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नई शिक्षा नीति- 2020 की समीक्षा एवं सुधारात्मक आवश्यक सुझाव
– डा. रक्षपाल सिंह चौहान
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिनांक 7 अगस्त -2020 को आयोजित अपने वेबीनार संबोधन में मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति के प्रमुख बिंदुओं एवं उनकी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि इस शिक्षा नीति में देश की समग्र शिक्षा को न्याय संगत, जीवंत, रचनात्मक, जिज्ञासा से ओतप्रोत, प्रेरणादायक एवं जुनूनी बनाने का भरपूर प्रयास किया गया है तथा उसमें विचार विमर्श ,विश्लेषण, अनुसंधान एवं इन्नोवेशन को प्रमुखता दी गई है।प्रधानमंत्री ने देश को वैश्विक ज्ञान की महाशक्ति बनाने, विद्यार्थियों में परिश्रम के गौरव व सम्मान की भावना पैदा करने, सभी शिक्षण संस्थानों को गुणवत्ता परक शिक्षा का केंद्र बनाने व उनमें शिक्षकों की नियमित नियुक्ति प्रक्रिया कराए जाने तथा पूरे देश में प्राथमिक स्तर की पढ़ाई मातृभाषा में ही कराए जाने के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
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गौरतलब है कि विगत लगभग तीन दशक से संचालित नई शिक्षा नीति 1986 यथा संशोधित 1992 को नई शिक्षा नीति- 20 की प्रस्तावना में मार्गदर्शी दस्तावेज कहा गया है जो स्पष्ट संकेत देता है कि नई शिक्षा नीति 1986/ 92 भी एक अच्छी नीति थी और अब इस शिक्षा नीति में समय की मांग के अनुरूप आवश्यक संशोधन करके उसे अधिक प्रभावी एवं धारदार बनाया गया है ।
जब कभी केंद्र की किसी भी सरकार ने देश के लिए शिक्षा नीति का निर्माण किया है तो उसका लक्ष्य रहा है कि देश में शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर देश के सभी बच्चों एवं युवाओं को गुणवत्ता परक शिक्षा मिले और इससे पूर्व में 1963 /64 एवं 1986/92 में बनी शिक्षा नीतियों का भी यही उद्देश्य था और यह भी हकीकत है कि देश की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए समय-समय पर उसमें बदलाव की प्रक्रियाएं भी चलती रही हैं।
किसी भी शिक्षा नीति की लक्ष्य पूर्ति के लिए जरूरत इस बात की होती है कि उसके अनुपालन, अर्थात, क्रियान्वयन में उपयुक्त, चाक चौबंद निगरानी एवं नियंत्रण व्यवस्था भी हो।परंतु ऐसा न होने पर उसके क्रियान्वयन में विकृतियों एवं भ्रष्टाचार का पनपना लाजिमी है ।यही कारण रहा है कि शिक्षा नीति 86/92 के दौरान अनियमितताएं , अव्यवस्थाएं एवं भ्रष्टाचार पनपता रहा और अनेक विद्वानों व शिक्षाविदों द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र लिखे जाने के बावजूद उन पर रोक न लग सकी ।
ज्ञातव्य है कि नई शिक्षा नीति 1986 /92 कांग्रेस सरकार के शासन काल में लागू की गई थी और उचित निगरानी एवं नियंत्रण तंत्र के अभाव में विकृतियां व भ्रष्टाचार भी उसी समय से शुरू हो गया था । लेकिन अफसोस का विषय है कि 21वीं सदी में भी लगभग 10 –10 वर्षों के लिए कांग्रेस एवं भाजपा सरकारें रहीं, लेकिन शिक्षा व्यवस्था की विकृतियों एवं भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने हेतु गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए और परिणाम स्वरूप एक अच्छी शिक्षा नीति 1986/ 92 अपने सभी लक्ष्यों को साधने में कामयाब नहीं हो सकी ।
शिक्षा नीति 1986/92 की अधूरी सफलता के कुछेक कारण
उक्त शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में नियमन, सतत निगरानी एवं नियंत्रण के अभाव में द्रुत गति से स्कूली एवं उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन कार्यरत विभिन्न विधिक संस्थानों यथा एआईसीटीई, एनसीटीई, एमसीआई, एलसीआई, पीसीआई आदि ने भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी । इन विधिक शिक्षण संस्थानों, प्रदेश सरकारों के शिक्षा विभागों के संबंधित अधिकांश आला अधिकारियों, विश्वविद्यालयों के कुलपति- रजिस्ट्रार एवं उनके अधीनस्थों तथा इंस्पेक्शन पैनलों में शामिल वरिष्ठ शिक्षकों शिक्षा अधिकारियों – प्रशासनिक अधिकारियों ने भी निजी शिक्षण संस्थानों के प्रति मान्यता /संबद्धता संबंधी मामलों में इतनी उदारता बरती कि लिफाफा संस्कृति के लालच में नियमों को बलाए ताक रखकर अपने -अपने हस्ताक्षर करने से पूर्व उन्होंने सोचा तक नहीं कि वे देश की शिक्षा व्यवस्था के प्रति एक बहुत बड़ा खिलवाड़ एवं पाप कर्म कर रहे हैं।
शिक्षा नीति 1986/ 92 के क्रियान्वयन में उपयुक्त नियमन, निगरानी एवं नियंत्रण न होने के ही निम्न दुष्परिणाम रहे हैं
- कक्षा 8, कक्षा 5 ,कक्षा 3 के क्रमशः 25 %, 50% एवं 75% सरकारी स्कूलों के बच्चे कक्षा दो की किताब तक नहीं पढ़ पाते।
- अधिकांश हिंदी प्रदेशों में 80% से अधिक स्व-वित्त पोषित माध्यमिक एवं महाविद्यालयों में क्वालिफाइड शिक्षकों की नियुक्तियां ही नहीं, पठन पाठन एवं विभिन्न विषयों का प्रयोगात्मक कार्य नहीं ,विद्यार्थियों की उपस्थिति नहीं, खेलकूद एवं सांस्कृतिक गतिविधियां नहीं, बीएड एवं बीटेक जैसे महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाओं में शून्य व शून्य के आसपास अंक पाने वालों का प्रवेश होना तथा जुगाड़ से डिग्रियां प्राप्त कर लेना आदि विकृतियां बड़े पैमाने पर पनपी।
- कतिपय जिन स्व-वित्त पोषित शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्तियां हुई भी तो उन्हें सरकार द्वारा अनुमान्य वेतन का चौथाई भी वेतन नहीं मिल पाता।
- स्व-वित्त पोषित शिक्षण संस्थानों में विभिन्न विषयों के प्रयोगात्मक कार्य न होने के बावजूद भी परीक्षार्थियों को प्रयोगात्मक परीक्षाओं में 90 से 100% अंक मिलने का आश्चर्यजनक कारनामा होता है।
- शिक्षण संस्थानों को मान्यता देने में नियमों को ताक पर रखा जाना , केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में इंजीनियरिंग -मैनेजमेंट आदि पाठ्यक्रमों के 2371 कॉलेजों को बंद करने का फैसला करना पड़ा। आवश्यकता एवं नियमों के अनुरूप मान्यता दी गई होती तो ऐसी नौबत ही ना आती।
- तीन चौथाई ऐसे प्राइवेट विश्व विद्यालयों को मान्यता दे दी गई जिनमें शिक्षकों व अन्य स्टाफ की स्थाई नियुक्तियां नहीं ,लेकिन महत्वपूर्ण डिग्रियां बांटी जा रही हैं।
शिक्षा तंत्र में पनपी उक्त कतिपय विकृतियां तो एक बानगी भर हैं। उक्त संदर्भ में देश के प्रथम कानून मन्त्री एवं भारतीय संविधान के रचयिता डा भीम राव अम्बेडकर जी द्वारा 25 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान के बारे में दिया गया साक्षात्कार काबिले गौर है जो नई शिक्षा नीति पर सटीक बैठता है। - मुझे लगता है कि यह एक अच्छा संविधान है, लेकिन इसका बुरा होना भी निश्चित है, अगर वो लोग् जो इस पर काम करेंगे वो बहुत बुरे हैं वहीं पर अगर संविधान बुरा हो, लेकिन इस पर काम करने वाले लोग बहुत अच्छे हैं तो यह अच्छा हो जायेगा।
नई शिक्षा नीति-20: एक आदर्श दस्तावेज़, सफलता भविष्य के गर्भ में
प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट द्वारा नई शिक्षा नीति -20 के पांच स्तंभ यथा एक्सेस (सब तक पहुंच) ,इक्विटी (भागीदारी) क्वालिटी (गुणवत्ता), अफॉर्डेबिलिटी (किफायती) और अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) बताए गए थे और यह स्तंभ शिक्षा तंत्र के लिए आदर्श कहे जा सकते हैं । लेकिन 30 करोड़ से अधिक देश के विद्यार्थियों के संदर्भ में इस शिक्षा नीति का आदर्श रूप में क्रियान्वित कराना उन लोगों के ऊपर निर्भर करेगा जिन्हें इस नीति के नियमन, निगरानी एवं नियंत्रण की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। शिक्षा नीति 1986 /92 अच्छी नीति होने के बावजूद विकृतियों ,भ्रष्टाचार एवं आपाधापी का शिकार हो जाने के कारण अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सकी। केंद्रीय शिक्षा मंत्री पोखरियाल ने कहा है कि शिक्षा नीति- 20 के माध्यम से भारत को गुणवत्ता परक, नवाचार युक्त, प्रौद्योगिकी युक्त, भारत केन्द्रित शिक्षा प्राप्त करने में सफलता मिलेगी। मंत्री के उद्गारों को अमली जामा पहनाने के लिये इस शिक्षा नीति को लागू कराने वाली जिम्मेदार-जवाबदेह एवं समर्पित विशाल मानव मशीनरी व धनराशि की आवश्यकता होगी जो एक बहुत बड़ा चैलेंजिंग टास्क होगा। हकीकत ये है कि नई शिक्षा नीति का दस्तावेज़ कम आबादी वाले स्विट्ज़रलैंड, फ़िनलैंड, जर्मनी , फ्रांस तथा अमेरिका जैसे समृद्ध देशों के लिये तो उपयुक्त है, लेकिन भारत जैसे 135 करोड़ से अधिक जनसंख्या और कम संसाधन वाले देश के लिये उपयोगी होने में सन्देह है क्योंकि उक्त शिक्षा नीति को लागू करने के लिये आवश्यक विस्तृत इन्फ्रास्ट्रक्चर , धनराशि एवं अन्य संसाधन के अलावा बहुत बड़ी संख्या में समर्पित , योग्य, ईमानदार, कार्यकुशल कार्यबल की ज़रूरत होगी।
प्री प्राथमिक – प्राथमिक शिक्षा
बेसिक शिक्षा समूची शिक्षा का आधार है और बेसिक शिक्षा की कमजोरी का ही कारण है कि काफी संख्या में विद्यार्थी स्नातक बनने से पूर्व ही ड्रॉप आउट कर जाते हैं और यही कारण है कि देश की जी ई आर (GER) 26 प्रतिशत ही है ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक – शैक्षिक – सामाजिक तौर पर संपन्न और अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति फिक्रमंद समाज के लगभग 20% लोग तो शिक्षा नीति कैसी भी बने, अपने बच्चों को सीबीएसई /आईसीएसई से सम्बद्ध स्कूलों में प्रवेश दिलाकर उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवा ही लेते हैं। समाज के मध्यम आर्थिक – सामाजिक – शैक्षिक स्थिति एवं अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक 15 –20 % अभिभावक भी अपने बच्चों को बेहतर नहीं तो औसत दर्जे की शिक्षा का प्रबंध उन्हें परिषद के निजी, कम महंगे स्कूलों में प्रवेश कराकर करा ही लेते हैं । लेकिन समाज के आर्थिक तौर पर काफी कमजोर , अशिक्षित एवं अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति उदासीन 60- 65 % परिवारों के बच्चे तो मातृभाषा हिंदी एवं गणित के सामान्य ज्ञान से भी वंचित रहते हैं। समाज के गरीब परिवारों के बच्चों की गुणवत्तापूर्ण प्री प्राथमिक व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का प्रबंध तो घोषित शिक्षा नीति-20 से भी असंभव सा ही लगता है क्योंकि विगत 3 दशकों में भी इस वर्ग के 6 साल से ऊपर की उम्र के बच्चों को मिड डे मील , जूते मोजे, पुस्तकें ,बस्ता ,ड्रेस आदि दिए जाने के बावजूद भी पठन-पाठन हेतु उन्हें 4 घंटे के लिए भी स्कूलों में नहीं लाया जा सका, तो 3, 4, 5 वर्ष के बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों पर 3- 4 घंटे के लिए कैसे लाया जा सकेगा? कागजों पर बच्चों की उपस्थिति दिखाए जाने से तो प्री प्राथमिक शिक्षा की खाना-पूर्ति तो होती रहेगी, जैसी कि बेसिक स्कूलों में विगत 3 दशकों में होती रही है। ऐसा किया जाना कमजोर आर्थिक स्थिति के अभिभावकों व उनके बच्चों के साथ अन्याय ही है।
सरकारी बेसिक स्कूलों में विद्यार्थियों की शिक्षा की कमजोरी का प्रमुख कारण शिक्षा का अधिकार कानून-2009 है जिसके प्रावधानों के अनुसार किसी कक्षा के विद्यार्थी यदि कुछ भी न जानते हों, उन्हें आगे की कक्षाओं में प्रमोट किया जाना है। इस तथ्य से सभी अवगत हैं कि विद्यार्थी फ़ेल होने के डर से मन लगाकर पढ़ते हैं, लेकिन उन्हें जब फ़ेल होने का डर ही नहीं रहेगा तो वे क्यों पढ़ने लगे और यही कारण है कि सरकारी स्कूलों के कक्षा 8 के 25 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 की पुस्तक नहीं पढ़ पाते। ऐसी स्थिति में नई शिक्षा नीति-20 से गुणवत्तापूर्ण बेसिक शिक्षा उम्मीद करना बेमानी होगी।
मिड डे मील के वितरण से सरकारी स्कूलों में बच्चों का शिक्षा का स्तर तो नहीं बढ़ा, अलबत्ता स्कूलों में बच्चों की नामांकन संख्या अवश्य बढ़ गई जिससे कम से कम कागजों पर ही सही साक्षरता प्रतिशत तो बढ़ा। ये स्थिति कमजोर वर्गों के गरीब एवं अति गरीब लोगों के साथ छलावा ही है । मिड डे मील के नाम पर बच्चे मात्र 30-40 मिनट के लिये स्कूल आते हैं जबकि स्कूल लगभग 5 घन्टे तक चलता है।इससे स्पष्ट पता चलता है कि सरकार की ही पढ़ाई में रुचि नहीं होती। देश के 60-65 % कमजोर वर्ग के बच्चों को स्कूलों के संचालन के समय में हर हालत में स्कूल परिसर में रोका जाना चाहिये जिससे जिस लक्ष्य को लेकर उनके अभिभावकों ने उनको भेजा है, उस लक्ष्य की पूर्ति हो सके ।
नई शिक्षा नीति – 20 में निरन्तर और व्यापक मूल्यांकन सोच का प्रावधान
ज्ञान / योग्यता का पैमाना विद्यार्थियों की पारदर्शी परीक्षाएं एवं उनका गोपनीय मूल्यांकन ही होता है।आज के शिक्षक तक्षशिला व नालन्दा विश्वविद्यालयों में शिक्षा देने वाले संस्कारित गुरुओं के समकक्ष नीर- क्षीर विवेककारी नहीं हैं जिससे कि वे अपने विद्यार्थियों का निरन्तर और व्यापक मूल्यांकन कर सकें । अधिकांश माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षक आन्तरिक एवं प्रयोगात्मक परीक्षाओं का मूल्यांकन तथा महाविद्यालयों के शिक्षक प्रयोगात्मक परीक्षाओं के मूल्यांकन जिस तरह करते हैं, उससे यह हकीकत स्पष्ट हो जायेगी कि निरन्तर और व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था से काफी बेहतर मूल्यांकन हेतु गोपनीय व्यवस्था ही है।
नई शिक्षा नीति-20 में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये नेशनल टेस्टिंग एजेन्सी (NTA), ग्रुप बी एवं ग्रुप सी केन्द्रीय कर्मचारियों की नियुक्ति हेतु राष्ट्रीय भर्ती परीक्षा, भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग के गठन आदि निर्णय नई शिक्षा नीति के महत्वपूर्ण निर्णय हैं। यदि इनके संचालन के लिये योग्य,ईमानदार, परिश्रमी, दक्ष एवं समर्पित लोगों का चयन हो सका तो इससे देश के शिक्षा तंत्र को ही नहीं बल्कि पूरे देश को ताकत मिलेगी।
हकीकत यह है कि वर्तमान स्थिति में समूचे शिक्षातंत्र में विकृतियां एवं अव्यवस्थायें व्याप्त हैं ,सबसे पहले उन पर नियन्त्रण किया जाना ज़रूरी है। गत शिक्षा नीति 86/92 की कार्य योजना में शामिल कार्यबल की स्वार्थ-परक कारगुजारियों के कारण नीति के संचालन के दौरान विकृतियां व भ्रष्टाचार पनपे थे। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में ऐसे प्रमुख शिक्षाविदों, नौकरशाहों, प्रोफेसरों को शामिल किया जाए जिनकी ईमानदारी, सत्य निष्ठा, सक्रियता कभी संदिग्ध न रही हो। हमारी कामना है कि नई शिक्षा नीति-2020 अपने कार्यान्वयन एवं लक्ष्य में कामयाब हो।
*लेखक प्रख्यात शिक्षाविद एवं डा. बी आर अम्बेडकर विवि शिक्षक संघ आगरा के पूर्व अध्यक्ष हैं। प्रकाशित लेख उनके व्यक्तिगत विचार हैं।
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