-पीड़ा यह सब प्रकृति विरोधी ताकतें खड़ी होने लगीं। प्रकृति विरोधियों में ‘सत्ता’ के लिए संघर्ष, हिंसा बढ़ी और चारों तरफ हाहाकार मच गया। आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व भगवान् बुद्ध जैसे शांति का संदेश देने वाले अवतार जन्में और इन्होंने चारों तरफ अहिंसा का संदेश दिया। इसी काल में भगवान महावीर जन्में जिन्होंने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ को परवान चढ़ाया।
भगवान महावीर ने ‘अयारो’ नाम पुस्तक में कहा है कि पहाड़, मिट्टी, पेड़-पौधे भी मानव की तरह जीव हैं। इनके साथ भी हमारा व्यवहार हमारे शरीर जैसा ही होना चाहिए। इनमें भी हमारे शरीर की तरह जीव का प्रवहन होता रहता है।
‘अयारो’ नामक महान पुस्तक मानव को प्रकृति के साथ व्यवहार करना सिखाती है। आज तो यह पुस्तक मानव को प्रकृति के साथ व्यवहार में लानी मुश्किल-सी लगती है; लेकिन जैन धर्म के उत्कर्ष काल में यह लोगों की आचारसंहिता रही होगी। लेकिन अन्य धर्मों की तरह यह भी कुछ काल बाद विभिन्न सम्प्रदायों में बंट गया।
इसके बाद यहाँ सांख्य दर्शन का प्रभाव बढ़ा। इस काल में प्रकृति को अविनाशी, अनादि और अनंत माना गया था। सांख्य ने सिखाया कि अनेकानेक रूप वाले इस जगत् का क्रमिक विकास प्रकृति अथवा प्रधान से हुआ है, जो बोधहीन और संवेदनाहीन है, अविकसित और अरूप है। उन्होंने इसकी उत्पत्ति पच्चीस सिद्धांतों अथवा तत्त्वों की क्रिया-प्रक्रिया के फलस्वरूप मानी है। उन्होंने इसे उतना ही सहज स्वतः स्फूर्त माना जैसे-गाय दूध देती है, दूध से मक्खन प्राप्त होता है।
वैशेषिक दर्शन में कणाद ऋषि ने परमाणुओं से संसार के विकास की अवधारणा की है। इन्होंने भौतिक तत्वों को ‘‘ क्रियामाणवत् समवायि कारण-मिति द्रव्यलक्षणम्’’ द्रव्यों में बांट कर देखा। पृथ्वी, आप(जल) तेजस्(अग्नि),वायु(हवा आकाश), ईश्वर, काल(समय), दिक्(आकाश), आत्मन्(आत्मा), और मनस्(मस्तिष्क)। उन्होंने कहा- परमाणु न तो मृत्यु है और न ही निष्क्रिय और न स्थैतिक है। यह स्वयं अपने गुणों के आधार पर परिचालित होता है। इन्होंने पहली बार आत्मा को अन्य पदार्थों के समान ही एक पदार्थ माना है, जिसमें चेतना का अस्तित्व माना गया है। बात यहीं से प्रकृति के प्रति आस्था की आरंभ हुई।
कौटिल्य के काल में न्याय लोकप्रिय दर्शन था। इसके अनुसार संसार का गठन करने वाले परमाणविक तत्व (अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) शाश्वत और यथार्थ हैं। इसलिए इस जगत् की उत्पत्ति को समझाने के लिए किसी ईश्वर (अलौकिक प्रकृति शक्ति की अवधारणा) की आवश्यकता नहीं हैं। वैशेषिक एवम् न्याय दर्शन दोनों ने ही आरंभ में तो पदार्थ का कोई स्रष्टा स्वीकार नहीं किया। बाद में इनमें भी प्रकृति (सृष्टि) के रचयिता ब्रह्मा(ईश्वर) की सत्ता को स्वीकार कर लिया गया था।
योग में भी प्रकृति की सत्ता के प्रति आस्था थी। इसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी बुनियादी तौर पर तो अनीश्वरवादी पृष्ठभूमि में चला गया था। लेकिन वेदों की अक्षुण्णता तथा चिरंतन उच्चरित ध्वनियों की पूर्ण पवित्रता का सिद्धांत कर्मकाण्ड़ों और यज्ञों में अन्धविश्वास के साथ मिलकर मीमांसा प्रणाली का सम्पूर्ण आदि और अंत बन गया था।
प्रायः सभी भारतीय दर्शन प्रकृति की सत्ता में विश्वास रखते थे। लोकायत दर्शन के विषय में कहना मुश्किल है। अन्ततः यह बात कही जा सकती है कि प्राचीन भारतीय आस्थाएँ सृष्टि(प्रकृति की सत्ता) को स्वीकार करके इसको अपने चिंतन द्वारा पुष्ट करती रही हैं। यहाँ के दर्शन जैसे लोकायत यहाँ टिक नहीं सका। उच्च आदर्शों के कारण यहाँ का मानव मर्यादित और संयमी जीवन जीकर उच्च शक्तियों को प्राप्त करके परमानंद की कल्पना करता रहा तथा परमानंद को प्राप्त भी कर सका।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।
