विरासत स्वराज यात्रा
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
कोविलपट्टी तमिलनाडु के करुकुरुचि अरुणाचलम बहुत ही योग्य शहनाई वादक थे। इस नांद स्वर सम्राट की विरासत को सहेजने का प्रयास हम कर रहे हैं और इस दिशा में एक बड़े कार्यक्रम का हमने यहां 18 दिसंबर को आयोजन किया के रूप में किया।
इस कार्यक्रम में यहां के बहुत विद्वान, विशेषज्ञ, संगीतज्ञ और पत्रकार लोग शामिल थे। कार्यक्रम में लगभग 250 वाद्य यंत्र, संगीत कला जानने वाले लोगों को मैंने प्रतीक चिन्ह देकर और जस्टिस स्वामीनाथन ने शॉल ओढ़ा कर सम्मानित किया। इस अवसर पर मैंने कहा कि यह भारत की बड़ी विरासत है। अपने मूल भारतीय ज्ञान तंत्र पर आधारित शिक्षा योग, संगीत, आध्यात्म, सभी सांस्कृतिक , सामाजिक, धरोहरों को समृद्ध बनाता है, हमें इसे बचाने में जुटना पड़ेगा। इस आधुनिक शिक्षा ने हमारी विरासत में बिगाड़ कर दिया है।
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इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस स्वामीनाथन ने कहा कि “जीवन और विरासत दोनों एक ही है। जीवन बचेगा तो हमारी विरासत बचेगी। राजेंद्र सिंह पूरी दुनिया में विरासत बचाने का काम कर रहे हैं, इस कार्य में हम सब साथ हैं”।
हमारी यह विरासत यात्रा एक महिना तक तमिलनाडु की विरासत जल, जीवन, जीविका और जमीर को बचाने के लिए, चेतना जगाने का काम किया है। हमने यहां उपस्थिति सभी पत्रकारों, संगीतज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को तमिलनाडु नदी संरक्षण कमेटी में जुड़ने का आवाहन किया।
आज पल्लादम में तमिलनाडु की नदियों का बड़ा नदी सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में तमिलनाडु की सभी नदियों पर काम करने लोग उपस्थित थे। यह सम्मेलन नोय्याल नदी के पास था। इसलिए इस सम्मेलन में सभी की सहमति से नोय्याल नदी संरक्षण समिति का गठन किया गया। यहाँ की वनिता मोहन लगभग 20 साल से नोय्याल नदी को पुनर्जीवित करने के काम में जुटीं हुई है। इन्हें सर्वसम्मति से समिति का अध्यक्ष चुना गया।
इसके उपरांत समिति के संचालक मंडल परिषद का गठन किया गया। संचालक परिषद ने नोय्याल नदी क्षेत्र की किसान समिति, पत्रकार समिति, वैज्ञानिक समिति, इंजीनिरिंग समिति का गठन किया। इसके बाद पल्लाड़ रिवर का चुनाव हुआ, जिसमें कांजीअमुदन को नदी परिषद का संयोजन की जिम्मेदारी दी गई। इस सम्मेलन में तमिलनाडु की सभी नदियों के संयोजकों को चुना गया। यह सभी संयोजक अगले तीन महिना से छः महिनें के बीच में नदी संसद का गठन करके, नदियों में रहे बिगाड़ को ठीक करने का काम करेंगे।
नदियां हमारी माँ हैं, जब इंसान बच्चा होता है, तब माँ बच्चे का मैला धोती है, मगर बच्चा जब बड़ा हो जाता है, तब माँ मैला धोने का काम नहीं करती, माँ केवल मैला धो सकती है, ढो नहीं सकती। आज कल यहाँ की नदियों को मैला ढोने का काम देते है, तब माँ और बच्चे दोनों बीमार हो जाते है। यदि हमें दोनों को स्वस्थ करना है तो प्रकृति के शोषण करने वाली इंजीनियरिंग और तकनीक की जगह प्रकृति का पोषण करने वाली शिक्षा पढ़ाई करनी होगी।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं।