[the_ad_placement id=”adsense-in-feed”]
हमारा पर्यावरण
क्यों है जलवायु परिवर्तन के भयावह संकट से बेखबर दुनिया
-ज्ञानेन्द्र रावत*
[the_ad_placement id=”content-placement-after-3rd-paragraph”]
आज जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी में समूची दुनिया, पर्यावरण और प्राणीमात्र के जीने-खाने और अच्छी सेहत जैसे बुनियादी अधिकारों के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। तापमान में बेतहाशा बढ़ोतरी और मानसून के पैटर्न में आया बदलाव इसके प्रमुख कारण हैं। इसका घातक असर स्वास्थ्य, कृषि, उत्पादकता, पलायन और अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा। भारत जैसे देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी जो देश की कुल जीडीपी की कुल 2.6 फीसदी के बराबर होगी। जलवायु परिवर्तन से यहां एक हजार से ज्यादा हाॅटस्पाॅट बन गए हैं। इनमें रहने वाली देश की आधी आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित होगीे। इससे फिलहाल मुकाबले की उम्मीद बेमानी है। इसका सबसे बड़ा कारण वह विकास है जिसके पीछे हम अंधाधुंध भागे चले जा रहे हैं। वही विनाश का सबसे अहम् कारण है। विडम्बना कि इस बाबत अंर्तराष्ट्र्ीय सम्मेलनों में दुनिया के नेताओं के बीच अक्सर खासे बहस-मुबाहसे होते हैं, धरती को इस वैश्विक आपदा से बचाने का संकल्प लेते हंै लेकिन अंततः विकसित देश यह कहकर कि उनको तो विकास चाहिए, इसके लिए दूसरे देशों को बलिदान देने के लिए आगे आना चाहिए, वे बच निकलते हैं। हकीकत में इस असीमित विकास से हुए विनाश की आग में हजारों-लाखों प्रजातियों का अस्तित्व मिट चुका है। और जो शेष बची हैं, वे विलुप्ति के कगार पर हैं। मानव भी इससे अछूता नहीं है।
इस बाबत संयुक्त राष्ट्र् और शोध करने वाले समूह की चेतावनी में कहा गया है कि दुनिया के प्रमुख जीवाश्म ईंधन उत्पादकों ने अगले 10 सालों में अत्याधिक कोयला, तेल और गैस निकालने का लक्ष्य रखा है। इससे वैश्विक पर्यावरणीय लक्ष्य पीछे छूट जायेगा। रिपोर्ट में चीन-अमेरिका सहित दस देशों की योजनाओं की समीक्षा के बाद कहा गया है कि 2030 तक वैश्विक ईंधन उत्पादन पेरिस समझौते के लक्ष्यों से 50 से 120 फीसदी अधिक होगा। साल 2015 के वैश्विक समझौते के तहत दुनिया के देशों ने दीर्घकालीन औसत तापमान वृद्धि को पूर्व औद्यौगिक स्तरों से 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया था। समझौते से इतर 2030 तक दुनिया में कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्र्सजन 30 गीगाटन होगा, जो तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक बनाये रखने में नाकाम होगा। यदि संयुक्त राष्ट्र् पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन की मानें तो वर्तमान में दुनिया में उर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए कोयला, तेल और गैस के ही ज्यादा इस्तेमाल से होने वाले उत्र्सजन से जलवायु लक्ष्यों को किसी भी कीमत पर पूरा नहीं किया जा सकता। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र् महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना सही है कि-’’ ग्रीनहाउस गैसों के उत्र्सजन में कटौती के लक्ष्य अब भी पहुंच से बाहर हैं। समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये कि इस दिशा में हमें तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है। यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो भी 96 करोड़ दस लाख लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा। ’’ इससे स्पष्ट होता है कि यदि यही हाल रहा तो अगले 50 सालों में धरती का तापमान इतना बढ़ जायेगा कि हम कुछ नहीं कर पायेंगे।
