गाँधी जयंती पर विशेष
– नारायण देसाई*
१९३० में जब गांधीजी ने साबरमती से दांडी जा कर वहां नमक पका कर नमक के क़ानून का सविनय भंग करने का निर्णय लिया तब उनके साथ कूच करने वाले कौन होंगे इसकी सूची भी उन्होंने ही तैयार की थी. उस सूची में पसंद किए गए नाम आश्रमवासी ही थे. स्वयं अपने चुने हुए साथियों के साथ ही क़ानून तोड़ें उसके बाद ही सारे देश को क़ानून तोड़ने की इजाजत दी जानी थी.
गांधीजी ने तैयार की हुई कूच करनेवाले सैनिकों की सूची में एक भी स्त्री का नाम न था. आश्रम की बहनों में इस वजह से खलबलाहट मची. अन्य महिलाओं के साथ इस लेखक की माँ भी गांधीजी से तकरार करने पहुंची.
‘बापू! आपको आश्रम में से एक भी बहन आपके साथ कूच करने लायक नहीं लगी?”
यह सुन कर गांधीजी थोडा मुस्कुराए. ‘हं… तुम लोगों ने यह सवाल न पूछा होता तो मुझे आश्चर्य होता. मैं जानता ही था कि तुम लोग यह पूछोगे. लेकिन मैंने तो जानबूझ कर तुम लोगों को कूच करनेवालों से अलग रखा है.’ ऐसा कह कर गांधीजी ने आश्रम की बहनों की अकुलाहट को और भी बढ़ा दी. लेकिन गांधीजी ने तुरंत ही उन्हें शांत कर दिया.
गांधीजी ने साबरमती से दांडी कूच में अपने साथ एक भी महिला सत्याग्रही को शामिल न करने के दो कारण बताये. पहले कारण के बारे में तो उन्होंने इस घटना के बाद के ‘नवजीवन’ के अंक में लेख भी लिखा. उन्होंने बताया कि, “आखिर में अपनी लड़ाई अँगरेज़ सरकार के सामने है. अंग्रेजों का यह दावा है कि वे महिलाओं के प्रति उदार हैं. अपनी कूच में अगर महिलायें भी शामिल हों तो स्वाभाविक तौर पर हम उन्हें कूच की सामने की कतार में रखेंगे. तब शायद अँगरेज़ सरकार यह कहें कि कूच में महिलाएं आगे थीं इसलिए हमने महिलाओं के प्रति हमारी उदारता की वजह से उनपर हाथ नहीं उठाया. सरकार को ऐसा कहने का मौका ही मिले इसलिए मैंने महिलाओं को इस कूच से बाहर रखा. सरकार चाहे जितना हाथ उठाये हमारे सत्याग्रहियों पर!”
गांधीजी से तकरार करने आईं आश्रम की महिलाओं को इस उत्तर से भी ज्यादा संतोष उनके दुसरे जवाब से मिला. उन्होंने कहा, “मैंने हमेशा यह माना है कि अहिंसक लड़ाई में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं का योगदान रहेगा. उनमें ज्यादा सहनशक्ति होती है. वे अहिंसक पराक्रम भी ज्यादा कर सकती हैं. मेरे साथ कूच करने में भला कैसी बहादुरी है? रोज थोड़ा चलना, उतना ही न? उसमें तो जगह जगह स्वागत होगा, अभिनन्दन होगा. फूल माला स्वीकार करने में भला कैसी बहादुरी? ज्यादा बहादुरी के काम तो उसके बाद आयेंगे. मैंने आश्रम की बहनों को उन ज्यादा बहादुरी के कामों के लिए आरक्षित रखा है!”
गांधीजी की इस दूसरी बात से आश्रम की बहनों को समाधान हुआ और उसके बाद के सत्याग्रह आंदोलनों में उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखा कर गांधीजी की बहनों के बारे में आशा और श्रद्धा को सही साबित किया.
स्त्रियों को पुरुष के सामान अधिकार मिलने चाहिए इस बात की चर्चा आज दुनिया भर में हो रही है. इस बात का सैद्धांतिक स्वीकार जितना हुआ है उतना व्यवहार में नहीं हुआ है. गांधीजी कर्तव्य पालन में से ही अधिकार मिलते हैं ऐसा मानते थे. इसलिए स्त्रियों से उनकी क्या आकांक्षा है यह उन्होंने व्यक्त की थी. १९३०-३२ के सत्याग्रह आन्दोलनों में भारत की हजारों नारियों ने उसे अपना कर्तव्य मान कर प्रतिसाद भी दिया. परिणाम स्वरूप भारत की नारियों में अभूतपूर्व जागृति आई. नारी शिक्षा के लिए अपना समस्त जीवन समर्पित करने वाले महर्षि कर्वे ने कहा, “इतने वर्षों के मेरे प्रयास से जैसी जागृति नहीं आई वैसी जागृति गाँधी के नमक सत्याग्रह से आ गई!” जो महिलाएं अपने घरों में से बाहर नहीं निकलती थीं वे जुलूसों का नेतृत्व करने लगीं. उन्होंने न जाने कितनी जेलों के महिला वार्ड भर दिए, राष्ट्रिय ध्वज के लिए अपने सर पर पुलिस की लाठियों के मार झेले और पेशावर जैसी जगह तो उन्होंने हँसते हँसते गोलियों का भी सामना किया.
अहिंसक आन्दोलन में स्त्रियों की भूमिका के प्रति गांधीजी की श्रद्धा के बीज शायद माता पुतलीबाई की व्रत निष्ठा और कस्तूरबा की दृढ़ता और निश्चय देख कर बोये गए होंगे. सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की सक्रीय भूमिका की शुरुआत गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के तीसरे सत्याग्रह से हुई थी. उस सत्याग्रह के दो विवादित मसले थे. एक था कि दक्षिण अफ्रीका के एक न्यायाधीश ने वहां के क़ानून की व्याख्या कुछ ऐसी कर दी थी कि जिन लोगों ने ईसाई विधि के अनुसार अथवा कोर्ट में क़ानून रजिस्टर करा कर शादी न की हो उनकी शादी को वैध नहीं माना जाएगा. इसका अर्थ यह होता था कि भारतीय मूल के लोगों ने मुस्लिम या हिन्दू विधि से शादी की हो उनकी शादी क़ानूनन अवैध मानी जाएगी. इस प्रकार शादीशुदा महिला के पति को दक्षिण अफ्रीका में रहने का और व्यापार करने के क़ानून अधिकार हो तब भी उसकी पत्नी को अफ्रीका में प्रवेश नहीं मिल सकता है. इतना ही नहीं, हिन्दू या मुस्लिम विधि से जिसने विवाह किया हो उनकी संतान को भी वैध नहीं माना जाएगा. इस क़ानून के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के रहने वाले लोगों का गुस्से से खून उबल पड़ा. इस क़ानून का जोरदार ढंग से विरोध करने का निर्णय हुआ. महिलाओं ने भी इस सत्याग्रह में शामिल होने का तय किया. सबसे पहले यह निर्णय लेने वाली कस्तूरबा ही थीं. फिनिक्स आश्रम की अन्य तीन महिलाओं और बारह पुरुषों ने बिना परवानगी के देश की सीमा पार कर सजा भुगतने का तय किया. उनके देखा देखी जोहानेसबर्ग की कुछ महिलायें भी इस सत्याग्रह में शामिल हो गयीं. तेलुगु और तमिल भाषी सुखी परिवारों की इन बहनों ने खानों में मजदूरी करनेवाले गिरमिटिया भाई-बहनों को आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया.