आज हमारा जीवन सुविधाओं के जाल-जंजाल में जकड़ गया है। ये सुविधाएँ हर आदमी की दिनचर्या को थोड़ी आरामदायक बना रही है। आराम की इस आदत के कारण सुविधाएँ अच्छी लगने लगी हैं और आदमी प्रकृति से दूर चला गया। प्रकृति पीछे छूट गयी है। आदमी सुविधाभोगी बनकर साधनों का गुलाम बन गया है। साधनों के अंबार में कहीं दब गया है। साधन भारी पड़ने लगे हैं और आदमी छोटा दिखने लगा है।
साधनों की अपनी भी एक संस्कृति होती है। एक साधन के पीछे दूसरा साधन आता है। दूसरे साधन का आना पहले साधन की अनिवार्यता होती है। इसी अनिवार्यता के कारण बाजार विकसित होते हैं। मंडियाँ बनती हैं और मंडियों में बोल-बाला सदा पैसे का होता है। मोलभाव का मूल आधार मुद्रा होती है। पूँजी होती है। पूँजी की इस बाजारू संस्कृति के वर्चस्व में आदमी सदा अदना होता है। उसका कोई मूल्य नहीं होता है। होता भी है यदि कुछ, तो वह घटता रहता है, बढ़ता नहीं है।
इस प्रकार हम आज दोहरी संकट से गुजर रहे है। एक तरफ प्रकृति से कटकर, सुविधाभोगी बनकर, पंगु हो रहे है और दूसरी तरफ मंडियों के बीच खड़े होकर अपने को मूल्यवान बनाने की बजाय मूल्यहीन बना रहे हैं। यह मूल्यहीनता एक तरह से हमें मूल्यविहीन भी बना रही है। यही मूल्यविहीनता, हिंसा, नफरत और क्रूरता के रूप में जब-जब मुखरित होती रहती है। मात्र मुखरित ही नहीं होती बल्कि हमें चुनौती रहती है। यही चुनौती आदमी को किंकर्तव्यविमूढ़ बनाती है और वह आदर्शों की बात करना भूल जाता है। आदर्श उसे पराये लगने लगते हैं। आदर्श और व्यवहार का दलील देने वाले तमाम लोग इंसानियत की इस मूल्यविहीन को व्यक्त करते रहते हैं। करुणा-मैत्री, शांति-अहिंसा, और सत्य जैसे मूल्यों को खोकर ही आदमी बनता है, तभी वर्तमान सभ्यता के सामने एक नया संकट खड़ा होता है। यह मूल्यों का संकट है। इसे हम सांस्कृतिक संकट ही कह सकते हैं।
इस सांस्कृतिक संकट में प्रकृति भी खतरे में है और आदमी भी। ऐसे में हमारी दो बड़ी चुनौतियाँ खड़ी हैं। पहली चुनौती है आदमी की अस्मिता की पुनः स्थापना करने की। ऐसी दोहरी चुनौती का सामना हम बिना अपनी जड़ों से जुडे़ नहीं कर सकते। हमें हमारी परम्परा से जुड़ना होगा। अपनी नींव को तलाशना होगा तथा उसकी मजबूती के सहारे नये कल्प की कामना करनी होगी।
21वीं शताब्दी के 21 वर्ष में आयी, यह कोरोना महामारी इस विश्व के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक संकट से जन्मी है, क्योंकि हमारे लालच ने प्रकृति की खाद्य श्रृंखला को तोड दिया। जिससे बहुत सी जाति-प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं। अब हमें मालूम नहीं किस जाति-प्रजाति के विलुप्त होने से यह कोरोना वायरस इंसानों पर आ गया। दुनिया भर का कहना है कि, चीन के बुहान के जंगल में चमगादड़ रहती थी, वहाँ पर बड़े उद्योग लगने से वहाँ के चमगादड़ खत्म हो गए और यह वायरस इंसानों पर प्रभावी हो गया। यह दुनिया के विशेषज्ञ व वैज्ञानिकों का मत है। जबकि पूँजीवादी राजनेताओं का मत है कि चीन ने वायरल वायरस युद्ध(वायरल वॉर) लिए वहाँ के स्वयंसेवकों व राजनेताओं का बयान है कि, यह वायरस हमारी प्रयोगशाला में नही, हमारे माँस के बाजार से आया है। सभी के अलग-अलग मत के बाबजूद हम इसी बात पर पहुँचते है कि, यह वायरस इंसान के लालच से जन्मा है, जब तक प्रकृति का संतुलन बना था, तब तक वायरसों के दूसरी प्रजातियों को पनपने नहीं देता था। वह कौन सी प्रजाति थी कोई नहीं जानता। मैं, आयुर्वेद के अनुभव से यह जरूर कह सकता हूँ कि, जब राजा और प्रजा अपने शुभ के लिए आरोग्य रक्षण को भूल जाते है तब जनपद्द्वोध्वंश व्याधि आती है।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
Very👍 good and elaborate information worth reading jal purush has deep study of Ayurveda also.