असलियत में जलवायु परिवर्तन से समुद्र का जलस्तर बढ़ने से दुनिया के तटीय महानगरों के डूबने और 15 करोड़ के विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। सबसे ज्यादा असर जमीन पर पड़ा है जो दिनोंदिन बंजर होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र् की ’’लैंड डिग्रडेशन न्यूट्र्ीलिटी टारगेट सेटिंग’’ की रिपोर्ट अनुसार भूमि की बर्बादी के चार बड़े प्रमुख कारणों में पहला कारण जंगलों का अंधाधुंध कटान, दूसरा आबादी में बढ़ोतरी और संरचनात्मक ढांचे में बदलाव, तीसरा जमीन का उचित प्रबंधन न होना व खेती के पुराने तौर-तरीके और चैथा बाढ़, सूखा और कम समय में ज्यादा बारिश जैसी मौसमी घटनाएं हैं। इसमें जंगलों में हर साल लगने वाली आग, जिससे 14 लाख हेक्टेयर जंगलों की तबाही और 1200 टन मेगावाट निकली जहरीली गैस के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से वातावरण में ऐसी उर्जा उत्पन्न हो रही है जो मौसम को बेहद गर्म बना रही है। इससे भारत समेत उत्तरी गोलार्द्ध के इलाकों में मौसमी स्थितियां निष्क्रिय हो सकती हैं। इससे भयंकर उष्णकटिबंधीय तूफान आयेंगे। यह वायु और वायु प्रदूषण को ठंडा करते हैं। इनके कारण गर्मी के मौसम में वायु गुणवत्ता ज्यादा दिनों तक खराब देखने को मिलती है। इससे ज्यादा भयंकर तूफान और ज्यादा लम्बे समय तक गर्म लहरों के साथ बेजान दिनों का सामना करना पड़ेगा। मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टैक्नाॅलाॅजी के वैज्ञानिकों ने शोध के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह सब वैश्विक तापमान खासकर आर्कटिक में तापमान बढ़ने से वातावरण में उर्जा पुर्नवितरित होने का नतीजा है।
जलवायु परिवर्तन की सबसे बडी वजह मरूस्थलीकरण है। इसका असर विकासशील देशों के 1.3 से 3. 2 अरब लोगों पर पड़ेगा। बंजर में जमीन के तब्दील होने से मिट्टी में कार्बन की मात्रा कम होने से ग्रीनहाउस गैसों का उत्र्सजन बढ़ रहा है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज की मानें तो बड़े पैमाने पर कार्बन को खुद में समेटे पर्माफ्राॅस्टम या तुषार मिट्टी अब ढीली पड़कर बिखरने लगी है। तापमान में बढ़ोतरी होने पर यह बिखरने लगती है। नतीजतन उसमें समाहित कार्बन डाई आॅक्साइड और मीथेन हवा में घुलेगी। आईपीसीसी की मानें तो खेतों और घास के मैदानों की मिट्टी में कार्बन सोखने की क्षमता प्रतिवर्ष 0.4 से 8.6 गीगीटन होती है। पारंपरिक खेती के उपयोग वाली मिट्टी ग्रीनहाउस गैसों के उत्र्सजन का स्रोत बनी रहती है। जबकि कृषि भूमि की मिट्टी इस्तेमाल में लाये जाने से पहले 20 से 60 फीसदी जैविक कार्बन खो देती है। औद्यौगिक क्रांति के बाद पारिस्थितिक तंत्र में आये बदलाव से मिट्टी में कार्बन की घटी मात्रा की क्षमता मौजूदा चुनौतियांे के मद्देनजर बढ़ाये जाने की जरूरत है। आज दुनिया में 40 फीसदी बंजर हो चुकी जमीन से 6 फीसदी रेगिस्तान को छोड़कर बची 34 फीसदी जमीन पर चार अरब लोग निर्भर हैं। इस पर सूखा, यकायक ज्यादा बारिश, बाढ़, खारापन, रेतीली हवाओं आदि से खतरा और बढ़ रहा है। जबकि पहले से 11.3 करोड़ से अधिक भुखमरी, कुपोषण, 10 करोड़ जल संकट और 52 से 75 फीसदी देश भूमि क्षरण की मार झेल रहे हैं। 21 करोड़ ने विस्थापन का दंश झेला है। भूमि क्षरण से 2007 में 25 करोड़ प्रभावित थे, 2015 में वह 50 करोड़ जा पहुंचे। सदी के अंततक यह दोगुणे से ज्यादा हो जायंेगे। भारत में 69 फीसदी शुष्क भूमि बंजर होने के कगार पर है। उस हालत में इस पर निर्भर लोगों के उपर पैदा खतरे को नकारा नहीं जा सकता। जबकि भूमि का क्षरण दस से बीस गुणा बढ़ गया है। भारत में गंगा बेसिन सबसे ज्यादा संवेदनशील है। जबकि पाकिस्तान में सिंधु बेसिन, चीन में यलो रिवर व चिनयुंग के मैदानी इलाकों से हरियाली पूरी तरह गायब हो चुकी है। यह खतरा एशिया के बाहर के देशों में भी बढ़ा है। उत्तरी अमरीका में यह आंकड़ा 60 फीसदी, ग्रीक, इटली, पुर्तगाल और फ्रांस में 16 से 62 फीसदी, उत्तरी भूमध्य सागरीय देशों में 33.8 फीसदी, स्पेन में 69 फीसदी, साइप्रस में यह खतरा 66 फीसदी जमीन पर मंडरा रहा है। जबकि 54 में से 46 अफ्रीकी देश बुरी तरह इसकी जद में हैं।
जैविक खेती कृषि पारिस्थितिकी और जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती है। इससे जमीन के पानी सोखने की क्षमता बढे़गी। उर्वरकों के इस्तेमाल के खतरों से भी बचा जा सकेगा। यह तभी संभव है जबकि भूमि प्रबंधन के तौर तरीकों में बदलाव हो, मिट्टी की कार्बन सोखने की क्षमता बढ़ाने हेतु गहराई तक जड़ें फैलाने वाले पौधे लगाये जायें। कृषि वानिकी, आर्गेनिक सामग्री के इस्तेमाल, फसल चक्र, मिट्टी की किस्म, भूप्रबंधन की वर्तमान और पूर्व में इस्तेमाल की गई पद्धतियों में बदलाव पर्यावरणीय स्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाये। इससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होगा, मिट्टी की कार्बन सोखने की क्षमता अपेक्षित बिंदु तक पहुंचेगी, फसल उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और किसानों को लम्बी अवधि में लाभ मिलेगा। जहां तक इस दिशा में किए गए प्रयासों का सवाल है, वे सारे प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। बीते साल मैड्र्डि में हुए अंतर्राष्ट्र्ीय सम्मेलन में भी दुनिया के 11 विकसित देशों समेत 73 देशों ने माना है कि अब हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्र्सजन के कटौती के लक्ष्यों में बढ़ोतरी करना ही होगा। इसमें नीतिगत विलम्ब घातक हो सकता है। समय की मांग है कि खनिज ईंधन का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जाये। उस पर अनुदान खत्म किया जाये। कार्बन उत्र्सजन पर जुर्माने की व्यवस्था हो। वैश्विक हरित कोष सक्रिय किया जाये। हरित तकनीक निशुल्क प्रदान की जाये। जलवायु वित प्रबंधन का सर्व सम्मत हल निकाला जाये। सरकारें इन मुद्दों पर शीघ्र निर्णय लें और उत्र्सजन के स्वैच्छिक लक्ष्यों में बढ़ोतरी करें। भारत भले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सजग देशों की पांत में खड़ा दिखाई दे रहा हो, लेकिन असलियत में कामयाबी हमसे कोसों दूर है। केवल नए उर्जा स्रोतों से 40 फीसदी बिजली हासिल कर लेने से कुछ नहीं होने वाला। दुख इस बात का है कि दुनिया इस भयावह संकट से इस सबके बावजूद बेखबर है। आज जरूरी यह है कि हम किसी भी हाल में विकास को पर्यावरण की कीमत पर प्रमुखता न दें। ऐसा न हो कि यह विकास ही मानव सभ्यता के विनाश का कारण बन जाये।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद् हैं।
[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]