गिरमिटिया हजारों की संख्या में उमड़ पड़े. अपने घर-संसार का सामान सर पर या पीठ पर उठा कर वे निकल पड़े. कुछ महिलाओं ने तो दूध पीते अपने बच्चों को भी साथ उठा लिया. जंगल में झरनों को पार करते हुए एक-दो महिलाओं के शिशु हाथ से छूट कर पानी में बह गए थे. फिर भी कूच बिना रुके आगे बढती गयी. गांधीजी को इस प्रकार के बलिदान के दृश्य देखने के बाद ही महिलाओं की बलिदान शक्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ होगा. उस समय जेल में कस्तूरबा को उपवास करने को मजबूर होना पड़ा था. तीन महीने के बाद जब वे जेल से छूट कर आयीं तो उनका पुत्र देवदास भी उन्हें मुश्किल से पहचान सका. वली अम्मा नाम की एक महिला की जेल में झेले कष्ट के कारण जेल से छूटने के कुछ ही दिनों में मृत्यु हो गई. आज भी जोहानेसबर्ग की स्मशान भूमि पर उनकी समाधि पर लोग पूजा करते हैं.
भारत आने के बाद गांधीजी ने सार्वजनिक काम उठाये जिसमें चंपारण सत्याग्रह के समय कस्तूरबा, दुर्गाबेन देसाई, मणिबेन पारीख, अवन्तिकाबाई गोखले आदि महिलाओं ने पुरुषों के साथ काम किया था.
उसके बाद के सभी सत्याग्रहों में भी महिलाओं ने हिस्सा लिया. दांडी कूच के बाद कराडी से गांधीजी ने स्त्रियों को सविनय कानून भंग के आन्दोलन में शामिल होने का आवाहन किया जिसके जवाब में लगभग समूचे देश की स्त्रीशक्ति जाग उठी. इतिहास में पहली बार भारत में इतने बड़े पैमाने में महिलायें बाहर निकलीं. वे जगह जगह जेल गयीं. जुलूसों में लाठी खायी, नमक पकाया. शराब-ताड़ी के ठेकों और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर पिकेटिंग की.
वैसे तो गांधीजी स्त्री-पुरुष को समान मानते थे. शरीर से स्त्री भले पुरुष से कमजोर हों, लेकिन आत्मा के गुणों की दृष्टि से वे पुरुषों से किसी मायने में कम नहीं होती ऐसा गांधीजी को विश्वास था. बल्कि, करुणा, सहिष्णुता आदि गुणों में स्त्रियाँ पुरुषों से बेहतर होती हैं ऐसा वे मानते थे. वे यह भी मानते थे कि स्त्री और पुरुष को एक दुसरे के गुण विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए. पुरुष यदि स्त्री की मृदुता, स्नेह, सहनशीलता जैसे गुण विकसित करें और स्त्री अगर पुरुष के पराक्रम, निर्भयता, दृढ़ता आदि गुण विकसित करें तो दोनों का व्यक्तित्व ज्यादा पूर्ण हो ऐसा गांधीजी को विश्वास था. अतः उनके संपर्क में जो स्त्री आती उसे वे पुरुषों के माने जाने वाले गुणों के विकास करने के मौके देते और पुरुष को स्त्री के विशेष कहलाने वाले गुणों के विकास के मौके देते. मनुबेन गाँधी वर्णित एक किस्सा बहुत मशहूर है. नोआखली में जब कौमी हिंसा के बाद गांधीजी पदयात्रा कर रहे थे तब उनकी सेवा में १६-१७ साल की मनुबेन गाँधी भी थी. वहां का वातावरण बहुत डरावना था. वहां बहुत बड़े पैमाने पर क़त्ल हुए थे. वातावरण में भय कम नहीं हुआ था. एक दिन मनु से गांधीजी के पैर धोते समय घिसनेवाला पत्थर पिछले पड़ाव पर छूट गया. वैसे पत्थर तो और भी मिल सकते थे लेकिन गांधीजी ने कहा कि ऐसे कैसे अपने से कोई चीज़ खो सकती है. उन्होंने मनु को उसी क्षण वापस जा कर वह पत्थर खोज कर ले आने को कहा. वह घनी झाड़ियों वाला एकांत रास्ता था. मनु के मन में थोड़ा डर था. उसने पत्थर खोजने के लिए गाँव में से एक आध स्वयंसेवक को साथ ले जाने की इजाजत मांगी. गांधीजी भला यह कैसे मानते? भूल भुलैया जैसे रास्ते पर जो नारियल और सुपारी के वन से जाता था मनु राम का नाम लेते हुए निकल पड़ी और वह पत्थर खोज कर ले आई. वापस आ कर उसने गांधीजी की गोद में वह रख दिया. कुछ तनाव में, कुछ राहत अनुभव करते हुए और अपनी भूल के पश्चाताप में मनु रो पड़ी. गांधीजी बोले, “आज तुम्हारी परीक्षा थी. तुम उसमें पास हो गई.”
उसी यात्रा में जब गांधीजी सभी साथियों को ने दो-दो की टुकड़ी में गाँव में जाने को कहा तब हर टुकड़ी में कोई बंगाली जानने वाला हो इसकी व्यवस्था की गई. मालतीदेवी चौधुरी जब यात्रा में शामिल होने आयीं तब गांधीजी ने उन्हें अकेले ही जाने को कहा क्यों कि उनकी मातृभाषा बंगाली थी इसलिए उन्हें किसी दुभाषिये की भला क्या जरूरत थी? गांधीजी का मार्ग लोगों पर विश्वास कर उन्हें विश्वासपात्र बनाने का था. इसी प्रकार उन्होंने अनेक पुरुषों को जो काम स्त्रियों के माने जाते थे उन्हें करने की तालीम दी थी. अनेक लोगों को रसोई पकाना सिखाया, अनेक लोगों को बीमार की सेवा और बच्चों की देखभाल करना सिखाया.
गांधीजी को स्त्रियों द्वारा सेवा के काम करना और किसी भी काम को बहुत ध्यानपूर्वक करने की आदत के बारे में बहुत श्रद्धा थी. चंपारण में किसानों की समस्याओं की जांच कर वे दूसरी जगह गए. लेकिन वहां के गाँव में रचनात्मक काम के लिए वे अपने साथी कार्यकर्ता रख गए उनमें कई महिलायें थीं. उनमें कस्तूरबा, मणिबेन और दुर्गाबेन जैसी कम पढ़ी लिखी भी थीं. ऊपर से किसी को भी वहां की स्थानीय भाषा भी नहीं आती थी. फिर भी गांधीजी ने उन्हें गाँव की पाठशाला चलाने को कहा. उस पाठशाला का काम सफाई से शुरू होता था. कुओं के आसपास कीचड़ वाली जगह पर सूखी मिट्टी डाल कर जहाँ मच्छर अंडे देते थे वैसे गड्ढों को भरना यह उन बहनों का पहला पाठ था. बच्चों को नहलाना, धुलाना, उनके बाल से जू निकालना, उनके नाखून काटना जैसे काम जब कस्तूरबा और उनकी साथियों ने किए होंगे तब मधुबनी और उसके आसपास के गांववालों को कितना आश्चर्य हुआ होगा. उन्होंने दुर्गाबेन को ‘पंडित’ कह कर बुलाना शुरू किया. महादेवभाई (जो वास्तव में पंडित थे) इसके बाद से अंतिम दिनों तक दुर्गाबेन को वही पंडित नाम से बुलाया करते थे.
गांधीजी जिम्मेदारी का काम सौंप कर लोगों को जिम्मेदार बनाते थे. साबरमती आश्रम में ज्यादातर काम आश्रम के लोग खुद कर लेते थे. हर महीने जिम्मेदारी बदली जाती थी. एक बार आश्रम के अगुआओं ने गांधीजी के सामने अपनी एक परेशानी रखी. ‘अन्य जिम्मेदारी तो लोग ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार का लेते हैं. लेकिन रसोई भंडार की जिम्मेदारी कोई लेना नहीं चाहता.’ गांधीजी ने तुरंत इसका उपाय सुझाया. ‘उसकी जिम्मेदारी बहनों के दे दो, वे इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाएंगी.’ इस सुझाव के पीछे गांधीजी की वर्षों का अनुभव बोलता था.
भंडार की जिम्मेदारी संभालना कठिन काम माना जाता था. उससे ज्यादा कठिन काम शायद सामुदायिक रसोई चलाना रहा होगा. लेकिन गांधीजी की सूचना से एक महीने तक भंडार की पूरी जिम्मेदारी आश्रम की बहनों को सौंपी गई और सच में उस महीने भंडार के हिसाब बहुत सरलता से हो गए. गांधीजी का बहनों पर विश्वास सही साबित हुआ.
स्त्रियों और स्त्रियों के प्रश्नों के बारे में गांधीजी के विचार उनकी सत्य-अहिंसा के बारे में खोज यात्रा से ही निकले थे. सत्य उन्हें स्त्री-पुरुष के सह नागरिकत्व के विचार तक ले गया था. अहिंसा उन्हें आत्मा की शक्ति यानी की सत्याग्रह शक्ति तक ले गई. जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में गांधीजी सत्य-अहिंसा के अमलीकरण को ध्रुव तारा मानते थे. इस बारे में जीवन सूत्र गांधीजी को उनकी आत्मा की आवाज़, व्यक्तिगत अनुभव और चिंतन मनन से मिले.
गांधीजी को स्त्रियों की शक्ति के बारे में गहरी श्रद्धा थी. उन्हें अबला कहना गाँधीजी को महिला की मानहानि जैसा लगता था. बल शब्द का पशुबल के मायने में अर्थ किया जाए तो अपनी शारीरिक शक्ति के कारण पुरुष स्त्री की तुलना में अवश्य सबल कहलाया जाएगा. लेकिन बल का अर्थ अगर नैतिक बल किया जाए तो स्त्री पुरुष से थोड़ी भी कम बलवान साबित न हो. उसकी सहनशीलता, उसकी त्याग वृत्ति, उसकी हिम्मत देख कर गांधीजी उसे अबला मानने को तैयार नहीं थे. वे मानते थे कि अगर पुरुष ने स्त्री का शोषण न किया होता अथवा स्त्री भोग की वजह से पुरुष के वश में न हो गई होती तो वह अपनी असीम शक्ति दुनिया को दिखा देती.
गांधीजी ने कहा है कि स्त्री अगर पुरुष की सहचारिणी है तो स्त्री की सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों के बारे में जानने का जितना अधिकार है उतना ही अधिकार स्त्रियों को पुरुष की सभी गतिविधियों के बारे में जानने का है.
“कायदे और कानून बनाने वाले पुरुष ने तथाकथित अबला जाति पर जो जुल्म किये हैं उसके लिए उसे भयंकर सजा भुगतनी होगी. पुरुष की जाल में से मुक्त हो कर स्त्रीजाति पुरुष के बनाए कायदे कानून के खिलाफ जब विद्रोह करेगी तब वह अहिंसक होने के बावजूद कम असरकारक नहीं होगा.”
“अपनी रक्षा के लिए स्त्रियों को पुरुषों का आधार क्यों चाहिए? उन्हें केवल अपनी शक्ति और चरित्र की शुद्धता तथा ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए.” “पुरुषजाति ने अपने आप को अनेक प्रकार के अनिष्टों के लिए जिम्मेदार बनाया है. उन सबमें उसने जो नारीजाति का जो दुरुपयोग किया है उस जितना नीच या पाशवि कोई अनिष्ट नहीं है. स्त्री ज्यादा उम्दा है. आज भी वह त्याग, धैर्य, नम्रता, श्रद्धा और ज्ञान की मूर्ती रूप है.”
गांधीजी ने लिखा है कि, “मेरा खुद का अभिप्राय तो ऐसा है कि मूल रूप से पुरुष और स्त्री एक ही मानव वंश के हैं. इसलिए उनके मूल प्रश्न भी एक होने चाहिए. दोनों में एक ही आत्मा का वास है. दोनों एक ही जीवन जीते हैं, एक ही प्रकार की भावना का अनुभव करते हैं. एक दुसरे के पूरक हैं. एक दुसरे की सक्रीय सहायता के बगैर जी नहीं सकते.”
“स्त्री अहिंसा की साक्षात प्रतिमा है. अहिंसा का अर्थ ही है असीम प्रेम. ऐसा प्रेम का अर्थ होता है कष्ट सहन करने की असीम शक्ति. पुरुष की जननी स्त्री से ज्यादा अपरम्पार कष्ट सहन करने की शक्ति इस संसार में स्त्री के अलावा और किसके पास होगी?”
“स्त्री के अधिकारों के बारे में एक मुद्दे पर मैं थोड़ा भी समझौता करने को राजी नहीं हूँ. मेरे मतानुसार क़ानून को स्त्री और पुरुष के बीच किसी प्रकार की असमानता नहीं रखनी चाहिए. लड़का और लड़की के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए.”
“क़ानून बनाने का काम ज्यादातर पुरुषों के हाथ में रहा है. उसने हर बार विवेक दृष्टि का इस्तेमाल किया हो ऐसा नहीं लगता. अभी स्त्रीजाति की अवनति दूर करने में महा भगीरथ प्रयत्न तो हिन्दू धर्मशास्त्र में ही स्त्रियों के बारे में विद्यमान आलेखों को दूर करने का होना चाहिए.”
“आज राजनीती में महिलायें कम हिस्सा लेती हैं. जो लेती हैं वे स्वतंत्र विचार नहीं करतीं. वे उनके माँ-बाप या पति जो कहते हैं वैसा करती हैं. वे अपनी पराधीन अवस्था देख कर स्त्रियों के विशेष अधिकारों की दलील पर नज़र रखती हैं. ऐसा न कर स्त्रियों को चाहिए कि वे सभी महिलाओं के नाम मतदाता पत्रक में लिखवायें, उन्हें व्यवहारिक ज्ञान दें, उन्हें स्वतंत्र विचार करती करें, जात-पांत के जंजाल में से मुक्त करें और पुरुष ही उनकी शक्ति और उनके त्याग को पहचान कर उन्हें आगे करें ऐसा माहौल बनाएं.”
“हम पुरुषों के नियंत्रण में हैं अथवा उनसे निम्न हैं ऐसा स्त्रियों को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है.”
“इसलिए स्त्रियों पर तमाम किस्म के गलत और अनिष्ट अंकुशों के खिलाफ सविनय विद्रोह करने का मैं उन्हें आवाहन करता हूँ. किसी भी किस्म का अंकुश तब ही लाभदायक हो सकता है जब वह स्वेच्छा से और ख़ुशी से स्वीकार किया हो. सविनय भंग से किसी को नुक्सान होना संभव नहीं है. विद्रोह करने की शुद्धता और समझ कर किया विरोध ये दो सविनय भंग के मुख्य लक्षण हैं.”
पुरुषों को स्त्रियों के शील के बारे में चिंता व्यक्त करते देख गांधीजी कहते हैं: “स्त्रियों के शील के बारे में ये सब रोगिष्ट चिंता क्यों? पुरुषों के शील के बारे में स्त्रियों को कुछ कहने का अधिकार है? … स्त्रियों के शील की रक्षा के लिए नियम बनाने का अधिकार पुरुषों को अपना क्यों मान लेना चाहिए? शील बाहर से नहीं लादा जा सकता. वह तो आतंरिक विकास का और इसलिए व्यक्तिगत साधना का विषय है.”
स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार और बलात्कार के बारे में गांधीजी को अनेक बार सवाल पूछे जाते. उस बारे में गांधीजी के विचार देखें. वे मानते थे कि स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसके शील का भंग हो ही नहीं सकता. वह भयभीत हो कर वश में आ जाए अथवा तो अपनी पवित्रता का सामर्थ उसे न लगे तभी वह राक्षसी वृत्ति के आदमी की शिकार बन जाती है. जो उसका शरीर बल बहुत ज्यादा हो तो स्त्री की पवित्रता पुरुष उसे अपने वश में करे उससे पहले मर जाने की शक्ति देगी.”
सीता रावण के वश में नहीं हुई तो वह उसकी ओर कामुक दृष्टि भी नहीं डाल सका. स्त्रियों को गांधीजी सीता जैसी हिम्मत विकसित करने की सलाह देते थे. इससे वे निर्भय हो कर जी सकेंगी. उनमें इस प्रकार की निर्भयता माँ-बाप और पति को विकसित करनी चाहिए. ईश्वर पर आस्था पैदा करने से ऐसी निर्भयता का विकास होता है. जिसमें ऐसी आस्था पैदा हो जाती है वह हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है.
गांधीजी की दृष्टि में स्त्री की शील की रक्षा का मुख्य साधन उसकी अपनी निर्भयता है. यह निर्भयता उसे ईश्वर की आस्था में से मिलती है. अगर स्त्री की मर मिटने की तैयारी हो उस पर कोई जुल्म नहीं कर सकता क्यों कि जब तक स्त्री मन से कमजोर न हो जाए तब तक उस पर जुल्म नहीं हो सकता.
साथ ही गाँधीजी यह भी कहते थे कि “स्त्री पर जब आक्रमण हो उस समय उसे हिंसा, अहिंसा का विचार नहीं करना चाहिए. उस समय उसका परम धर्म आत्मरक्षा है. उसे उस समय जो साधन समझ में आए उसका इस्तेमाल कर अपनी पवित्रता की रक्षा करना चाहिए. ईश्वर ने नाखून दिए हैं, दांत दिए हैं, जो भी बल दिया है, उन सबका प्रयोग करते हुए मरने को तैयार रहना चाहिए. अहिंसक पुरुष या स्त्री अपनी अथवा अपनी स्त्रीजाति की आबरू की रक्षा करते हुए अगर मृत्यु को प्राप्त करता है तब वह बहादुरी का श्रेष्ठ प्रकार है.”
इससे यह समझ में आता है कि गांधीजी शील रक्षा का अंतिम साधन मरने की तैयारी को मानते थे. वे यह भी मानते थे कि अत्याचार एक व्यक्ति द्वारा हो रहा हो या अनेक लोगों द्वारा फिर भी स्त्री मर कर अपनी आबरू बचा सकती है. ऐसी शक्ति साधने के लिए स्त्री या पुरुष को ईश्वर पर ऐतबार रखना चाहिए.
लेकिन जिसमें ऐसी शक्ति न हो और वह बलात्कार की शिकार बने तो उसके लिए स्त्री को गुनाहगार नहीं मानना चाहिए. समाज को उसे प्रताड़ित नहीं करना चाहिए. बल्कि बलात्कार की वजह से अगर वह गर्भवती हो जाती है तो उसके बच्चे को बड़ा करने की जिम्मेदारी भी समाज को उठा लेनी चाहिए. इस प्रकार के सबसे ज्यादा किस्से भारत के विभाजन के समय सीमा की दोनों बाजू हुए. उस समय मृदुलाबेन साराभाई, कमलाबेन पटेल और उनके साथियों ने दिखाया साहस और वीरता इतिहास में अमर रहेंगे. इन बहनों ने भारत और पाकिस्तान के सुदूर इलाकों में जा कर अपहरण की गई बहनों को खोज निकाला. उनमें से जो अपने वतन वापस आना चाहती थीं उन्हें वापस ले आया. जिन बहनों के परिवारवाले मूल देश में मिले उनके साथ अपहृत महिलाओं का मिलन करवाया. जो परिवार इन बहनों को अपने साथ रखने को तैयार थे उन्हें वहां बसाया. जिन्हें इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिल सका उनके निर्वाह की अलग व्यवस्था कर दी. इन सेविकाओं की हिम्मत, व्यवहार कुशलता, धीरज और लगन देख कर कौन न मुग्ध हो जाएं? उनके इस पराक्रम के पीछे गांधीजी की प्रेरणा काम कर रही थी. मृदुलाबेन ने तो गांधीजी के साथ नोआखली और बिहार में भी काम किया था. वे अपनी सूझ बूझ से बहुत-सा काम करती थीं लेकिन जब भी मौका मिले वे गांधीजी का मार्गदर्शन लेना भूलती नहीं थी.
गांधीजी की प्रेरणा से अन्य अनेक बहनों ने भारी संकट काल में अत्यंत साहस के काम किए थे. विभाजन के बाद गांधीजी ने डॉ. सुशीलाबेन को पंजाब में हिन्दू शरणार्थियों की छावनी में भेजा. पुरुष अधिकारी भी जहां से भाग जाना चाहते थे ऐसी छावनियों में ‘पहले मैं मरूंगी फिर शरणार्थियों को कुछ होने दूंगी’ की चुनौती दे कर आक्रामक भीड़ से घिरी छावनियों में से लोगों को भारत की सीमा में सुरक्षित पहुंचाने की व्यवस्था सेना की सहायता से की.
बीबी अम्तुस्सलाम ने नोआखली के गांवों में जा कर वहां से डर के मारे भागे हिन्दुओं को अपने गाँव में वापस ला कर बसाने का काम किया. एकदम दुबली पतली बीबी अम्तुस्सलाम ने पच्चीस दिन के उपवास कर के हिंसा करनेवाले गुंडों के पास से दूसरी कौम से लुटे शस्त्र वापस करवाए थे.
गांधीजी ने स्त्रियों को सार्वजनिक आंदोलनों में स्वाभाविक रूप से शामिल कर के उस समय तक के राष्ट्रीय नेतृत्व को एक नया ही पहलू भेंट किया. गांधीजी हिन्द वापस आए उससे पहले सामान्यतया किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में महिलायें शामिल नहीं होती थीं. गांधीजी के सुझाये गए सत्याग्रहों में स्त्रियाँ बहुत बड़ी संख्या में सहज रूप से शामिल हुईं. इस प्रकार सार्वजनिक कामों में स्त्रियाँ पुरुषों की समकक्ष हिस्सेदार बन गयीं. स्त्रियों की सहनशीलता पर गांधीजी को बहुत भरोसा था. स्त्रियों ने बड़ी सहजता से उनके इस भरोसे को अपने आचरण द्वारा सच्चा साबित किया. गांधीजी से पहले किसी और नेता ने ऐसा नहीं किया था. विश्व विख्यात ‘सेवा’ संस्था की संस्थापिका इलाबेन भट्ट कहती हैं, “गांधीजी ने यह ऐतिहासिक नेतृत्व नहीं दिया होता तो मेरे जैसी महिला आज जहां तक पहुँच पायी हैं वह पहुँच ही नहीं पातीं.” गांधीजी ने जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों को सम्मानजनक नेतृत्व दिलाया.
इन बहनों में मिस मेडेलिन स्लेड (मीरा बेन) जैसी साध्वी भी थीं. उन्होंने अपनी पूरी जवानी गांधीजी की सेवा में बिताई. यह सेवा करते उन्होंने इतनी शिक्षा हासिल की कि भारत विदेशी आक्रमण का अहिंसक प्रतिकार कैसे कर सकेगा इसका आकलन करने गांधीजी ने उन्हें भारत के पूर्वी सागर तट के गांवों का सर्वेक्षण करने भेजा था और वह काम उन्होंने बहुत अच्छी ढंग से पूरा किया.
गांधीजी स्त्रियों के प्रति मनुष्य के रूप में सम्मान करते थे इसीलिए वे स्त्री और पुरुष को समकक्ष कार्यकर्ता के रूप में देख सकते थे. उन्होंने महिलाओं के प्रति इतना विश्वास दिखाया जितना उनसे पहले किसी भी नेता ने नहीं दिखाया था. गांधीजी के इस विश्वास ने स्त्रियों में आत्मविश्वास बढ़ा. इसलिए एक अमरीकी निरीक्षिका ने इस बात का उल्लेख किया कि आज़ादी की लड़ाई के पहले जहां महिलायें घूंघट पहना करती थीं और घर से बाहर नहीं निकलती थीं वैसे गाँव में से भी भारी संख्या में महिलायें स्वेच्छा से जेल गयीं. गांधीजी को स्वराज के बाद न्याय और समता पर आधारित जो समाज बनाना था वैसा समाज सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की स्वतंत्र हिस्सेदारी के बगैर बन ही नहीं सकता था.
गांधीजी आत्मा को चुभे ऐसा कोई काम करने के लिए तैयार नहीं थे भले ही उनका समर्थन स्मृति या शास्त्र क्यों न करते हों. इसलिए अगर कोई धर्म के नाम पर बाल-विवाह, विधवाओं पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध आदि बात करे तो उसे मानने को तैयार न थे.
१९२७ में गांधीजी ने श्रीमती शारदाबेन कोटक को एक पत्र में लिखा था कि ‘स्त्रियों और पुरुषों में एक ही आत्मा बसती है. उसपर जाति, लिंग या देश के अंतर की कोई असर नहीं होती. एक वीरांगना की जागृत आत्मा एक दुष्ट व्यक्ति की सोती हुई आत्मा से कहीं अच्छी होती है.’ स्त्री और पुरुष, ब्राह्मण और शूद्र आत्मा में मूलतया भेद होता है ऐसा कह कर समाज के ऊंच-नीच के भेद का समर्थन करनेवालों को गांधीजी का यह स्पष्ट दो टूक उत्तर था.
एक पत्र लेखक ने पति पत्नी को मारता है इस बारे में एक प्रश्न पूछा. गांधीजी ने लिखा: “किसी पुरुष को किसी स्त्री को मारने के कतई अधिकार नहीं है. क्या पुरुष स्त्रियों से कम गुनाह करते हैं? अगर पत्नियां पतियों को हर गलती पर मारने लगें तो कुछ ही समय में बहुत थोड़े से पति जीवित रह पायेंगे!”
वैसे तो आम तौर पर गांधीजी संतति नियमन के साधनों के प्रयोग के विरोधी थे. लेकिन उन्हें एक किस्से में पुरुष के दबाव के वश में गर्भवती हो कर अपना शरीर जीर्ण करती महिला को परिवार नियोजन साधन इस्तेमाल करने की सलाह देते हुए देख कर महादेवभाई ने अपनी डायरी में इस बारे में लिखा है.
पति के धर्म के बारे में १९२९ में एक लेख में गांधीजी कहते हैं:
पति का यह धर्म है कि वह अपनी पत्नी को सच्ची सहधर्मचारिणी, सहायक और अर्धांगिनी से कुछ विशेष माने. उसे उसके सुख-दुःख का हिस्सेदार बनना चाहिए. पत्नी को कभी अपना गुलाम नहीं मानना चाहिए. उसे अपनी वासना के संतोष का साधन नहीं मानना चाहिए. पति खुद के लिए जितनी आज़ादी की अपेक्षा रखता है उतनी ही पत्नी को भी मिले इसका उसे अधिकार है. जिस संस्कृति में स्त्रियों को सम्मान नहीं मिलता उसे शापित संस्कृति समझना चाहिए. पुरुष या स्त्री किसी के बिना संसार चल ही नहीं सकता. वह एक दूजे के सहयोग से ही चल सकता है. स्त्री का अगर प्रकोप जाग जाए तो वह पुरुषों का खात्मा कर सकती है इसीलिए उसे महाशक्ति कहा जाता है.
इस सन्दर्भ में हम गांधीजी और कस्तूरबा के संबंधों के बारे में थोड़ा विचार कर लें. कई बार यह कहा जाता है कि गांधीजी ने कस्तूरबा पर बहुत अन्याय किया था. यह शिकायत ख़ास कर के विदेशियों को है. ऐसी मान्यता के पीछे एक कारण है गांधीजी की सच बोलने की आदत और दूसरा कारण है ऐसा कहने वालों की समझ का अभाव.
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में दो-तीन ऐसे प्रसंगों का खुली तरह से वर्णन किया है. बचपन में शादी के बाद उन्होंने अपना स्वामित्व आजमाया था ऐसा उन्होंने लिखा है. उसमें वे ज्यादा सफल नहीं हुए थे यह भी उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है. लेकिन उनकी टीका करनेवाले इसकी ख़ास नोंद नहीं लेते. दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटते समय उन्हें मिले तोहफों को गांधीजी समाज की संपत्ति मानते थे जबकि कस्तूरबा उनमें से कुछ चीज़ें अपनी भावी पुत्रवधू के लिए रखना चाहती थीं. कस्तूरबा को समझाना कितना कठिन हुआ इसका वर्णन गांधीजी ने किया है. इस किस्से में भी कई लोग गांधीजी की जोर जबरदस्ती मानते हैं. तीसरा किस्सा है ‘अस्पृश्य’ कारकून के पिशाब के मर्तबान को साफ़ करने के बारे में कस्तूरबा की आनाकानी और गांधीजी के जोरदार आग्रह का है. इस किस्से में गांधीजी ने जोर जबरदस्ती दिखाई जरूर थी लेकिन कस्तूरबा के वचनों से वे तुरंत सचेत हो गए थे और उनसे माफ़ी मांग ली थी. बारडोली आश्रम में खींचा गया गाँधीजी और कस्तूरबा का एक फोटो बहु चर्चित है जिसमें कस्तूरबा को गांधीजी का पैर धोते दिखाया गया है. इसे देख कर कई लोगों का मानना है कि गांधीजी कस्तूरबा को अपनी दासी समझते थे.
गांधीजी के बारे में कोई भी अभिप्राय बनाने से पहले यह बात समझ लेनी चाहिए कि गांधीजी एक सदा विकासशील व्यक्ति थे. यानी, शादी के समय वे जैसे थे उससे बहुत बाद के दिनों में उनके विचार और आचार एकदम बदल गए थे, इसे नहीं भूलना चाहिए. वैसे स्वामित्व आजमाने का प्रयास करते समय भी उन्होंने कस्तूरबा को कभी अपनी दासी नहीं समझा था. जब दोनों में बहुत झगडा होता तो आपस में बोलना बंद कर देते थे. लेकिन वह तो दोनों की बराबरी सूचित करने वाला आचरण था. समझनेवाली बात यह है की उपरोक्त हरेक प्रसंग के पीछे गाँधीजी का माना कोई न कोई सिद्धांत था. उस सिद्धांत को समझने में जब उन्हें अपनी भूल दिखाई दी कि तुरंत उन्होंने अपनी भूल सुधार ली.
उदाहरण के तौर पर स्वामित्व की भावना के पीछे पुरुष-स्त्री की परस्पर वफ़ादारी का विचार विकृत रूप में काम करता था. लेकिन कस्तूरबा ने जब उसे नहीं माना तो गांधीजी ने कोई जोर जबरदस्ती नहीं की. पिशाब के मर्तबान के मामले में भी ‘अस्पृश्यों’ को दूसरों से अलग नहीं मानना चाहिए यह विचार काम कर रहा था लेकिन वे कस्तूरबा को घर से बाहर जाने के लिए दरवाजे तक ले गए यह उनकी जोर जबरदस्ती थी. कस्तूरबा ने जैसे ही उन्हें टोका कि ‘थोडा तो शर्म करो, लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे’ वैसे ही समझ गए और उन्होंने कस्तूरबा से माफ़ी मांग ली. उन्हें भेट में मिले गहने समाज के हैं इस प्रसंग में गांधीजी ने यह बात पुत्रों को समझा कर अपने पक्ष में कर लिया था. उस समय वे अपने निर्णय पर कायम रहे इसमें थोड़ा दबाव का तत्व जरूर है. लेकिन उन्होंने ये गहने अपने निजी उपयोग के लिए रख लिए होते तो यही टीकाकार गांधीजी को स्वार्थी कहते!
गांधीजी ढलती उम्र में जब टहल कर आते तब अपने पैर धुलवाते लेकिन उस फोटो में जैसा है वैसे रोज उनके पैर धोनेवाली कस्तूरबा ही नहीं होती थीं. कभी कनु गाँधी, कभी व्रज कृष्ण तो कभी मन होते थे. वह समय ऐसे था कि गांधीजी की छोटी छोटी व्यक्तिगत सेवा करने के लिए आश्रमवासियों के बीच प्रतियोगिता जैसी होती थी. इस बात की बहुत संभावना है कि उस दिन कस्तूरबा को इसका मौका मिला इसका उनको आनंद ही मिला हो!
एक कामुक पति आत्मचिंतन और आत्मशुद्धि करते हुए वैवाहिक जीवन में ब्रह्मचर्य पालन तक पहुँचता है. ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेने से पहले छः वर्षों तक वह बहुत उथल पुथल से गुजरता है. पत्नी की सम्मति लेता है. वह प्रतिज्ञा उनको जितनी कठिन लगी उतनी पत्नी को कभी कठिन नहीं लगी इस बात की वह नोंद लेते हैं.
गांधीजी जैसे निरंतर विकास करते जा रहे थे वैसे उनकी सहधर्मचारिणी भी विकास करती जा रही थीं हालांकि उनके विकास के कदम गांधीजी के आगे बढ़ते कदम से जुड़े थे. उसका आरम्भ विस्मय के साथ हुआ, फिर थोडा रोष और जिज्ञासा हुई, फिर श्रद्धा और थोड़ी समझ के साथ वे पति में परिवर्तन के साथ अपना जीवन संगठित करती गयीं. एक बार इसको स्वीकार करने के बाद उनकी समझ गहरी होती गयी. उसके बाद वही सिद्धांत वे दूसरों को प्रभावशाली ढंग से समझाती हो गयीं.
दक्षिण अफ्रीका में जब हिन्दू या मुस्लिम विधि के अनुसार हुई शादियों को वहाँ की अदालत ने गैर कानूनी ठहराया तब कस्तूरबा भी गांधीजी के साथ उसका विरोध करने तैयार हो गयीं. मन से वे जेल जाने को भी तैयार थीं. उन्हें बस सवाल एक बात का था कि जेल में उन्हें क्या खाने-पीने को मिलेगा. गांधीजी उन्हें कहा कि तुम्हें अपने खाने-पीने के नियम जेल अधिकारियों को बताना चाहिए. गांधीजी ने जब यह बात कही तब कस्तूरबा ने कहा, ‘आप तो मुझे मरने की बात कह रहे हो!’ तब गांधीजी बोले कि तुम अगर जेल में मरोगी तब मैं तुम्हारी जगदम्बा के रूप में पूजा करूँगा और सच में तीन दशक के बाद कस्तूरबा का जेल में जब अवसान हुआ तब गांधीजी रोज उनकी समाधि पर फूल अर्पित करते थे.
इस प्रकार कस्तूरबा और गांधीजी स्वामित्व से शुरू हो कर एक दुसरे को बा और बापू कह कर संबोधित करते थे और अंत में एक दुसरे को जगदम्बा के रूप में पूजते थे वहाँ तक पहुंचे थे. यह संबंध जोर जबरदस्ती या क्रूरता का हरगिज नहीं था. यह सच है कि बुद्धि, ज्ञान, चिंतन, सिद्धांत निष्ठा में दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई थी लेकिन प्रेम, समझौता, एक दुसरे को समझने का प्रयास, श्रद्धा, निर्विकारता और समानता के भाव के कारण यह संबंध दिन प्रतिदिन पवित्र होता गया.
हम ऊपर देख चुके हैं कि गांधीजी ने वैवाहिक जीवन में कस्तूरबा की सम्मति ले कर ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी. गांधीजी मानते थे कि मनुष्य जबसे समझदार हो जाता है तब से वह निरंतर आत्मसंयम का जीवन शुरू कर देता है. मनुष्य और पशु के बीच यही मुख्य अंतर है. वे यह भी मानते थे कि ब्रह्मचर्य के बिना का जीवन शुष्क और पशु जैसा बन जाता है. जानवर स्वाभाव से निरंकुश होता है. मनुष्य का मनुष्यत्व स्वेच्छा से अंकुशित बनने में है.
गांधीजी व्रत पालन के बारे में खुद के लिए जितने आग्रही और कठोर थे उतने दूसरों के बारे में नहीं थे. उन्होंने एक मित्र को लिखा था: ‘यदि आपकी शक्ति के बाहर लगे तो आप कोई व्रत मत लेना. आप अगर कोई व्रत न ले सको तो उसमें कोई हानि नहीं है. लेकिन आप यदि कोई व्रत ले ही लेते हैं और फिर उसे छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं तो आपको बहुत नुकसान होगा.’
गांधीजी ने देश को सुझाए कार्यक्रमों में सविनय क़ानून भंग और असहयोग जितना महत्वपूर्ण कार्यक्रम था रचनात्मक काम का. हालांकि इस कार्यक्रम पर कांग्रेस ने अहिंसक आन्दोलन पर जितना ध्यान दिया उतना नहीं दिया. रचनात्मक कामों में स्त्रियों की जागृति सम्बंधित कामों का भी समावेश था. गांधीजी ने शहरों में रहनेवाली और सामजिक कार्य करनेवाली बहनों को गाँव में जाकर रचनात्मक कामों से जुड़ने की सलाह दी.
गांधीजी के आस पास रहनेवाली कई बहनों ने गांधीजी की इस सलाह का स्वागत किया. वर्धा छोड़ कर गाँव जानेवाली पहली थीं मीराबेन. गांधीजी उनके बाद सेवाग्राम गए. मीराबेन ने तो बाद में अपना पूरा जीवन ही स्त्री जागृति, खादी जैसे रचनात्मक कामों के लिए बिताया. गांधीजी की मृत्यु के बाद उन्होंने हिमालय की तलहटी में गोसेवा का काम किया.
बीबी अम्तुस्सलामने गांधीजी के जाने के बाद खादी ग्रामोद्योग का काम पंजाब में व्यापक पैमाने में किया था और चीन के आक्रमण के बाद उन्होंने भारत की उत्तर-पूर्व सीमा पर यहीं काम बड़े पैमाने पर किया था. आशादेवी अर्यनायकम ने देश में नयी तालीम के काम का प्रारंभ उनके पति के साथ मिल कर किया था. गांधीजी की मृत्यु के बाद अपनी मृत्यु तक उन्होंने यही काम किया. मार्जरी साइक्स ने भी आशादेवी की तरह नयी तालीम और शांति सेना के काम किये थे. प्रेमाताई कंटक ने महाराष्ट्र में रचनात्मक काम की धूनी रमाई थी. रमादेवी और मालतीदेवी चौधुरी ने ओडिशा में रचनात्मक काम द्वारा स्त्री जागृति का काम किया. दक्षिण भारत में डॉ. सौन्दर्यम ने मदुरै जिले में ग्राम विद्यापीठ का सफल संचालन किया था. कर्णाटक में श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने अपना समग्र जीवन देश सेवा के लिए अर्पित कर दिया था.
कस्तूरबा की स्मृति में गांधीजी जब जेल में थे तभी जो राशि इकठ्ठा हुई थी उसी से कस्तूरबा स्मारक निधि बना. इस संस्था ने पूरे देश में स्त्रियों और बच्चों की सेवा के काम किए. असम की अमलप्रभा दास वहाँ की सुप्रसिद्ध रचनात्मक कार्यकर्त्री थीं. उत्तराखंड में इंग्लैंड से कौसानी आकर बसी सरलादेवी ने स्त्री शिक्षा का काम किया. दक्षिण में यशोधरा दासप्पा और लक्ष्मी मेनन के नाम सहज ही याद आते हैं. पश्चिमोत्तर सरहद में गोरादेवी और श्रीमती तिरखा ने सारा जीवन रचनात्मक कार्यों में लगाया. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि महिलाओं ने रचनात्मक कार्य द्वारा उनमें रही सृजन शक्ति का उपयोग राष्ट्रसेवा में, ख़ास कर सबसे गरीब लोगों की सेवा में किया.
