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– डॉ. राजेन्द्र सिंह
भारत का खनन इतिहास यह बताता है कि खनन के मुकाबले, वनों से वनवासियों, वन्य जीवों एवं जैव विविधता का रक्षण और पोषण ज्यादा अच्छा होता है। खनन द्वारा केवल आर्थिक लाभ जो हो रहा है, वह वनों के बने रहने से बहुत कम है। इसीलिए भारत के तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भारत में लगभग 6 लाख हेक्टीयर वन क्षेत्रों को ‘‘नो-गो‘‘ ऐरिया घोषित कराया था। ‘‘नो-गो‘‘ का अर्थ है कि वहाँ के विकास नाम पर कोई भी योजना व परियोजना आरंभ नहीं होनी चाहिए। उस महत्त्वपूर्ण निर्णय को सरकार ने उलटकर, उन्हीं क्षेत्रो में 41 कोल खनन की नीलामी की तैयारी की है। यह नीलामी भारत के संविधान और कानून के विरुद्ध है। इस हेतु कुछ बड़े सवाल इस नीलामी के संदर्भ में खड़े होते हैं।
संविधान ने जनजातियों के वन क्षेत्रों को शेड्यूल-5 घोषित किया है। शेड्यूल-5 का पेरा-5, वहाँ के जनजाति आदिवासियों को विशिष्ट संरक्षण देता है। वहाँ जनजातियों वन क्षेत्रों में सरकार या जनजातियों की सहकारी संगठन ही प्रवेश पाने की इजाजत पाता है। वह इजाजत भी वहाँ की ग्राम सभा की सर्वसम्मति से मिलती है। इसके बिना कोई सरकारी अधिकारी भी उस गाँव में नही जा सकता है। यह ग्राम स्वाराज्य का बड़ा भारी कदम था। इस कदम से जनजातियों का उत्थान होता था और जनजातियों के मन में प्रकृति की पूजा व सम्मान करके उसके साथ अनुकूलन जीवन, जीविका और जमीर को बनाये रखने का एक अध्याय जुड़ा था। लेकिन पाँच राज्यों के पूरे के पूरे खनन क्षेत्र शेड्यूल-5 पेसा के तहत ही आते है। ऐसे में पेसा एक्ट व संविधान का 73वाँ संविधान संशोधन की अवहेलना सरकार क्यों कर रही है?
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कोल के अवैज्ञानिक तरीके से किये गए खनन का दुष्प्रभाव मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ता है। वहाँ के जंगली जानवरों का स्वास्थ्य भी खराब होता है। ऐसे में भारत सरकार मानवीय स्वास्थ्य के संरक्षण व सुरक्षा के विपरीत, कोविड-19 जैसी महामारियों को बार-बार आने का अवसर क्यों प्रदान कर रही है?
कोल के निजी व्यवसाय में भ्रष्टाचार, झूठे दस्तावेज और मजदूरों की हालात आर्थिकी, सामाजिक सभी तरह की सुरक्षाओं के विपरीत केवल व केवल लाभ के लिए काम करने वाली निजी कोल कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण करके, कोल मजदूरों का स्वास्थ्य सुधार वैज्ञानिक पद्धति से खनन का ठीक से प्रावधान व सरकारीकरण करके भारत में कोल का अच्छा कार्य शुरू हुआ था। यह बात जरूर है कि कोल इंडिया अपने देश की जरूरत पूरी नहीं कर पायी लेकिन इसने वनों की बर्बादी को भी रोका है। जिस प्रकार निजी क्षेत्र में होनें वाला बेशुमार खनन हमारे वनों को, हमारे पास जो 20-25 बर्ष के लिए कोल सम्पदा मौजूद है, उसको बचाने की दिशा में अब आगे काम होना चाहिए।
ये निजी कम्पनियाँ भारत के कोल भंड़ारों को लाभ कमाने हेतु बहुत जल्दी ही बेरहमी के साथ खत्म करने का काम करेगी। यह भारत का समय सिद्ध पुराना अनुभव है। जैसे- वो राष्ट्रीयकरण करने से पहले कोल सम्पदा की बर्बादी कर रही थी, वैसे ही पुनः बर्बादी करेगी। हम जानते है कि कोल, सरकार के मुकाबले, निजी कम्पनियाँ दस गुना अधिक लाभ केवल अपने मलिकों के लिए कमाती हैं। रॉयल्टी भी अपेक्षाकृत 6 से 10 गुना अधिक आ सकती है लेकिन यह रॉयल्टी राष्ट्र हित से अधिक राष्ट्रीय हानि ही करती है। भारत में कोल से त्रस्त बीमारों की संख्या बढ़ती जा रही है। बीमारी की चिकित्सा पर रॉयल्टी से कई गुना अधिक निजी व सरकारी स्तर पर खर्च होता है। इस खर्च का ध्यान सरकार क्यों नहीं रख रही है, फिर भी इस खर्च के देखते हुए, पुनः निजी क्षेत्रों में कोल सौंपने का कार्य यह सरकार क्यों करना चाहती है?
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
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