रविवारीय
– रमेश चंद शर्मा*
सामाजिक स्वैच्छिक कार्यकर्ता का जीवन
औगन्हारा, औगंगारा, औगुनिया, अवगुनिया जैसे शब्द भी सामाजिक कार्यकर्ता को अपने जीवन में कभी ना कभी सुनने को मिल जाते है। सामाजिक स्वैच्छिक कार्यकर्ता को आमतौर पर लोग विशेषकर परिवार के लोग प्रारम्भ में निकम्मा , नालायक, नकारा, फालतू के काम करने वाला, बेकार मानते है। किसी प्रसिद्ध सामाजिक व्यक्ति, कार्यकर्ता को तो सम्मान से देखते है मगर अपने परिवार का कोई सदस्य अगर उस राह पर चल पड़ता है तो वह उन्हें अच्छा नहीं लगता।
सच्चे, ईमानदार, मर्यादा, अनुशासन पर चलने वाले व्यक्ति को ऊपर से सब प्यार करते है, उसके गुणगान भी बहुत गाए जाते है। जब अपने समीप का व्यक्ति ऐसा बनता है और उनका कोई गलत काम करने से इंकार करता है तो बहुत तरह की बातें बनने लगती है। तब लगभग सबका मन करता है सारे नियम कानून, सच्चाई, ईमानदारी ताक पर रखकर, चाह यही रहती है कि हमारा काम जरुर किसी भी तरह कर देना चाहिए। व्यक्ति का दोहरा चेहरा सामने आता है। सामाजिक, सार्वजनिक कार्यकर्ता को तो इस मामले में कुछ ज्यादा ही सहना पड़ता है।
जब नाम हो जाता है, प्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है, लोग सम्मान से देखने लगते है तो परिवार सहित सभी लोग अपनापन दिखाने लगते है। समर्थ को नहीं दोष गुसांई। चढ़ते सूर्य को सभी सलाम, नमन करते है। कमोबेश ऐसी स्थिति का मुकाबला अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं को करना पड़ा होगा। किसी को हानि नहीं पहुँचाता, करता भी ठीक है, अवगुण भी नहीं हैं मगर अपने गले इसका काम नहीं उतरता। इसके काम धाम हमको समझ नहीं आते। इसका भविष्य में क्या होगा? सारे पागलपन इसी के पल्ले पड़ गए है। यह बदल देगा दुनिया। बड़े बड़े लोग, महापुरुष आए वे जितना कर पाए वह तो ठीक मगर वे भी सब कुछ नहीं कर सके। यह पिद्दी न पिद्दी का शोरबा! यह धरती को सर पर उठाएगा? यह मारेगा तीर? बनने चला है तीसमार खां! अपने को बड़ा समझदार समझता है? यह बदल देगा दुनिया?
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एक अच्छे कार्यकर्ता को अंडे सेने में रूचि नहीं होती मतलब उसे खाली बैठना सहन नहीं होता। वह सतत सक्रिय रहना चाहता है, रहता है। सादा जीवन उच्च विचार का ध्येय उसके सामने होता है। मैं नहीं आप। सेवा, साधना, सोच विचार, जन शक्ति, जन कल्याण ही उसके जहन में रहता है। बुराई देखकर वह अंधा बनकर नहीं बैठ सकता, अंधा बनना, अंधा बनाना दोनों ही उसे पसंद नहीं, उसे तो स्थिति से जूझना ही होगा। वह आधा तीतर, आधी बटेर नहीं बन सकता। आग लगती देखकर तमाशबीन नहीं रह सकता। अपना उल्लू सीधा करने में नहीं लग सकता। अपने मुंह मिंया मिटठू नहीं बना रह सकता। अंटी करना, अंटी मारना उसका काम नहीं है। अंधा पीसे कुत्ता खाय या अंधा बाटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे या अंधेर नगरी चौपट राजा या अधजल गगरी छलकत जाए का भी साथ नहीं दे सकता। वह अंधाधुंध उड़ाने वाला नहीं बन सकता। उसे लोग अंधा समझ सकते है मगर वह लोगों को अंधा नहीं बनाना चाहता। अपने पांव पर चाहे कुल्हाड़ी लग जाए मगर दुसरे, सामने वाले को जरा भी चोट नहीं लगनी चाहिए, इसका ख्याल रखता है। अपनी ढपरी अपना राग नहीं मगर अपनी विचार यात्रा, निष्ठा, संकल्प के लिए एकला चलने की धुन को छोड़ नहीं सकता। चाहे कितनी भी कठिनाई आएं, कष्ट हो। साथियों से, अपनों से, परिवार से दूरी बनानी पड़े। वह अपनी राह नहीं छोड़ता। अकेलेपन से डरना नहीं। अकेले चलने की हिम्मत गवानी नहीं। जो सच है उसके लिए सतत सक्रिय रहकर काम करने की ताकत बनाए रखना उसका धर्म, कर्तव्य है।
अपनी आँख का तारा भी गलती करे तो भी उसकी आँख खुलती है। अपनी गलती पर तो सबसे पहले आँख खुलती है। वह औरों की आँख भी खोलने का प्रयास करता है। अन्याय, बुराई, गलती, झूठ, शोषण के साथ वह खड़ा नहीं हो सकता। इनसे वह आँखें नहीं चुरा सकता है। वह एकदम आग बबूला नहीं होता। फटाफट अपनी आँखें नीली पीली नहीं करता। आग में कूदने से डरता नहीं मगर आग को शांत करने के लिए सोचता है। आग पानी से गुजरकर राह बनाता है। वह तो आँख ना दीदा काढ़े कसीदा वाली कहावत के अनुसार कुछ ना कुछ करने के लिए तड़फ उठता है, आँखे तरेरने लगता है। गलती जब तक आँख से ओझल नहीं हो जाती तब तक वह कुछ ना कुछ करने का प्रयास जारी रखता है, वह भी चुपचाप बिना शोर शराबे के। यह सोचकर करके कि उसके आगे नाथ न पीछे पगहा। बिन सोचें परिणाम रे। काम में लगे रहना मगर कोल्हू के बैल की तरह नहीं।
ऐसे लोगों को आटे दाल का भाव मालूम पड़ने पर भी, वे अपनी राह से विचलित नहीं होते। ऐसे कार्यकर्ताओं को लोग अपनी आँखों में बिठाते है। दिल से सम्मान करते है। चाहे ऐसे लोगों की संख्या भले ही कम हो। आड़े समय में लोग बिना बताए मदद भी करते है। अपने जीवन में अपन को ऐसे अनेक अवसर देखने को मिले। हमें अपने को आधी छोड़ पूरी को धाए, आधी बचे न पूरी पावे की स्थिति से बचना अच्छा लगता है। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, जरूरतों को कम से कम रखना। सोच समझकर खर्च करना। अपनी मर्यादा, सीमा खुद ही तय करके रखना अच्छा है।
एक अच्छे सामाजिक स्वैच्छिक कार्यकर्ता का जीवन स्पष्ट, साफ खुली किताब की तरह है। वह अपनी जीवनशैली पर खुद की कड़ी नजर रखता है। सहज पके सो मीठा होए। कभी आपे से बाहर भी होना पड़े तो आपा खोता नहीं। कभी कभी गुस्सा आना स्वाभाविक है मगर वह दूध के उबाल सा होता है। उसमें से भी सकारात्मक सोच, शक्ति निकलती है।कभी कभी आल्हा गाने, गाते जाए बंजारा में भी मजा आता है। इसकी भी अपनी एक भूमिका हो सकती है। एक अच्छे कार्यकर्ता के लिए भी और कभी कभी औरों के लिए भी।
यह ध्यान रहे कि आये की ख़ुशी न गये का गम भी कार्यकर्ता का संबल बनता है। कुछ बातें इस कान से सुनना तो उस कान से निकालना भी गुण का एक हिस्सा है। अफवाह, झूठ से सावधान रहना। इससे काम करने में आसानी होती है। ओखली में सर देकर मूसल या मूसर से क्या डरना? ऐसे भी मौके भी आते है जब उल्टा चोर कोतवाल को डाटे का दृश्य सामने आ जाता है। ऐसे में इधर उधर नहीं करके निर्णय स्थिति को देखते हुए करना पड़ता है। काम करते करते ऊँची दुकान फीका पकवान का मजा भी समूह, संगठन, संस्था, व्यक्ति किसी में भी मिल जाता है। ऐसे में देख पराई चुपड़ी मत ललचाए जी, रूखी सूखी खाय कर ठंडा पानी पी। अपनी आदत एशोआराम, अधिक सुविधा, विलासिता की नहीं बनने देने से अपनी ताकत, मस्ती, प्रसन्नता हरदम बनी रही। उधो का लेना न, न माधो को देना।
एक अनार सौ बीमार का माहौल तो अनेक बार, बार बार सामने आकर खड़ा हो जाता है। मगर एक और एक ग्यारह से कभी संकट टल भी जाता है। छप्पर फाड़ कर भी कभी आ जाता है तब लगता है आम के आम गुठलियों के दाम। ऐसे में और भी ज्यादा सतर्क, सावधान रहने की आवश्यकता है। लालच बुरी बला का खतरा नहीं बनने देना। ऐसे में लुटिया डुबोने वालों से लोहा लेने की तैयारी रखनी पडती है। समस्या हरदम कांटे की तरह खटकती रहनी चाहिए। ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती।
कच्चे घड़े से पानी भरने की हिम्मत कार्यकर्ता का मनोबल है। बाड़ ही जब खेत को खाने लगे तो चौकीदारी कौन करेगा, यह बड़ा सवाल सामने आ खड़ा होता है। कार्यकर्ता के लिए तो “वाह वाह मौज फकीरा की, भई वाह वाह मौज फकीरा की, कभी खान नू चना चबेना तो कभी लपटां खीरां दी। कभी ओढ़न को शाल दुशाले तो कभी फटी चद्दर लीरां दी” सबमें आनंद महसूस होता है। ऐसे में ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।