इसी तरह आज़ादी की लड़ाई में भी जिस तरह इस लड़ाई से जागृति आई थी उसी तरह अहिंसक लड़ाई को आगे ले जाने में स्त्रियों की कम भूमिका नहीं थी. कस्तूरबा, सरोजिनी नायडू, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे नाम तो राष्ट्रीय स्तर पर गिनाये जा सकते हैं. लेकिन प्रादेशिक स्तर पर काम करने वाली महिलाओं का योगदान इससे कहीं कम न था. गुजरात में गंगाबेन वैद्य, मणिबेन पारीख, नन्दुबा कानूनगो, मृदुला साराभाई, पुष्पाबेन मेहता, अरुणाबेन, जयाबेन, लीलावती आशार, मिठुबेन पेटिट, ज्योत्स्नाबेन शुक्ल और अन्य बहुतसी महिलाओं का आज़ादी के आन्दोलन में कोई कम योगदान नहीं था. पूर्व में असम, बंगाल और ओडिशा में जैसे बहनों ने रचनात्मक कामों में हिस्सा लिया था वैसे उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी भाग लिया था. मुंबई में गोशिबेन पेटिट, पेरिनबेन केप्टन, सोफ़िया वाडिया, महाराष्ट्र में प्रेमाबहन कंटक और सुशीला पाई, दिल्ली में अरुणा असफ अली और विद्यावती, कलकत्ता में नेल्ली सेन गुप्ता, श्रीमती चित्तरंजन दास, संयुक्त प्रान्त में कमला नेहरु, बिहार में प्रभावती नारायण आदि के नाम तुरंत याद आ जाते हैं. अन्य प्रान्तों में और उपरोक्त प्रान्तों में भी सत्याग्रह का नेतृत्व करनेवाली महिलाओं की संख्या कम नहीं थी. इनके जैसी हजारों बहनों की राष्ट्रभक्ति, सेवावृत्ति, और त्यागवृत्ति जगानेवाले किसी एक व्यक्ति का कोई नाम पूछे तो सभी एक आवाज से कहेंगे कि वह कोई और नहीं गांधीजी थे.
गांधीजी ने अनेक प्रकार की रूचि वाले लोगों को आकर्षित किया था. उनमें अनेक प्रकार की बहनें भी थीं. बहनों को इतनी बड़ी संख्या में आकर्षित कर पाने का कारण देखने जाएं तो वह गांधीजी के चरित्र में देखने को मिलेगा. गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तब गोखलेजी ने उनके बारे में जो मानभरे वाक्य कहे थे उनमें एक यह था कि ‘जिनके पास जाने से ही विकार ख़त्म हो जाते हैं ऐसी दो ही व्यक्ति को मैंने देखा है – एक मेरे पूज्य गुरु महादेव गोविन्द रानडे और दुसरे मो.क. गाँधी.’ गोखले से वर्षों पहले एक अँगरेज़ महिला श्रीमती मिली ग्रेहाम पोलक ने गांधीजी के बारे में कुछ इस आशय का कहा था कि उनका चरित्र ही हिसा है कि मैं जैसे अपनी महिला मित्र के सामने मेरे निजी प्रश्नों की चर्चा कर सकती हूँ वैसे गांधीजी के साथ भी कर सकती हूँ. गांधीजी ने स्वयं भी यह दावा किया था कि वे हजारों स्त्रियों के संपर्क में आये होंगे लेकिन उनमें से किसी एक को भी उनके साथ व्यवहार करने में संकोच का अनुभव नहीं किया था.
गांधीजी के चरित्र विकास की यात्रा दो प्रकार की थी. उसमें से एक का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं. वे हर पुरुष में स्त्रियों के गुण और हर स्त्री में पुरुष के गुण विकसित होना चाहते थे. स्वयं अपने पर भी यह बात लागू होती थी. इसी लिए वे मनुबेन गाँधी को कह सकते थे कि ‘मैं तुम्हारी माँ बन चुका हूँ.’ चरित्र के बारे में उनका दूसरा प्रयास (इसे आप साधना या योग भी कह सकते हैं) सम्पूर्ण निर्विकारिता की खोज का था. मनुष्य अपने आप को विकारों से जितना मुक्त कर सके वह स्त्री-पुरुष दोनों को सामान रूप से आकर्षित कर सकता है. गांधीजी को तो ऐसी भी आशा थी कि अगर वे सम्पूर्ण निर्विकार बनने की साधना कर सकें तो उनमें अपने एक नंबर के शत्रु मानने वाले को भी मित्र बनाने की शक्ति आ जाएगी. इस उद्देश्य को सामने रख कर ही वे अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक साधना निरंतर चालू रखते थे. इसमें वे पूर्णतया सफल नहीं हो सके थे यह तो उस बात से सिद्ध हो जाती है की उन्हें शत्रु मानने वाले ऐसे भी मिले जिन्होंने योजनाबद्ध तरीके से ठन्डे दिल से उनके प्राण लिए. लेकिन इतना तो कई स्वीकार करेंगे कि वासनाक्षय की दिशा में वे जितना आगे निकल गए थे उतना बहुत कम लोग पहुँच पाए होंगे.
वैसे देखा जाए तो गांधीजी की समस्त साधना अद्वैत की थी. वह साधना उन्हें भेद में से अभेद की ओर ले जाती थी, अलगाव में से समभाव की ओर ले जाती थी.
इसी तरह स्त्री-पुरुष संबंधों के क्षेत्र में वे देह से ऊपर आत्मा की एकता की ओर जाने का प्रयास करते थे. जैसे ही देह भाव मिट जाए वैसे आत्मा सम्पूर्ण निर्विकारिता की ओर अग्रसर हो जाती है. इसीलिए गांधीजी स्वयं निर्विकार हो कर देहभाव को क्षीण करना चाहते थे. दूसरा वे समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को उनकी अस्मिता संभाल कर सम्पूर्ण समानता की दिशा में ले जाना चाहते थे.
भेद से अभेद की ओर जाने की यह साधना पुरानी है. इस साधना में हमें कार्ल मार्क्स जैसे क्रन्तिकारी मिलते हैं जिनके विचारों ने मानव समाज को आर्थिक समता की दिशा में निश्चित मदद की थी. उन साधकों में हमें शुकदेवजी जैसे मिले जो जन्म के साथ ही स्त्री-पुरुष देह भाव से मुक्त थे. नारी के प्रश्न के बारे में गांधीजी की साधना में मार्क्स और शुकदेव की साधना का काफी हद तक समन्वय दीखता है.
*गाँधी कथाकार स्वर्गीय नारायण देसाई महात्मा गाँधी के निजी सचिव महादेव देसाई के सुपुत्र थे। यह लेख महादेव देसाई के पौत्र नचिकेता देसाई के सौजन्य से प्रस्तुत किया गया।